नोटबंदी की तरह के घनघोर मूर्खतापूर्ण क़दम के अलावा भारत की अर्थ-व्यवस्था को डुबाने में मोदी सरकार की विदेशनीति का कम बड़ा योगदान नहीं है । आज भारत अपने उन सभी पड़ोसी देशों नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका से कटता जा रहा है जो भारत के लिये उसके अंदरूनी बाजार का ही एक स्वाभाविक विस्तार हुआ करते थे । इन सभी देशों के बाजार पर जिस अनुपात में चीन का प्रभुत्व बढ़ रहा है, उसी अनुपात में भारत का वहां से निष्कासन हो रहा है ।
यह एक प्रकार से भारत के अंदरूनी बाजार का ही संकुचन है । मोदी सरकार का रवैया इन देशों के प्रति थोथी धौंसपट्टी का रवैय्या होने के कारण सार्क की तरह का क्षेत्रीय बहुस्तरीय मंच पूरी तरह से ठप हो गया है । पाकिस्तान से तो लंबे अर्से से भारत के सारे संपर्क टूटे हुए हैं; नेपाल ने भारत की करेंसी पर ही रोक लगा दी है ; बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ भी चीन के व्यापारिक संबंधों में विकास हुआ है । दूसरी ओर, लाख कोशिश करके भी चीन के साथ भारत का व्यापारिक घाटा कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है ।
मजे की बात यह है कि मोदी सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को ख़ुश करने की जितनी अधिक कोशिश करता है, भारत में अमेरिकी पूंजी को तो ज़्यादा से ज़्यादा सहूलियतें मिलती जा रही हैं, लेकिन इसके बदले में भारत को कोई लाभ मिलने के बजाय उल्टे अमेरिका में भारतीय मालों पर आयात शुल्क बढ़ता जा रहा है । ऊपर से पाकिस्तान के साथ बिगड़ते संबंध और कश्मीर समस्या ने अमेरिका को भारत के लिये ऐसा ख़तरा बना दिया है कि भारत में उससे किसी प्रकार की सौदेबाज़ी करने की हिम्मत तक नहीं बची है ।
ट्रंप ने 26 जनवरी की परेड में आने के निमंत्रण को जिस प्रकार ठुकराया था, उसी से भारत के प्रति अमेरिका के रुख़ को आसानी से समझा जा सकता है । दुनिया के दूसरे बाज़ारों में पहले से ही भारत चीन के सामने कहीं टिक नहीं पा रहा है । एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अपने को स्थापित करने की भारत की दंभपूर्ण कोशिशों को दुनिया का एक भी देश अच्छी नजर से नहीं देख रहा है ।
इस्लामिक देशों की नज़र में भारत के प्रति कोई आग्रह नहीं बचा है । इसराइल और रूस भारत को अपने हथियारों का एक महत्वपूर्ण सौदागर मानने के कारण ख़ुश रखते हैं । इन सबका कुल असर यह है कि आज की परिस्थिति में भारत की अर्थ-व्यवस्था के लिये अपने संकट से निकलने का जैसे कोई रास्ता ही नहीं बच रहा है ।
मोदी जी की सैलानियों वाली लगातार विदेश यात्राओं और उनकी वजह से उनके खुद के यथार्थ बोध में आई कमी ने भारत की अर्थ-व्यवस्था के संकट को बढ़ाने में प्रत्यक्ष योगदान किया है । विदेश नीति से अपने आर्थिक हितों को साधने की न्यूनतम समझ का भी इस सरकार के पास अभाव है । लगातार गहराता आर्थिक संकट और एक व्यक्ति की मज़बूत होती राजनीतिक जकड़बंदी का योग भारत में फासीवाद की ज़मीन तैयार कर रहा है और द्वंद्वात्मक रूप से फासीवाद का हर रूप अर्थ-व्यवस्था को नुक़सान पहुंचा रहा है । ज़रूरत है इसी दुष्चक्र को तोड़ने की ।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)