Saturday, April 20, 2024

डॉ. आंबेडकर यानी दोहरे गुलामों के मुक्तिदाता

डॉ. आंबेडकर एक युगपुरुष, क्रांतिदूत, गुलामों के मुक्तिदाता, आधुनिक भारत के प्रमुख शिल्पकार, मौलिक चिंतक, समीक्षक, सिद्धांतकार, विश्वविख्यात विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, तत्ववेत्ता एवं राजनीतिक द्रष्टा के साथ ही विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्होंने हर तरह से दीन-हीन और दबे-कुचले अस्पृश्य और पिछड़े समाज को चेतना दी। उन्हें अधिकार प्राप्ति के लिए कुर्बानी देना सिखाया और स्वाभिमान से जीने तथा स्वावलंबन की ओर अग्रसर किया। जड़तापूर्ण, रुढ़िवादी हिंदू समाज को सुधारने के लिए भूकंपी झटके देकर गतिशील करने का कार्य किया।

गांधीजी को कड़ी चुनौती

गांधीजी ने 1917 में चंपारण का दौरा किया। उनका कांग्रेस की राजनीति में प्रवेश हुआ। उन्होंने तिलक के आभिजात्य होम रूल को सन् 1920 में स्वराज के आंदोलन में बदल दिया। गांधी नाम की आंधी पूरे भारत में छा गई थी। इस आंधी के सामने सभी वाद, सभी विचार और बड़े-बड़े लोग धराशायी हो गए थे। गांधी राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वालों के प्रतीक बन गए थे। इसी समय विश्व के तीन प्रख्यात लोकतांत्रिक देशों- ब्रिटेन, अमरीका और जर्मनी के विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ. भीमराव आंबेडकर अछूतों के सशक्त प्रवक्ता के रूप में देश के राजनीतिक पटल पर आते हैं। वे होम रूल की राजनीति में अछूतों की गुलामी की मुक्ति का सवाल उठाते हैं। वे मुक्ति के सवाल पर स्वराज के लिए लड़ रहे हिंदुओं और सरकार को भी, जो दलितों को हिंदू मान रहे थे, कटघरे में खड़ा करते हैं। डॉ. आंबेडकर दलितों की लड़ाई न ही तिलक की तरह लड़ना चाहते थे और न गांधी की तरह।

गांधी की लड़ाई अंग्रेजों से थी, जिसका मकसद अंग्रेजों से मुक्ति था। इधर अंग्रेज भारत छोड़ते और स्वराज की लड़ाई समाप्त हो जाती। लेकिन दलितों की लड़ाई अंग्रेजों से वैसी नहीं थी, जैसी हिंदुओं से थी। अंग्रेज दलितों से छुआछूत और अन्य अमानवीय व्यवहार नहीं करते थे, बल्कि सवर्ण हिंदू ही उनसे भेदभाव, अत्याचार और छुआछूत का बर्ताव करते थे। उनके साथ बंधुआ मजदूर की तरह व्यवहार करते थे। उन्हें अंग्रेजों ने नहीं, हिंदुओं ने गुलाम बनाया था। इसलिए उन्हें पहले अंग्रेजों से नहीं, हिंदुओं से मुक्ति चाहिए थी। स्वराज की लड़ाई में दलितों की मुक्ति का सवाल न तिलक ने उठाया था और न ही गांधी ने।

डॉ. आंबेडकर ने गांधी की भावनामयी आंधी को रोक कर अछूतों की स्वतंत्रता के प्रश्न को चर्चा का केंद्र बिंदु बनाया। डॉ. आंबेडकर ने देश-विदेश को यह एहसास कराया कि अछूतों की वर्णाश्रमी गुलामी के आगे देश की राजनीतिक गुलामी बहुत छोटी है। ऐसे गुलामों के स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वालों के प्रतीक और मुखर प्रवक्ता के रूप में डॉ. आंबेडकर उभरे। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों से इसी रूप में आजादी मिल गई तो अछूत जो दोहरी गुलामी में हैं, सवर्णों के गुलाम बने ही रहेंगे, बल्कि अंग्रेजों के जाने के बाद राजसत्ता पर निरंकुश ब्राह्मणवादी और बर्बर जमींदार और ज्यादा हावी हो जाएंगे तथा उन पर और अत्याचार बढ़ेंगे। उनकी मुक्ति की रही सही आशा भी समाप्त हो जाएगी।

डॉ. आंबेडकर ने कहा कि स्वराज्य के लिए कांग्रेस और गांधी की लड़ाई शासक वर्ग से स्वतंत्रता के लिए है, अछूतों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की स्वतंत्रता के लिए नहीं है। डॉ. आंबेडकर के लिए दलित मुक्ति की लड़ाई सबसे बड़ी एवं कठिन लड़ाई थी। हिंदुओं की लड़ाई सिर्फ दो सौ साल की राजनीतिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी। किंतु दलितों की लड़ाई हजारों साल की सभी प्रकार की (सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक) गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी। यह वह पृथक दलित आंदोलन था, जो विद्वतापूर्ण ढंग से सीधी लड़ाई के अंदाज में किया जा रहा था। डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में 20 मार्च 1927 को महाड़ के सार्वजनिक तालाब से अछूतों को पानी लेने का जल-सत्याग्रह और 2 मार्च 1930 को नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह किया गया, जिसने हिंदुओं और कांग्रेस को बेनकाब और विचलित कर दिया।

डॉ. आंबेडकर ने यह सवाल उठाया कि देश की राजनीतिक आजादी मांगने वाले लोग, जो अपने 90 प्रतिशत करोड़ों सहधर्मियों (दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों) को बंधुआ मजदूर और अर्द्धदास जैसी स्थिति में जबरन रखे हुए हैं, किस अधिकार से अपने लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रहे हैं? क्या उनकी आजादी में बंधुआ मजदूर, अछूत और अर्द्धदास भी मुक्त किए जाएंगे? उन्होंने ऐसे लोगों के दोहरे चरित्र और कारनामों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मजबूती से उठाया। इसके लिए उन्हें तत्कालीन स्वराजवादियों और राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजपरस्त, देशद्रोही और न जाने क्या-क्या कहा। इस पर डॉ. आंबेडकर ने कहा कि यदि सवर्ण अछूतों की स्थिति में रहते तब उनकी निष्ठा क्या होती?

डॉ. आंबेडकर राजनीतिक स्वतंत्रता के विरोधी नहीं थे। उनकी प्राथमिकता हिंदू सामाजिक व्यवस्था और सभी प्रकार की गुलामी और अमानवीय प्रथाओं को नष्ट करना था। वे इसके लिए कानूनी गारंटी के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक हिस्सेदारी चाहते थे।

डॉ. आंबेडकर सभी मोर्चों (राजनीतिक स्वतंत्रता, दलित मुक्ति एवं सामाजिक न्याय) पर एक साथ नहीं लड़ सकते थे। उन्होंने दलित मुक्ति एवं सामाजिक न्याय के सबसे कठिन कार्य पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया। डॉ. आंबेडकर देश के दमित मानवता और दोहरे गुलामों की मुक्ति का स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे थे। देश में सामाजिक क्रांति का बिगुल बजा रहे थे। उस समय इस काम पर किसी का ध्यान नहीं था। इस लड़ाई में डॉ. आंबेडकर अछूतों के पैगंबर के रूप में उभरे।

अछूतों की इस लड़ाई ने स्वराज आंदोलन की चूलें (नींव) हिला कर रख दी। यह इसी नेतृत्व और आंदोलन का प्रभाव था कि गांधीजी ने अछूतोद्धार के लिए हरिजन सेवक संघ की स्थापना की तथा घोषणा किया कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का कलंक है। यह पाप है। स्वामी श्रद्धानंद और लाला लाजपत राय ने कहा कि हिंदू समाज से अस्पृश्यता को नहीं मिटाया गया तो हमें स्वराज कभी नहीं मिल सकेगा।

 गांधीजी की कथनी और करनी पर हमला

दोहरे गुलामों की मुक्ति और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले महापुरुष ने अपने युग के श्रेष्ठ और प्रभावशाली व्यक्ति गांधीजी को चुनौती दी। जाति और वर्ण व्यवस्था की मान्यताओं के लिए गांधी को ढोंगी और पाखंडी कहते हुए उनकी कथनी और करनी को ललकारा। उन्होंने कहा कि गांधी जाति और वर्ण व्यवस्था को मानते हैं तो वे स्वयं तराजू क्यों नहीं पकड़ते हैं? वे बनिया का व्यवसाय क्यों नहीं करते हैं? वे किसे उपदेश दे रहे हैं? वे कभी महात्मा, कभी राजनेता क्यों बने फिर रहे हैं? इस चुनौती ने गांधीजी को अंदर तक हिला कर रख दिया। गांधीजी को अपनी बहुत सी मान्यताओें को बदलना पड़ा। अछूतोद्धार आदि के विभिन्न कार्यक्रम चलाए गए। जाति और वर्ण व्यवस्था के संबंध में गांधीजी के विचारों में परिवर्तन हुआ। वे जाति के खिलाफ खड़े हुए पर वर्ण से कुछ वर्षों तक चिपके रहे और अंत में उसके भी खिलाफ हो गए। जब गांधीजी से इस मत-परिवर्तन के बारे में पूछा जाता था तो उनका जवाब होता था कि यह सत्य का प्रयोग है। मेरे वर्तमान कथन को सत्य मानों, पिछला कथन भूल जाओ।

गांधीजी ने अपनाया बाबासाहेब का वचन

गांधीजी ने जीवन के अंतिम समय में जाति और अंतर्जातीय विवाहों के संबंध में डॉ. आंबेडकर के विचारों को अपना लिया और सन् 1945 में कहा कि हमें अतिशूद्र और सवर्ण हिंदू के विवाह को बिना हिचक सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। गांधीजी ने 9 मई 1945 को पुनः एक सामाजिक कार्यकर्ता को लिखा कि “अगर वह शादी एक ही जाति बिरादरी में हो रही है तो मुझसे आशीर्वाद मत मांगो। मैं आशीर्वाद तभी दूंगा जब लड़की किसी और समुदाय की होगी।”

डॉ. आंबेडकर ओजस्वी, वाकपटु और व्यंग्य के तीर चलाने में महारथी थे। संत कबीर की तरह विरोधियों के ठीक विरुद्ध किनारे खड़े होकर व्यंग्य के तीर चलाते थे। कोई विरोधी उनके बाणों (तर्कों) का उत्तर देने की स्थिति में नहीं रहता था। ढोंगियों और सामाजिक कुरीतियों पर उनका जवाब मुंहफट और चुभनेवाला हुआ करता था। उनके भाषण विचारोत्तेजक और सार्वजनिक जीवन के पाखंडों का पर्दाफाश करने वाले होते थे। उनकी मान्यता थी कि सतत् परिश्रम और मितव्ययिता के व्यवहार से मनुष्य को जीवन में सफलता मिलती है। बहता हुआ पानी और गुजरता हुआ समय लौटकर नहीं आता है। बाबासाहेब आंबेडकर ने इस वचन का सदुपयोग हमेशा किया।                

हिंदू कोड बिल पर करपात्री को कड़ी चुनौती

जब सन् 1951 में हिंदू कोड बिल पर स्वामी करपात्री के नेतृत्व में विरोध आंदोलन चलाया जा रहा था, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने करपात्री को संस्कृत, हिंदी या अंग्रेजी में वाद-विवाद की चुनौती दी। करपात्री ने जब कहा कि संन्यासी और स्वामियों का दर्जा गृहस्थों से ऊंचा है। कानून मंत्री मेरे आश्रम (निगमबोधी घाट, दिल्ली) पर स्वयं वार्ता के लिए आयें। पत्युत्तर में बाबासाहेब ने कहा कि मैं मानता हूं कि संन्यासी गृहस्थ से बड़ा है लेकिन करपात्री तुम संन्यासी कहां हो? तुम तो राजनीति कर रहे हो। संन्यासी को हिंदू कोड बिल से क्या लेना देना? तुम तो सांसारिक झमेले को त्याग चुके हो, फिर राजनीति के अखाड़े में मल्ल करने के लिए क्यों बैठे हो? हिंदू कोड बिल एक राजनीतिक और विधायी प्रश्न है। तुम आकर शास्त्रार्थ कर सकते हो। यदि तुम्हें मेरे साथ छूने या सीधी बातचीत से परहेज है तो गरम पानी और पर्दे का प्रबंध करवा दूंगा। स्वामी करपात्री ने संदेशवाहक को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर से मिलने का वायदा किया पर मिलने नहीं गए।

हाजिर जवाब बाबासाहेब

डॉ. आंबेडकर को जब कभी दो हिंदू राजाओं- महाराजा बड़ौदा और महाराजा कोल्हापुर के छात्रवृत्ति और आर्थिक सहायता से अध्ययन करने के एवज में उनके द्वारा हिंदू धर्म के विरुद्ध बोलने और अछूतों की आजादी की मांग के लिए नाशुक्रगुजार कहा गया तो उनकी तत्क्षण प्रतिक्रिया होती थी कि अंग्रेजों ने विश्वविद्यालय खोलकर हिंदुस्तानी हिंदुओं को अंग्रेजी शिक्षा दी तथा इंग्लैंड में उच्च शिक्षा दिलाई किंतु अब वही शिक्षित हिंदू अपने अंग्रेज शासकों से मुक्ति पाने के लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रहे हैं। यदि ऐसे कृतघ्न हिंदू महान देशभक्त कहला सकते हैं तो अछूत जाति को हजारों सालों की अमानवीय दासता और गुलामी से छुटकारा दिलाने की कोशिश देशभक्ति का श्रेष्ठ कर्म क्यों नहीं हो सकता है?    

मरे जानवरों को उठाने और खाने का कड़ा विरोध करते हुए डॉ. आंबेडकर ने सन् 1926 में आह्वान किया कि महार-चमार एवं अन्य अछूत जातियां मरे हुए गाय-भैंस को न उठायें और न ही मरे हुए गाय-भैंस का मांस खायें। उन्होंने कहा कि हिंदू गाय को माता कहते हैं। जिंदा गाय-भैंस का दूध पीते हैं और मरने पर उसे हमसे फेंकवाते हैं। ऐसा क्यों? अगर वे अपनी बूढी मां के मरने पर उसे खुद उठा ले जाते हैं तो मरी हुई अपनी गौ माता को स्वयं क्यों नहीं उठा ले जाते हैं? 

30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की गई। इसकी सबसे ज्यादा प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में हुई। हत्यारा नाथूराम गोडसे महाराष्ट्र का चितपावन ब्राह्मण था। महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मणों और मराठों ने महाराष्ट्र के नगरों एवं गांवों में ब्राह्मणों के घरों को लूटा। उनके घर फूंके गए, उनकी बहू-बेटियों के साथ बुरा बर्ताव हुआ। कहीं-कहीं उन्हें जान से भी मारा गया। महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से ब्राह्मणों का जत्था बाबासाहेब आंबेडकर के पास मदद के लिए नई दिल्ली आया। बाबासाहेब से मिलकर कई लोग फूट-फूट कर रोने लगे। बाबासाहेब आंबेडकर उस समय केंद्रीय कानून मंत्री के पद पर थे। उन्होंने लोगों को सांत्वना दी, दुख प्रकट किया। उन्हें आर्थिक सहायता दी। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार और भारत सरकार से उनके जान-माल की सुरक्षा और आर्थिक सहायता का अनुरोध किया।

उसी समय कुछ देर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख सदाशिव गोलवलकर बाबासाहेब से मिलने आए। उन्होंने महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर किए जा रहे अत्याचारों की व्यथा सुनाई और अपने सुझाव मराठी में व्यक्त किए। उनकी बातों को सुनने के बाद बाबासाहेब ने कहा कि गोलवलकर तुम तो चितपावन ब्राह्मण हो। तुम्हारे पुरखे पेशवा महाराज के राज्य में अछूतों के गले में मिट्टी की हड़ियां बांधने, कमर में झाड़ू और हाथ में काला धागा बांध कर सड़कों पर चलने का आदेश दिया था ताकि कोई सवर्ण हिंदू उन पथों पर चल कर या उनसे छुआकर धर्मभ्रष्ट न हो जाए। तुम्हारा वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी तो हिंदू के नाम पर ब्राह्मण संगठन है! इसमें न तो अछूत हैं, न मराठे, न शूद्र! तुम संघ चलाओ, संगठन बनाओ! अब तुमने हिंदू-मुस्लिम विद्वेष की सांप्रदायिकता का एक और विष-वृक्ष बोना आरंभ कर दिया है। इस सबका देश पर बहुत ही बुरा प्रभाव होगा। अपनी पिछली भूलों को सुधारों, इसमें मैं तुम्हारा साथ दूंगा। सदाशिव गोलवलकर खामोशी से बाबासाहेब की बात सुनते रहे और अंत में बिना किसी बात का उत्तर दिए चुपचाप उठ कर चले गए।

दलितों-पिछड़ों को सिखाया संघर्ष का मार्ग

डॉ. आंबेडकर की पहली महत्वपूर्ण विशेषता है कि उन्होंने अछूतों-पिछड़ों में मानव अस्तित्व की चेतना को जागृत किया। अधिकार के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी। याचकों को याचना और गुलामी की मानसिकता छोड़ने के लिए प्रेरित किया।

     दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता है कि डॉ. आंबेडकर ने अधिकारों के लिए सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक मंच से भी संघर्ष का बिगुल फूंका।

     तीसरी विशेषता यह है कि प्रादेशिक स्तर पर चलने वाले अछूतों के संघर्ष को राष्ट्रीय समस्या के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित किया। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अछूतों के मानवाधिकार एवं उनकी समस्याओं का वैज्ञानिक तर्क, बुद्धि और सत्य निष्ठा से उठाया।

     चौथी विशेषता यह है कि डॉ. आंबेडकर ने धार्मिक मोर्चे पर भी संघर्ष छेड़ा और कहा कि अछूतों के शोषण का कारण हिंदू धर्म है। अतः इंसानियत और समान व्यवहार का दर्जा न देने वाले हिंदू धर्म का त्याग कर समानता वाले धर्म को स्वीकार करें जहां आत्मगौरव, शांति और सुरक्षा मिले।

     पांचवी विशेषता यह है कि सरकारी संस्थाओें में अछूतों को सुरक्षित स्थान दिए जाएं। विधायिका में आरक्षण, शिक्षण संस्थाओें में प्रवेश, छात्रवृत्ति और आर्थिक संसाधनों में भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इन प्रश्नों को मानवाधिकार, सामाजिक-राजनीतिक समानता और भागीदारी के साथ जोड़कर डॉ. आंबेडकर ने इसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बिंदु बनाया। देश के कर्णधारों को इसका समाधान करने के लिए विवश किया।

डॉ. आंबेडकर की मान्यता थी कि धर्म और राजसत्ता के बल पर दलितों-पिछड़ों को गुलाम बनाकर रखा गया है। धर्म की क्रमागत ऊंच-नीच वाली जाति व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था के द्वारा वे विभाजित होकर असहाय रहे। उनके चहुंमुखी विकास के रास्ते में धर्म के नाम पर बड़े-बड़े अवरोधक खड़े किए गए हैं। उन्हें राजसत्ता और धार्मिक मामले में भागीदारी से वंचित किया गया है। उन्हीं अवरोधों को हटाने के लिए विविध उपायों के साथ बाबासाहेब आजीवन संघर्षरत रहे। ‘डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय’ उनके जीवन संघर्ष एवं उपलब्धियों का दस्तावेज है, नये भारत के निर्माण का ब्लू प्रिंट है। पूना पैक्ट 1932, ‘एक व्यक्ति : एक वोट : एक मूल्य’ और भारतीय संविधान के निर्माण में उनके योगदान चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेंगे।

डॉ. आंबेडकर ने ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो, सफलता अवश्यंभावी है’ का उत्साहवर्द्धक नारा दिया। उन्होंने दलितों की विभिन्न उपजातियों को अनुसूचित किया और उन्हें आपसी भेदभाव दूर करने को प्रेरित किया। राजसत्ता पर अधिकार करने की भावना पैदा की। उन्हें एकजुट करने के लिए धर्म-परिवर्तन का संदेश दिया- ‘एक जाति बनो, मानव बनो’ का आह्वान किया।

     डॉ. आंबेडकर कबीर, फुले, गोखले और रानाडे की परंपरा के महापुरुष थे, जिन्होंने हमारे देश को एक ऐसा संविधान दिया जो सामाजिक क्रांति का दस्तावेज है। न्यायविद डॉ. आंबेडकर का भारतीय समाज को दिया गया यह एक नायाब तोहफा है। बाबासाहेब का जीवन आदि से अंत तक प्रेरणादायक और स्फूर्तिदायक है। उनके जीवन के प्रसंगों को काव्य में उद्धृत किया जा सकता है। उनका संपूर्ण जीवन अपने आप में एक महाकाव्य है। आंबेडकर का मिशन देश की एकता, अखंडता और खुशहाली का मिशन है, भारतीय समाज को रुढ़ियों, अंधविश्वासों और जड़ताओें से मुक्त कर जातिविहीन, उदार, बौद्धिक और वैज्ञानिक समाज बनाने का मिशन है। उनके मिशन को पूरा करने की दिशा में किया जाने वाला प्रयत्न ही बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(इंजीनियर राजेंद्र प्रसाद एक सामाजिक चिंतक हैं।)

जनचौक से जुड़े

4 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।