Saturday, April 20, 2024

गहरे आर्थिक संकट में पहुंच गया है यूरोप

वित्तीय पूंजी का असाध्य संकट शुरू हो चुका है। 2008 से शुरू हुई आर्थिक मंदी ने स्थायित्व ग्रहण कर लिया है । जिसका असर आर्थिक और राजनीतिक संकट के‌ रूप में दिखने लगा है।

ब्रिटेन की 46 दिनी प्रधानमंत्री का इस्तीफा इस बात की स्वीकारोक्ति है कि संकट का समाधान पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के दायरे में संभव नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने त्यागपत्र देते हुए कहा कि वर्तमान स्थितियों में जिन वादों के लिए मैं चुनी गई थी उनके समाधान का रास्ता दिखाई न देने के कारण मैं इस्तीफा दे रही हूं।

कम से कम ब्रितानी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री में इतनी नैतिक शक्ति शेष है कि वह व्यवस्था जन्य कमजोरियों को स्वीकार कर सकें।

ब्रिटिश संसद में विपक्ष के नेता जेरेमी कोरबिन ने कहा कि अगर हम (पूंजीवाद) नीतिगत प्राथमिकता नहीं बदलते तो समय-समय पर आर्थिक संकट आते रहेंगे। आगे उन्होंने कहा कि हमें अपनी” नीतियां कुछ लोगों के लिए नहीं बहुमत के लिए” बनानी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा आर्थिक संकट से बचना संभव नहीं है।

पृष्ठभूमि, सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय विश्व के निर्माण की प्रक्रिया से शुरू हुई। जिसके लिए दो रास्ते अख्तियार किए गए।

एक- (सैन्य मार्ग) अमेरिका ने नाटो का विस्तार करना शुरू किया। साथ ही शीत युद्ध कालीन ऐसे देश जो अमेरिकी नेतृत्व को अस्वीकार करते थे उनके ऊपर सैनिक हमले और आंतरिक टकरावों को हवा देने के साथ  उनके विघटन की कोशिश की गई।

जिससे पूर्वी यूरोप से लेकर अफ्रीका एशिया तक वाहृय और आंतरिक युद्धों की श्रृंखला शुरू हो गई। सोवियत ब्लॉक के कई देश विखंडित हो गए। भीषण नरसंहार मारकाट हुई ।सोवियत संघ से अलग हुए देशों को स्थाई तनाव क्षेत्र में बदल दिया गया।

बाद में सभ्यताओं के संघर्ष की आड़ में इस्लामोफोबिया खड़ा करते हुए इस्लामिक आतंकवाद का विमर्श खड़ा किया गया। जिसके द्वारा विश्व में नफरत, घृणा और विभाजन की राजनीति को वैधता मिली। शुरू में अफगानिस्तान की सोवियत समर्थक सरकार को उखाड़ने के लिए कट्टरपंथी इस्लामिक समूहों को मदद दी गई। कबीलों को हथियार बंद किया गया।

बाद में कट्टरपंथ ने अधिकांश इस्लामिक देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया । 9/11 के बाद तो अमेरिका को इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया सहित न जाने कितने देशों पर आक्रमण करने का नैतिक और कानूनी अधिकार मिल गया।

दो- (आर्थिक) वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर डब्ल्यूटीओ, आईएमएफ और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का प्रयोग करते हुए अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विकासशील और पिछड़े देशों पर साम्राज्यवादी पूंजी परस्त नीतियां थोप दी गईं। जिसे उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की खूबसूरत शब्दावली में पेश किया गया। साथ ही इन नीतियों के तहत वैश्विक अर्थमंत्र को नए तरह से पुनर्गठित करने का दबाव राष्ट्रों पर डाला गया।

परिणाम स्वरूप नवस्वतंत्र देशों में विकसित हुआ उपनिवेशोत्तर कालीन ढांचा ध्वस्त हो गया और नया ढांचा न खड़ा हो पाने के कारण विकासशील राष्ट्रों में आर्थिक अराजकता पैदा हो गई ।

आज का वैश्विक आर्थिक संकट अमेरिकी साम्राज्यवादी ब्लॉक( बहुराष्ट्रीय कंपनियों) के लूट की हवस के अपराध का स्वाभाविक परिणाम है।

आर्थिक संकट और युद्ध-  सचमुच लेनिन कितने सही थे। जो कह रहे थे कि “साम्राज्यवाद मतलब युद्ध”। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से यूनाइटेड किंगडम अमेरिका का सबसे विश्वसनीय और मजबूत सहयोगी रहा है। कभी जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था। आज उसे व्यंग्य की भाषा में अमेरिका का51 वां प्रदेश कहते हैं।

यूक्रेन रुस युद्ध-सोवियत संघ के विघटन के बाद राजनीतिक घटनाक्रम में पूर्व सोवियत जासूस पुतिन के हाथ में रूस की सत्ता आई। सेंट पीटर्स वर्ग में बैठा हुआ राष्ट्रपति देश के अंदर विपक्ष को समाप्त करते हुए रूस पर आधुनिक तकनीकी युग की तानाशाही थोप दिया है । साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के पीठ पर सवार तानाशाह विस्तारवादी होता ही है।

दूसरी तरफ शीत युद्ध के समाप्ति के बाद भी अमेरिकी साम्राज्यवाद की युद्ध केंद्रित आर्थिक नीति जारी रही ।अमेरिका नाटो के विस्तार में लगा रहा। धीरे-धीरे लाल सागर के उस पार तक भी पहुंचने की कोशिश की।

नाटो देशों को पता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी सोवियतकालीन सुदृढ ढांचा बचा हुआ है ।रुस आज भी एक वैश्विक महाशक्ति है। जो कभी भी अमेरिकी नेतृत्व को इंग्लैंड की तरह से स्वीकार नहीं करेगा।

इसलिए उसने नाटो के विस्तार द्वारा रूस को घेरने की नीति जारी रखी। इसे सिर्फ भौगोलिक नियंत्रण के अर्थ में नहीं देखा जाना चाहिए ।

इसका मूल कारण आर्थिक है। यूरेशिया क्षेत्र प्राकृतिक गैस, तेल और खनिज संपदा से भरा पड़ा है ।जिस पर कारपोरेट पूंजी की निगाह लंबे समय से लगी हुई थी।

इसलिए इस क्षेत्र के खनिज संपदा की लूट के लिए अमेरिका कठपुतली सरकारें बनवाने से लेकर नई-नई संधियों और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष युद्दों द्वारा अपने प्रभाव विस्तार में लगा रहा। जिससे सोवियत संघ से अलग हुए अधिकांश देश नाटो के पाले में चले गए।

यह रूस के लिए सामरिक और आर्थिक खतरे की घंटी थी। जिसे अमेरिकी युद्ध नीति के विस्तार के क्रम में देखा जाना चाहिए।

एशिया का आर्थिक शक्ति के रूप में अभ्युदय- एशिया में उभरती हुई आर्थिक और सामरिक शक्ति चीन लगातार अमेरिका के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। शुरुआत में अमेरिका में पुतिन के माध्यम से यूरेशिया में नए समीकरण बनाने की कोशिश की।जिससे चीनी प्रभाव को रोका जा सके। लेकिन रूस की सीमा के नजदीक जैसे-जैसे नाटो की सैन्य शक्ति बढ़ती गई पुतिन के कान खड़े हो गए ।

उन्होंने पहले क्रीमिया को नियंत्रण में लिया। यूक्रेन के पूर्वी उत्तरी भाग के कई क्षेत्र रूसी भाषा बहुल होने के कारण रुस यूक्रेन को तटस्थ देश के रूप में बनाए रखना चाह रहा था । लेकिन राष्ट्रपति जेलेंस्की के नाटो में शामिल होने की घोषणा के बाद रूस ने यूक्रेन पर हमला करने का फैसला किया।

मंदी का विकराल होना

युद्ध के स्वाभाविक परिणाम स्वरूप पहले से चली आ रही मंदी ने विकराल रूप धारण कर लिया है। यूरोप पूरी तरह से आर्थिक संकट के दायरे में खिच आया है।

ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर के त्यागपत्र को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है। चूंकि इंग्लैंड अमेरिका का यूरोप में आक्रामक सहयोगी है। इसलिए यूके का संकट यूरोप और अमेरिकी नेतृत्व के लिए खतरे की घंटी है। आज यूरोप के अधिकांश देश महंगाई बेरोजगारी पेट्रोल डीजल गैस के गंभीर  संकट झेल रहे हैं। जिससे वहां राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल मची है।

आर्थिक संकट का राजनीतिक संकट में बदलाव

आर्थिक संकट जब विकसित होते-होते राजनीतिक संकट में अभिव्यक्त होने लगे तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दुनिया को अब सामान्य तरह से संचालित नहीं किया जा सकता है। इसलिए यूरोपीय देशों इटली,फ्रांस, हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया जैसे देशों में नाजीवाद और फासीवाद का उभार दिखाई दे रहा है।

ऐसा लगता है कि यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की स्थितियां बनने लगी हैं। चारों तरफ अफरा-तफरी राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट इस तरह से बढ़ गया है यूरोप में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई है और स्थापित लोकतंत्र को भारी क्षति पहुंच रही है।

ऐसे समय में फासीवाद और नाजीवाद की विचारधारा के लिए आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इटली, जर्मनी, फ्रांस में बड़े-बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। इटली, बेल्जियम और स्कैन्डेबियाई देशों के छोटे देश नाटो से अलग होने की बात कर रहे हैं।

अमेरिका और यूरोप ने सोचा था कि यूरेशिया के खनिज संपदा का दोहन करके वह अपने आर्थिक संकट से बच निकलेंगे। लेकिन एशिया में चीन, वियतनाम जैसे देशों के आर्थिक ताकतों के रूप में उभरने से वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव होने लगा है। इसलिए जैसे ही राष्ट्रपति पुतिन को चीन का समर्थन मिला उन्होंने नाटो से टकरा जाने में तनिक भी देर नहीं की ।

रूस के यूक्रेन पर हमले की दुनिया में निंदा होना स्वाभाविक है। किसी भी स्थिति में एक सार्वभौम राष्ट्र पर किसी भी देश के हमले को वैध नहीं ठहराया जा सकता। उसका विरोध किया जाना आवश्यक है और प्रगतिशील ताकतें ऐसा कर भी रहीं हैं।

जटिलता और समाधान

यूरोप, लैटिन अमेरिका, पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया सहित भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में आर्थिक संकट ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है। दुनिया के 5नये तानाशाहों में से लंका के गोटाबाया राजपक्षे और ब्राजील के बोलसनारो आर्थिक संकट के कारण सत्ता से बेदखल कर दिए गए हैं।

तेल उत्पादक देश अमेरिका के दबाव के बावजूद उत्पादन घटाने जा रहे हैं ।जिससे यूरोप और अमेरिका को नए ऊर्जा संकट में घिरने की संभावना है ।अभी तक ठंड के समय में अधिकांश यूरोपीय देश अपनी जरुरतों के लिए रुसी गैस पर आश्रित थे। युद्ध से गैस सप्लाई का संकट बढ़ गया है और नाटो द्वारा एकतरफा रूस पर प्रतिबंध लगाने से इस संकट ने और गहरा रूप ले लिया है।

अरब देशों खास कर सऊदी अरब पर अमेरिकी प्रभुत्व होने के कारण ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि ओपेक देश तेल का उत्पादन बढ़ा देंगे। लेकिन सऊदी अरब ने ओपेक के सामूहिक निर्णय का हवाला देकर ऐसा करने से इंकार कर दिया और तेल के उत्पादन को घटाने जा रहे हैं।

ईरान खुले तौर पर रूस के साथ जा चुका है। तुर्की दोनों ब्लॉकों के बीच में संबंध बनाने की कोशिश करता हुआ दिख रहा है। लेकिन संकट के समाधान का कोई रास्ता आज की स्थिति में दिखाई नहीं दे रहा है।

इसलिए हमें यह मान के चलना चाहिए वैश्विक आर्थिक संकट गहरा होगा। राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। राजनीतिक संकट के तेज होने से तानाशाहियों का नया उफान देखने को मिलेगा। जैसा हम भारत आदि देशों में देख रहे हैं।

इसलिए शांति और लोकतंत्र चाहने वाली ताकतों के लिए यह समय आक्रामक ढंग से साम्राज्यवादी पूंजी का विरोध करने, उसे नीतिगत रूप से पीछे धकेलने और दुनिया में प्रगतिशील जनपक्ष धर नीतियों के लिए संघर्ष करने का बीड़ा अपने कंधे पर लेना चाहिए।       

जितना ही जन उभार और जन आक्रोश तानाशाही और आर्थिक नीतियों के खिलाफ दुनिया में बढ़ेगा। सरकारों को युद्ध से बाहर आने की मांग नाटो के देशों में जितना तेज होगी। उतना ही विश्व शांति के लिए संभावनाएं प्रबल होंगी ।

साथ ही अमेरिका के नेतृत्व में चलाई जा रही वैश्विक साम्राज्यवादी लूट की नीति को धक्का पहुंचेगा और उसे पीछे धकेलना संभव हो सकेगा।

यह समय वाम क्रांतिकारी ताकतों के लिए बहुत ही उपयुक्त है। एक बार फिर हम महान लेनिन को याद करते हैं। उन्होंने कहा था कि ” साम्राज्यवादी युद्ध क्रांतियों को जन्म देगा और उसे तेज करेगा”।

इसलिए साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई को अपने देश के बुनियादी सवालों के साथ जोड़कर संघर्ष को तेज कर देना आज विश्व शांति के लिए एकमात्र रास्ता बचा है ।

यूरोप लैटिन अमेरिका और रूस के अन्दर उठ रही जनता की युद्ध विरोधी लहरों के साथ नाटो की पकड़ से बाहर जाने की प्रवृत्ति नई उम्मीदें जगा रही है। जितना ही यह विरोध व्यापक होगा उतना ही दुनिया में बढ़ रही तानाशाहियों के खतरे को रोका जा सकेगा। साथ ही वैश्विक साम्राज्यवादी पूंजी की लूट के खिलाफ नई जन क्रांतियों के लिए संभावनाएं प्रबल होती जाएगी।

पुनश्च,लिज ट्रस की जगह पर ऋषि सुनक चुन लिए गए हैं और वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं। भारतीय मूल के ऋषि सुनक आर्थिक नीति के सवाल पर कट्टर बाजारवादी और कारपोरेट पूंजी परस्त हैं। जिन नीतियों के कारण ही ब्रिटेन और पूरी दुनिया आज गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रही है। इसलिए ब्रिटेन का संकट और गहरा होगा। यूरोप में आर्थिक मंदी आएगी और वैश्विक स्तर पर टकराव की संभावनाएं बढ़ेंगी। इसे सिर्फ जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और लोकतांत्रिक प्रतिरोध से ही रोका जा सकता है।

(जयप्रकाश नारायण यूपी सीपीआई एमएल की कोर कमेटीके सदस्य हैं और आजकल आजमगढ़ में रहते हैं।)

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