दुष्यंत दवे का लेख: SC ने भानुमती का पिटारा खोल दिया, क्या हम हर मस्जिद के ASI सर्वे का आदेश देंगे?

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश एसए बोबड़े, डॉ. डीवाय चंद्रचूड़ (जैसा वह उस समय कहलाते थे), अशोक भूषण और एस अब्दुल नज़ीर की संवैधानिक पीठ ने एम सिद्दीक (मृत) कानूनी प्रतिनिधि के ज़रिए विरुद्ध महंत सुरेश दास एवं अन्य (राम जन्मभूमि मंदिर) मामले में अपने नौ नवंबर 2019 के अपने आदेश में उपासना स्थल (विशेष अनुबंध) अधिनियम, 1991 की व्याख्या की थी।

अदालत ने अधिनियम की व्याख्या करती कानून की बाध्यकारी घोषणा की थी, जो संवैधानिक व्यवस्था के तहत कानून बन जाती है और भारत में सभी अदालतों पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत लागू होती है। इसका निर्णय बाद के सभी मामलों में “नज़ीर” और तय की गई बातों के पालन करने के सिद्धांत के रूप में सभी अदालतों (शीर्ष अदालत समेत) को मानना होगा। तर्क यह है कि कानून जिससे नागरिक शासित होते हैं, निश्चित, स्पष्ट और ज्ञात होना चाहिए।

एक आश्वासन का संवैधानिक आधार अधिनियम की प्रस्तावना कहती है: “अधिनियम किसी भी पूजास्थल का स्वरूप बदलने को प्रतिबंधित करता है और 15 अगस्त 1947 के दिन कोई भी पूजा स्थल जैसा था, उसका वही धार्मिक चरित्र बनाए रखने का प्रावधान करता है और उससे जुड़े या उसके आनुषंगिक मामलों के लिए हैं। 

पांच न्यायाधीश, जिन्होंने राम जन्मभूमि मंदिर मामले का निर्णय लिखा, उन्होंने इस अधिनियम को ऐसे परिभाषित किया है: कानून दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बनाया गया है। पहला, यह किसी भी पूजास्थल का स्वरूप बदलने को प्रतिबंधित करता है। यह करते हुए, यह भविष्य की बात करता है कि किसी पूजास्थल का चरित्र बदला नहीं जाएगा। दूसरा, कानून 15 अगस्त 1947 के दिन, जब देश को औपनिवेशिक शासन से आजादी मिली थी, विद्यमान पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने का सकारात्मक दायित्व लागू करना चाहता है।”

पूजास्थल में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, मठ या कोई भी अन्य सार्वजनिक धर्म स्थल का या किसी भी धर्म या संप्रदाय का या किसी भी नाम से जाना जाता हो। अधिनियम की परिभाषा बताती है, “इसकी व्याकरणीय विविधताओं का रूपांतरण जिसमें किसी प्रकार की छेड़छाड़ या परिवर्तन शामिल हैं।”

अदालत आगे कहती है कि “अधिनियम की धारा 3 किसी भी धर्म के पूजास्थल या उसके किसी हिस्से को दूसरे धर्म के पूजास्थल या हिस्से में या उसी धर्म के किसी दूसरे पंथ में परिवर्तित करने पर रोक लगाती है” और धारा 4 पूजास्थल के 15 अगस्त 1947 के धार्मिक चरित्र को संरक्षित करती है। अदालत ने कहा कि केवल एक पूजास्थल, “आम तौर पर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के रूप में जाना जाने वाला” को छूट दी जाती है।

न्यायाधीशों ने घोषणा की, “कानून दो अडिग और अनिवार्य नियम लागू करता है: किसी धर्म के पूजास्थल या उसके हिस्से का धार्मिक चरित्र बदलने या उसी धर्म के दूसरे पंथ में बदलने पर धारा 3 रोक लगाती है। पूजास्थल की परिभाषा व्यापक अर्थ में है और सभी धर्मों और पंथों के सार्वजनिक पूजा स्थलों को कवर करती है।

संसद के उद्देश्य को नोटिस करने के बाद न्यायाधीशों ने ज़ोर देकर कहा, “उपासना स्थल अधिनियम, जो संसद ने 1991 में पारित किया संविधान के बुनियादी मूल्यों की रक्षा करता है।”  उन्होंने कहा, “उपासना स्थलों, जैसे वह 15 अगस्त 1947 को थे, के धार्मिक चरित्र के सरंक्षण और उपासना स्थलों के बदलाव के खिलाफ गारंटी देकर संसद ने तय किया कि हर धार्मिक समुदाय को यह विश्वास दिलाना, कि उनके धार्मिक स्थल सरंक्षित किए जाएंगे और उनका चरित्र बना रहेगा, औपनिवेशिक शासन से आजादी अतीत के अन्यायों के उपचार का एक संवैधानिक आधार मुहैया कराता है।

न्यायाधीशों ने कहा, “कानून हमारे इतिहास से और देश के भविष्य से बात करता है। अपने इतिहास को हम जानते हैं और इस जरूरत को भी कि राष्ट्र कैसे इसका सामना करेगा। स्वतंत्रता अतीत के जख्मों पर मरहम के रूप में एक महत्वपूर्ण घटना थी। ऐतिहासिक गलतियों को लोगों द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर नहीं सुधारा जा सकता। सार्वजनिक उपासना स्थलों के चरित्र के सरंक्षण से संसद ने कहा है.. कि इतिहास और उसकी गलतियां वर्तमान और भविष्य को प्रताड़ित करने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं होंगी।”

दिलचस्प बात यह है कि न्यायाधीशों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी वी शर्मा के निर्णय, जिसके खिलाफ वह अपील सुन रहे थे, पर ज़ोर देकर असहमति जताई थी। न्यायाधीश ने उक्त निर्णय में कहा था, “उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 उन मामलों पर रोक नहीं लगाता जिनमें अधिनियम के लागू होने से पहले या अधिनियम लागू होने से पहले पहचाने गए अधिकार के लागू करने के लिए घोषणा मांगी गई है।”

न्यायाधीशों ने कहा, “न्यायाधीश डीवी शर्मा का निष्कर्ष धारा 4(2) के प्रावधानों के एकदम उलट है। धारा 4(2) स्पष्ट कहती है कि सभी मुकदमे, अपील और कानूनी कार्रवाइयां जो उपासना स्थल अधिनियम के पहले दिन तक चल रही थीं, 15 अगस्त 1947 के दिन उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने के संदर्भ में, किसी भी अदालत, ट्रिब्यूनल या अधिकारी के समक्ष खत्म हो जाएंगी और कोई मुकदमा, अपील या कार्रवाई ऐसे मामले में अधिनियम के बाद नहीं होंगी। स्पष्ट है, वैधानिक निर्णय को देखते हुए, न्यायाधीश डीवी शर्मा द्वारा निकाला गया अपवाद कानून के संदर्भ में त्रुटिपूर्ण है और इसलिए गलत है।”

अंजुमन इंतेज़ामिया मस्जिद कमेटी की तरफ से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय, जिसमें उसने वाराणसी जिला एवं सत्र न्यायालय के 21 जुलाई 2023 के आदेश की पुष्टि की थी, को चुनौती देने पर स्थगनादेश देने से इनकार करने का सुप्रीम कोर्ट का 4 अगस्त 2023 का निर्णय इसकी वैधता, औचित्य और न्यायसंगति पर गंभीर सवाल उठता है।

पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि मुख्य न्यायायधीश डी वाय चंद्रचूड़, न्यायाधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्र की पीठ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को सर्वे की अनुमति देने में पूरी तरह गलत है, इस आधार पर कि 1991 के अधिनियम के तहत मुख्य सवाल निर्धारित का आधार 15 अगस्त 1947 को उपासना स्थल का धार्मिक चरित्र है।

पीठ एक बाध्यकारी नज़ीर का अनुसरण करने में विफल रही जिसका कि रामजन्मभूमि मामले में न्यायाधीश चंद्रचूड़ खुद एक पक्ष थे। किसी के मन में कोई संदेह नहीं हो सकता कि ज्ञानवापी मस्जिद मुस्लिमों के लिए सदियों से पूजा स्थल है और इसलिए इसका किसी भी तरह से धार्मिक चरित्र बदलने पर पूरी तरह प्रतिबंध है।

यदि मस्जिद के स्वरूप को छुआ ही नहीं जा सकता चूंकि 15 अगस्त 1947 को यह स्वरूप अस्तित्व में था तो एएसआई जांच का क्या उद्देश्य हो सकता है और वह क्या उद्देश्य प्राप्त कर सकती है? अदालतें कभी निष्फल राहतें नहीं देतीं।

सुप्रीम कोर्ट ने इसकी पूरी अनदेखी की है कि अधिनियम के तहत दायित्व राज्य पर और राष्ट्र के हर नागरिक पर है और हर स्तर पर शासन करने वालों के लिए बाध्यकारी है। 

सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक मूल्यों और नैतिकता का अंतिम मुहाफ़िज़ है। राम जन्मभूमि मंदिर मामले के निर्णय की भावना को लागू करते हुए तीनों अदालतों को अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों और भावनाओं के प्रति असाधारण रूप से सजग रहना चाहिए था। ऐसे महत्वपूर्ण समय जब चुनाव आ रहे हैं, कोई भी बहुसंख्यवादी रुख समाज के हिस्सों में गंभीर संशय पैदा कर सकता है।

इस्लामिक समय में कट्टरता की हमेशा आलोचना की जाती रही है, वास्तव में उसी से मजबूत मराठा, राजपूतों और सिखों का उभार हुआ और मुस्लिम साम्राज्य को उखाड़ फेंका गया।

भानुमती का पिटारा खुला

अब सवाल यह है, यहां से हम कहां जाएंगे? क्या हम हर मस्जिद के लिए सर्वे के आदेश देंगे क्योंकि शहरों से लेकर गावों तक लोग ऐसे दावे करेंगे? कोई यह भी सुझाव दे सकता है कि हम लाल किले या ताज महल की खुदाई कर डालें। अदालत में मथुरा मस्जिद के वैज्ञानिक सर्वे का अनुरोध करती याचिका भी है। सुप्रीम कोर्ट ने जैसे भानुमती का पिटारा खोल दिया है।

हमें यह जरूर याद रखना चाहिए कि जहां मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं के साथ अन्याय किया, लोकतान्त्रिक भारत मुस्लिमों से सब अनकिया करने को नहीं कह सकता। सिर्फ यही याद किया जा सकता है कि अकबर ने हिंदुओं का सम्मान किया और उन्हें धार्मिक आजादी दी। भक्ति आंदोलन जिसके दौरान चैतन्य, सूरदास, तुलसीदास, गोपाल भट्ट, संकरदेव, एकनाथ, तुकाराम, दादू, मीरा बाई और गुरु नानक जैसे महान संत आए, ने गैर ब्राह्मणों खास कर दलितों का हिंदुओं में दर्जा बढ़ाया। एक तरह से धर्म का लोकतंत्रीकरण किया।

जब इतिहास भविष्य में लिखा जाएगा, ऐसा संदर्भ नहीं होना चाहिए कि हिन्दू 21 वीं सदी में धार्मिक कट्टरता में संलिप्त रहे। क्योंकि 5000 से अधिक वर्षों से हिन्दू धर्म एक जीवनशैली रहा है और उदारवाद, सहिष्णुता और समावेश की विशेषताओं के साथ महान धर्मों में से एक रहा है। आइए हम अपने प्यारे देश में शांति और समृद्धि के लिए उम्मीद करें।  

(सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील दुष्यंत दवे का लेख द हिंदू से साभार, अनुवाद- महेश राजपूत)       

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