Saturday, April 27, 2024

तिरंगे झंडे के इर्दगिर्द नकली हिन्दुस्तानियों का जमावड़ा: कोबाड गांधी

आधी सदी पहले

1973 का साल था, महीना था जनवरी। तबके बम्बई महानगर में दलित आंदोलन का ज्वार उमड़ा हुआ था। नामदेव ढसाल जैसे जुझारू कवि की धूम मची हुई थी। वैसे आंदोलनकर्मियों की जुबां पर और भी दलित लेखक-कवि-पत्रकार (दया पवार, राजा ढाले, नारायण सुर्वे आदि) गूंज रहे थे। क्रांतिकारी युवा संगठन के परचम तले हम आठ-दस साथियों (अशोक चक्रवर्ती, नंदलाल आदि) का एक जत्था इस आंदोलन में शिरकत करने के लिए दिल्ली से वहां पहुंचा हुआ था। स्थानीय साथियों (जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, डॉ. वासंती रमन, अनिल बर्वे, रजनी एक्स देसाई आदि) ने आंदोलन के साथ जुड़ने में काफी सहयोग किया था।

उन्हीं दिनों महानगर के वाम क्षेत्रों में एक नाम चर्चा के केंद्र में था, और वह नाम था कोबाड गांधी का। पारसी परिवार का यह युवक ताज़ा-ताज़ा विलायत से पढ़ कर स्वदेश लौटा था। लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डिग्री प्राप्त करके। उस समय कोबाड का निवास महानगर की अभिजात बस्ती वर्ली सी फेस में था। ठीक अरब सागर के सामने। पहली बार दिल्ली से साथ आये अशोक चक्रवर्ती ने मुझे कोबाड से मिलवाया। दोनों दून स्कूल में सहपाठी रह चुके थे।

दूसरी, दफा चर्चित उपन्यास ‘मुर्दाघर’ के लेखक और तबकी पत्रिका ‘पीपुल्स पॉवर’ के सम्पादक जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के साथ मिला। दोनों ही मुलाक़ातों में दलित आंदोलन, नक्सलबाड़ी आंदोलन और देश की स्थिति पर चर्चा हुई। मतभेद भी टकराये। बेशक़ कोबाड की वैचारिक हमदर्दी दलित आंदोलन के साथ थी। पर विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और रणनीति की दृष्टि से उनमें मुझे स्पष्टता की कमी लगी। तब के कोबाड मुलायम तबियत और नफ़ीस अधिक लगे। संयोग से, वे उन दिनों कुछ उदर रोग से ग्रस्त थे और खिचड़ी का सेवन कर रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया। मज़ाक में कह डाला, कोबाड, खिचड़ी सेवन से क्या क्रांति करोगे।’ कोबाड ख़ामोश रहे। मंद-मंद मुस्कराते रहे। मैं उन दिनों काफी सक्रिय था। हो सकता है कोबाड की पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर मेरे दिमाग़ में पूर्वाग्रह रहे हों!

लेकिन भविष्य में वक़्त ने कोबाड को सही और मुझे ग़लत ठहराया; कोबाड क्रांति के पथ पर चले, विभिन्न जेलों में दस वर्ष काटे और अदालतों का सामना किया; मैंने पलायन किया और मध्यवर्गीय अभ्यारण में शरण ली।

पिछले पांच दशकों में अरब सागर में बेशुमार मौजें उठ चुकी हैं और गंगा-जमुना में काफी पानी बह चुका है। कोबाड महानगर से अदृश्य हो कर दलित बस्तियों, पहाड़ों, जंगलों को छानता रहा, जीवन साथी कामरेड अनुराधा के साथ। भूमिगत जीवन में ही जानलेवा रोग से ग्रस्त अनुराधा ने अपने जीवन साथी कोबाड और क्रांति को ‘अलविदा’ भी किया। मृत्यु से पूर्व अनुराधा ने परिवर्तन की भावी रूपरेखा को लेकर पुस्तक भी लिखी- ‘परिवर्तन की पटकथा’। यह पुस्तक ‘अनुराधा मॉडल’ के रूप में चर्चित है, और विवादों में भी है। कोबाड गांधी के लिए यह मॉडल लाइट हॉउस के समान है जिसके ज़रिये बदलाव लाया जा सकता है।

पांच दशक बाद

जनवरी 2023, तब के बम्बई महानगर से आज के मुंबई महानगर में। दिल्ली महानगर की कड़कड़ाती सर्दी से पलायन कर मैं महानगर के उपनगर मलाड में दुबकता हूं। फिर एक दिन आज के सत्तर पार कोबाड से संपर्क करता हूं। वक़्त व स्थान तय होते हैं और हम बांद्रा के एक बॉम्बे कॉफ़ी हाउस में मिलते हैं। इससे पहले दिल्ली से भी संपर्क हो जाता है। वीडियो वार्ता होती है। विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कोबाड के वैचारिक लेखों व पुस्तक समीक्षा के माध्यम से भी कामरेड से परिचित हो चुका होता हूं। असहमतियों के बावजूद, करीब एक दशक पहले मैंने अपनी एक पुस्तक ‘प्रतिरोध की विरासत और वैश्विक पूंजी का प्रभुत्व’ को कोबाड व अनुराधा को समर्पित की थी। तब वे जेलयात्रा में थे। पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र प्रकाशित हुआ करते थे। एक प्रकार से मस्तिष्क पर ताज़ा छवि उभर चुकी थी। सो परिचित-अपरिचित का बिम्ब लिए मैं पश्चिम बांद्रा पहुंच रहा हूं।

मैं देख रहा हूं कोबाड गांधी बस स्टॉप पर मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। मैं दस मिनिट देर से पहुंचता हूं। दूर से ही वे मुझे पहचान लेते हैं। इशारा करते हैं। फिर पास ही के बॉम्बे कॉफ़ी हॉउस में दोनों पहुंच जाते हैं। कुछ क्षण सुस्ताने के बाद दो कप कॉफ़ी का ऑर्डर देते हैं। मैं देख रहा हूं कोबाड के चेहरे पर पहली जैसी निश्छल हंसी बरक़रार है। किसी तनाव, गुस्सा, प्रतिशोध, पूर्वाग्रह जैसे भावों की रेखाएं नहीं हैं; भूमिगत संघर्ष का अहं और जेल जीवन के ज़ख्म भी फ़ना मिले। बेशक़ उम्र ने अपना असर ज़रूर दिखा रखा है। इस मामले में हम दोनों समान है। वैसे मैं चार वर्ष बड़ा हूं।

कोबाड एक नीला धारीदार लम्बा कुर्ता और काली मोटी पैंट पहने हुए हैं। बाल उड़ चुके हैं। मोटा चश्मा चढ़ाये हुए है। बांये हाथ में छड़ी ज़रूर आ चुकी है। सड़क पार करने और फुटपाथ चढ़ने में सहारा बनती है। एक और उपयोगिता हैं। मुस्कराते हुए कोबाड कहते हैं, “लोकल ट्रेनों के डिफ्रेंट्ली चैलेंज्ड (दिव्यांग) के डिब्बों में भी आसानी से जगह मिल जाती है।” तो यह छड़ी कई भूमिका निभाती है।)

चर्चा कुछ बिंदुओं को लेकर शुरू होती है। दोनों की सुविधा के लिए मैंने एक हफ्ते पहले कुछ सवाल भेज दिए थे ताकि कोबाड कुछ सोच-विचार के साथ अपनी प्रतिक्रिया इस अनौपचारिक चर्चा में व्यक्त कर सकें। चर्चा-बिंदु इस प्रकार थे:

  1. पूंजीवाद, विशेतःआधुनिक कॉर्पोरेट पूंजीवाद का कितना जीवन और भविष्य क्या है?
  2. भारत समेत शेष दुनिया में कट्टरवादी धार्मिक-मज़हबी ताक़तों और निर्वाचित अधिनायकवाद को हवा देने तथा संवैधानिक रूप में मज़बूत करने में कॉर्पोरेट पूंजी की कितनी भूमिका है?
  3. लोकतंत्र का भविष्य और समाजवाद की पुनर्वापसी की संभावना क्या है?
  4. भारत, ब्राज़ील, ईरान, तुर्की, पाकिस्तान सहित अन्य देशों के ताज़ा घटनाचक्र से किस बात के संकेत मिलते हैं?
  5. क्या भविष्य में विचारधारा की भूमिका रहेगी?
  6. क्या मार्क्सवाद आज भी प्रासंगिक है और भविष्य में इसमें कैसे परिवर्तन हो सकते हैं?
  7. भविष्य में प्रतिरोध व परिवर्तन के क्या रूप हो सकते हैं?
  8. बहुसंख्यकवादी राजनीति और शासन के रेजीमेन्टेड परिवेश में गांधीवादी प्रतिरोध के माध्यम कितने प्रासंगिक हैं?

कोबाड की पहली प्रतिक्रिया थी: चर्चा के लिए आठ-नौ बिंदु काफी व्यापक हैं। आपने काफी कुछ समेट लिया है, अपने देश तक सीमित नहीं रखा है, दूसरे देशों के ताज़ा अनुभवों को भी शामिल कर लिया है। मुझे अच्छा लगा। आपने बुनियादी सवाल उठाये हैं। जो लोग ईमानदारी से समाज-शासन व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं वे इन सवालों से जूझ रहे हैं। सभी का ज़वाब देना आसान नहीं है। फिर भी मैंने कुछ सोचा है। वैसे जब-तब अंग्रेजी पत्रिकाओं में लिखता रहता हूं।

(कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए कोबाड ने पहले से तैयार अपनी औपचारिक प्रतिक्रिया का प्रिंट आउट सामने रख दिया)

कोबाड की प्रतिक्रिया इस तरह से है: आज़ का पूंजीवाद वित्तीय पूंजीवाद, बड़े कॉर्पोरेटों की सत्ता, बड़े वित्त और डिजिटल मुगल के युग में है। ये वो ताक़तें हैं जो सरकारें और दुनिया को हांकती हैं। इस संबंध में मैंने काफी कुछ लिखा है। ये ऐसी ताक़तें हैं जो नई विश्व व्यवस्था चाहती हैं, विश्व आर्थिक मंच पर इनका कब्ज़ा है। दुर्भाग्य यह है कि सम्पूर्ण वामपंथी अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर लगभग खामोश हैं, दुनिया में क्या क्या घट रहा है इस पर कोई बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। वामपंथी अर्थशास्त्री विगत में विचरण कर रहे हैं।

वैसे मेरी दृष्टि में गैर-एकाधिकारवाद पूंजी व्यवस्था का मुक्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरफ लौटने का तो सवाल नहीं उठता है। बुनियादी रूप से पूंजीवाद में दो प्रकार के मॉडल होते हैं: कीनेसियन मॉडल, जिसके अंतर्गत राज्य-हस्तक्षेप होता है, और दूसरा है मुद्रावादी मॉडल। इसे शिकागो स्कूल ऑफ थॉट भी कहा जाता है। जिसके जनक थे मिल्टन फ्रीडमन। दोनों ही मॉडल एकाधिकारवाद, चाहे वह राज्य का रहे या निजी या दोनों का मिश्रण, को बढ़ावा देते हैं। आज के चीन में सम्भवतः दोनों मॉडलों का पूंजीवाद है।

दूसरे महायुद्ध के शुरुआती उत्तरकाल में विश्व के अधिकांश देशों में कीनेसियन मॉडल को अपनाया गया था। लेकिन 1973 और विशेषरूप से 1982 के संकट के दौरान सरकारें कीनेसियन मॉडल को छोड़ कर मुद्रावादी मॉडल की तरफ झुकने लगीं। 1990 के बाद मुद्रावादी मॉडल की वजह से ‘नव-उदारवाद’ का दौर शुरू हुआ।

(इसे भूमंडलीकरण के रूप में जाना जाता है। भारत में इसकी शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जुलाई 1991 में होती है; उदारीकरण, निजीकरण और विनिवेशीकरण की त्रिआयामी आर्थिक धाराएं अस्तित्व में आती हैं। इसके बाद ही भारत विश्व व्यापार संघ का सदस्य बनता है।: जोशी)।

कोबाड के मत में: संकटग्रस्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था फासीवादी प्रवृत्तियों की शासन व्यवस्था को जन्म देती है क्योंकि इसके माध्यम से ही शोषण के उच्चतम स्तरों को बनाये रखा जा सकता है। मुनाफे की घटती दर को रोकने के लिए शोषण की ज़रुरत होती है।

(इसी दौर में भारत में श्रम कानूनों को उदार बनाया गया। श्रमिक संघों पर दृश्य-अदृश्य पाबंदियां लगीं। मालिकों को मज़दूरों की छंटनी के अधिक अधिकार दिए गए। मीडिया सहित अनेक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर ‘अनुबंधित कर्मचारी’ की प्रथा शुरू की गई। पेंशन योजना को बाज़ार शक्तियों के हवाले कर दिया गया। कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट शक्तियां घुसपैठ करने लगीं और खुदरा क्षेत्र को निरुत्साहित किया जाने लगा। वॉलमार्ट जैसे विदेशी व्यापार संस्थाओं को प्रवेश दिया जाने लगा। मीडिया में भी विदेशी पूंजी के निवेश को छूट दी गई। यह सब अकूत मुनाफा कमाने के लिए किया गया: जोशी)

पूर्व भूमिगत एक्टिविस्ट कोबाड का कहना है: वास्तव में सरकार और कॉर्पोरेट एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। हालांकि इनके रिश्तों को यांत्रिक ढंग से नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन जब संकट गहराता है तब सत्ता का केन्द्रीकरण बढ़ने लगता है। इसके साथ ही शासक वर्गों में आंतरिक संघर्ष भी बढ़ने लगता है। मिसाल के तौर पर, अमेरिका को लें। यह पहला मौक़ा है जब मुझे डेमोक्रैट और ट्रम्प रिपब्लिकन के बीच वर्तमान स्तर का शत्रुतावाद दिखाई दे रहा है।

अरबपति क्लब (बिलियनेर क्लब) सांप्रदायिक विभाजन को प्राथमिकता देता है। वैसे अन्य प्रकार का विभाजन भी हो सकता है। मूल मक़सद है उत्पीड़ितों को किसी भी क़ीमत पर संगठित होने से रोकना और अधिनायकवाद को शासन शैली के रूप में मज़बूत करना है। यह भी सच है की अगर जनता इस शासन के खिलाफ हो जाती है तो यह शासक वर्ग प्रतिरोधी जनता के साथ किसी भी प्रकार से एडजस्टमेंट करने के लिए तैयार भी हो जाता है और शासन के नए रूपों को सामने लाता है। किसी भी क़ीमत पर शासक वर्ग अपने मुनाफ़ों को बनाये रखना चाहता है। इसके साथ ही बड़े कॉर्पोरेट घरानों के बीच भी मुनाफे के केक के बंटवारे को लेकर टकराव होते हैं। खास तौर पर उस वक़्त जब केक घटने-सिकुड़ने लगता है।

(मेरे मत में शासक वर्गों के मध्य मित्रतापूर्ण अंतर्विरोध रहते आये हैं, शत्रुतापूर्ण नहीं। यदि शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोध या टकराव लम्बे समय तक बने रहते हैं तो शासक वर्ग का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए कॉर्पोरेट वर्ग अपने राजनीतिक शासक वर्ग के माध्यम से तात्कालिक अंतर्विरोधों का शमन या डिफ्यूजन करते हैं, समाधान नहीं। जनता के प्रतिरोध को ठंडा करने के लिए शासक वर्ग उसका शमन करता हैं, उसका वैज्ञानिक ढंग से समाधान नहीं करता है: जोशी)

केक के सिकुड़ने की ताज़ा मिसाल है अडानी प्रकरण। अडानी ने राज्य की सहायता से केक का बड़ा हिस्सा हथिया लिया है और दूसरे कॉर्पोरेटों को संभवतया कम मिल रहा है। इससे वे असंतुष्ट हैं। लेकिन आज कॉर्पोरेट दुनिया संकटग्रस्त ज़रूर है। पर जो राज्य की पॉलीसी है उसमें लघु-मझौले उद्यमों के लिए कोई स्थान नहीं है। पॉलिसी तो है उन्हें समाप्त करने या हाशिये पर फेंकने की। अपने अधीनस्थ बनाये रखने की। लघु और मझौले उद्यमियों का स्वतंत्र बाज़ार नहीं होना चाहिए।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कोबाड कहते हैं: जहां तक समाजवाद का सवाल है, इस पर गंभीर चिंतन ज़रूरी है। जब तक पूंजीवाद पर निर्णायक हमला नहीं होगा तब तक उसकी ईमारत गिरेगी नहीं। पर आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि सभी कम्युनिस्ट पार्टियां इस दौर में ‘बैक फुट’ पर हैं, कुछ जगह इनका अस्तित्व ही नहीं है। रूस और चीन में भी विपरीत दिशा में जा रही हैं। क्षितिज पर कहीं भी समाजवाद दिखाई नहीं दे रहा है। लेकिन समाजवादियों को यह सोचना ही होगा कि उनकी संरचना (वैचारिक व सांगठनिक) में इतने गंभीर संकट कैसे पैदा हो गए हैं?

आज वैचारिक दिवालियापन भी फैला हुआ है। वे पुराने ही फार्मूलों से चिपके हुए हैं, नया देखने के लिए तैयार नहीं हैं। मैंने अपनी पुस्तक ‘फ्रैक्चरड फ्रीडम’ में आत्मनिरीक्षण की कोशिश की है और ‘अनुराधा मॉडल’ पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। इस मॉडल का सारांश यह है कि परिवर्तन के किसी भी प्रोजेक्ट में ख़ुशी प्राप्ति का लक्ष्य होना चाहिए। इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए।

(अनुराधा गांधी कोबाड की एक्टिविस्ट पत्नी थीं और भूमिगत जीवन में घातक रोग से ग्रस्त हो गईं और अप्रैल 2008 में चिकित्सा के दौरान मुंबई में उनकी मृत्यु हो गई थी। उस समय कोबाड दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे। अनुराधा के अनुभवजन्य विश्लेषणात्मक लेखों का संकलन-परिवर्तन की पटकथा-प्रकाशित हो चुका है। इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा भी समयांतर के जून 2012 के अंक में प्रकाशित हुई: जोशी)

दुःख इस बात का है कि नये चिंतन को स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं है। वामपंथी क्षेत्रों ने अनुराधा मॉडल को सकारात्मक ढंग से नहीं लिया; माओवादियों ने तो इस पर उन्मादी हमले किये औरों ने इसकी उपेक्षा की। बावजूद इसके, आम लोगों के बीच यह बेस्ट सेलर रही है। अनुराधा मॉडल हर तरह की तानाशाही के खिलाफ है। क्या कम्युनिस्ट पार्टियों में अधिनायकवादी प्रवृत्तियां नहीं हैं? क्या नेतृत्व तानाशाही का शिकार नहीं बन जाता है? किसी भी प्रकार की सत्ता हमें भ्रष्ट न कर सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। अनुराधा मॉडल सादगी का आग्रह करता है। संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अहंकार से ग्रस्त है। जब तक इसमें बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा तब तक कोई उम्मीद करना फ़िज़ूल है।

आपने जाति व वर्ग के बारे में पूछा है। आप जानते ही हैं कि मैं दलित आंदोलन का समर्थक रहा हूं। आज भी मेरा दृढ़ मत है कि किसी भी आंदोलन या संघर्ष में दलितों को साथ लाना होगा। उनके हाथों में नेतृत्व सौंपना होगा। इसके साथ ही मेरा यह भी मत है कि जाति व वर्ग को साथ साथ देखना होगा। अकेले जाति या वर्ग पर ज़ोर देने से काम नहीं चलेगा। भारतीय परिस्थितियों में दोनों फैक्टर परस्पर जुड़े हुए हैं। अनुराधा मॉडल में जाति, स्त्री जैसे सवालों पर काफी ज़ोर दिया गया है।

(यहां यह बतला देना समीचीन रहेगा कि कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव इंद्रजीत गुप्ता और मार्क्सवादी पार्टी के वरिष्ठतम नेता ज्योति बासु भी मृत्यु पूर्व फ्रंटलाइन को दिए गए अपने साक्षात्कारों में इस सच्चाई को स्वीकार कर चुके हैं कि हम कम्युनिस्टों का क्लास पर ही फोकस रहा है, कास्ट फैक्टर को नज़रअंदाज़ किया है। जबकि भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना में कास्ट एक महत्वपूर्ण फैक्टर है। यह आत्मस्वीकृति से कम नहीं है: जोशी)

मेरा मानना है कि आज भी हमारे दिमागों में सामंती मूल्य ज़िंदा हैं। व्यक्तिवाद कूट कूट कर भरा हुआ है। आत्ममोह से पीड़ित हैं। जातिवाद भी सामंतवाद व व्यक्तिवाद के प्रतीक हैं।

जैसा कि मैं कह चुका हूं कि अब बिल्कुल मुक्त अर्थव्यवस्था (लाइसे फेरे) की तरफ लौटा नहीं जा सकता और इसी तरह कीनेसियन युग के उदार लोकतंत्र की ओर भी लौटने की सम्भावना बहुत कम है। पूंजीवाद के इतिहास में ऐसा घटा नहीं है। जब सामंतवाद से पूंजीवाद का विकास हुआ था तब इसके साथ कई प्रकार के सामंती तामझाम नत्थी थे। इसमें निरंकुशता थी। इसके बाद इसमें चक्रीय संकट पैदा हुए और फासीवादी प्रवृत्तियां अस्तित्व में आईं। दूसरे महायुद्ध के बाद ही कुछ उदारवादी लोकतंत्र दिखाई दिया।

मेरी दृष्टि में भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी पश्चिम के साथ तहबन्दी रस्सी के समान सख्ती से जुड़ी हुई है। चीन-रूस गठबंधन से नए शक्ति ध्रुव का उदय हुआ है। अनेक देश पश्चिम से छिटक कर अपनी राह बदलेंगे। नए पावर ब्लॉक के साथ जुड़ सकते हैं। जहां तक मार्क्सवाद का सवाल है, यह द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का विज्ञान है। समय और स्थिति को ध्यान में रखते हुए इसे लागू करना होता है। भविष्य की केवल यही एक विचारधारा है। लेकिन यदि इसे नाबदान में सड़ेपानी जैसी हठधर्मिता या पोंगापंथी के साथ देखा जाता है तो इसमें भविष्य दिखाई नहीं देगा। इसलिए परिवर्तित समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवाद को समझा जाना चाहिए और उसी के मुताबिक़ लागू किया जाना चाहिए।

देखिए जोशी, आप संघर्ष की शक्लों या माध्यमों को लेकर चिंतित हैं। इस संबंध में मेरा कहना यह है कि सब कुछ परिस्थितियों और चुनौतियों पर निर्भर करता है। लेकिन, हम अपनी गोल या मंज़िल से भटके नहीं, हमारा फोकस इस पर होना चाहिए। इस सन्दर्भ में मैं ताज़ा मिसाल किसान आंदोलन की देना चाहूंगा। सरकार ने हज़ार कोशिशें कीं लेकिन किसान वर्ग अपने रास्ते से नहीं भटका। एक साल किसानों का संघर्ष चला। राजधानी दिल्ली को चारों तरफ से घेरे रखा, और अंत में इसमें कामयाबी भी मिली। आधुनिक काल में इसे सफल माध्यम कहा जा सकता है। इसी दृष्टि से गांधी जी के परिवर्तन के माध्यमों को देखा जाना चाहिए।

मेरा ‘स्वदेशी’ में विश्वास बढ़ता जा रहा है। जब तक हम देश की प्रत्येक वस्तु का स्वदेशीकरण नहीं करेंगे तब तक देश का वास्तविक विकास नहीं होगा। इस दृष्टि से हमें टेक्नोलॉजी पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्या कारण है कि संचार के क्षेत्र में भारत स्वयं का सर्वर, सर्च इंजन तक विकसित नहीं कर सका है। जबकि ईरान जैसे देश के पास खुद के सर्वर हैं, इंजन हैं। इसके विपरीत भारत जैसे विशाल देश को विदेशी गूगल, ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, अमेज़न आदि पर आश्रित रहना पड़ता है।

वास्तव में सरकार अनुसंधान व विकास पर खर्च कम करती है। विदेशी टेक्नोलॉजी का आयात करती है। इसके साथ-साथ विदेशी पूंजी की गिरफ्त से भी बचना चाहिए। स्वदेशी अर्थव्यवस्था के लिए फॉरेन कोलोबोरेशन काफी घातक होते हैं। एक तरह से विदेशी पूंजी व वस्तुओं का बहिष्कार किया जाना चाहिए। लेकिन मैं यहां यह चेतावनी देना ज़रूरी समझता हूं कि हमारा स्वदेशी आंदोलन धर्म-संस्कृति आधारित नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग भी स्वदेशी जागरण की बात करते हैं, यह तभी मुमकिन है जब हमारी अर्थव्यवस्था पराश्रित न रहे, वास्तविक रूप से स्वदेशी व आत्मनिर्भर बने।

भारत को सही अर्थों में आत्मनिर्भर तभी बनाया जा सकता है जब समाज के अंतिम व्यक्ति का सम्पूर्ण रूप से सशक्तिकरण किया जाए। यह तभी मुमकिन है जब समाज और शासन व्यवस्था को ब्राह्मणवादी, हिन्दुत्त्ववादी व साम्प्रदायिकवादी मानसिकता से आज़ाद कराया जाये। इसके लिए व्यापक अभियान चलाने की ज़रुरत है। इसके साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अम्बानी, अडानी जैसे कॉर्पोरेट घरानों के उत्पादों का बहिष्कार किया जाए क्योंकि इनका विदेशी पूंजी के साथ गहरा रिश्ता है। ऐसे घराने हमेशा सुदृढ़ स्वदेशी अर्थव्यवस्था के खिलाफ ही रहेंगे। इसके साथ ही ऐसे कानूनों को भी निरस्त किया जाना चाहिए जो कि विदेशी पूंजी की हिमायत करने वाले हों। यह भी ज़रूरी है कि विकास के नाम पर हम अपने पर्यावरण को तबाह होने से बचाएं। स्वदेशी को ‘दूसरी आज़ादी के संघर्ष’ से जोड़े।

सरकार द्वारा प्रायोजित आज़ादी का महोत्सव काल की जगह दूसरी आज़ादी के लिए लोक प्रेरित व लोक आयोजित आज़ादी महोत्सव काल मनाया जाना चाहिए। पॉलीस्टर की जगह खादी के तिरंगे को बढ़ावा दिया जाना क्योंकि पॉलीस्टर के झंडों से तो मोनोपोलिस्टों-कॉर्पोरेट घरानों की तिजोरियां ही भरेंगी। खादी के झंडों से गांव व कस्बों के परिवारों का जीवन चलेगा। मोदी सत्ता द्वारा संचालित अमृत महोत्सव काल के क्षणों में राजकपूर की फिल्म श्री 420 का एक गाना याद आ रहा है: मेरा जूता है जापानी, मेरी पतलून इंग्लिस्तानी, सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी। लेकिन आज के हिन्दुस्तान में दिल भी हिन्दुस्तानी नहीं है। तिरंगे झंडे के इर्दगिर्द नकली हिन्दुस्तानियों का जमावड़ा दिखाई दे रहा है। नकली हिन्दुस्तानी ही देशभक्ति का शोर मचाते हैं और उन्माद के साथ मुसलामानों के खिलाफ खड़े रहते हैं।

देखिए, गांधी जी ने भी स्वदेशी का नारा दिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं का राष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार किया था। तब की वह ज़रुरत थी, लेकिन आज भी है। इस दौर में और भी अधिक है। क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण देश की वैदेशिक आश्रिता बढ़ती जा रही है। ‘ब्रेन ड्रेन’ पहले से अधिक हो रहा है। अनुकूल हालत नहीं होने के कारण विदेशों में शिक्षित और ऊंची पोस्टों पर पदस्थ भारतीय विशेषज्ञ स्वदेश लौटना नहीं चाहते हैं। इसे कौन रोकेगा।

आज देश में आज़ादी के अमृत काल की बहार आई हुई है। ऐसे अवसर पर हमें आत्मनिरीक्षण करने की ज़रूरत भी है। जहां हम विगत की उपलब्धियों को याद करें वहीं विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त विदेशी प्रभुत्व से मुक्त होने का संकल्प भी लेना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस जैसे हज़ारों अनाम शहीदों व सेनानियों की कुर्बानियां व्यर्थ न जाए। इसलिए यह भी ज़रूरी है कि हम लोकतंत्र व संविधान की रक्षा करें। भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की हिफाज़त ही नहीं, इसे और मज़बूत करें। ऐसी ताक़तों के विरुद्ध खड़े हों जो देश की आधारभूत पहचान को नष्ट करने पर आमादा हैं।

वे नारे लगाते हैं। उनका स्वदेशी अभियान धर्म-संस्कृति आधारित है, हिंदुत्व आधारित है। हम लोगों का अभियान रेडिकल होना चाहिए, अर्थव्यवस्था आधारित होना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन किसी धर्म-संस्कृति से प्रेरित नहीं था। देश की आज़ादी की भावना से प्रेरित था। संघ का आंदोलन ठीक विपरीत है। इससे बचना होगा।

स्वदेशी अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में मैं

लघु व मझौले उद्योगों को पुनर्जीवित करने का हिमायती हूं। आज कस्बों-गांवों में छोटे दुकानदारों के काम-धंधे बंद होते जा रहे हैं। छोटी परचून की दुकानों की अर्थव्यवस्था में सुधार होना चाहिए। कृषि क्षेत्र में सहकारिता आंदोलन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लेकिन, एकाधिकारपतियों का बहिष्कार होना चाहिए। कॉर्पोरेट घरानों को खेती-किसानी से दूर रखा जाना चाहिए। अंबानी-अडानी जैसों ने इस क्षेत्र में घुसने की बहुत कोशिश की है। इसे रोका जाना चाहिए। यदि कॉर्पोरेट पूंजी की घुसपैठ कृषि व आदिवासी क्षेत्रों में ज़ारी रहती है तो देश में कभी भी आत्मनिर्भरता पैदा नहीं होगी।

स्वदेशी विकास के स्थान पर बड़ी पूंजी और विदेश आश्रित विकास होगा। हमें याद रखना होगा कि विदेशी कॉर्पोरेट के साथ गठबंधन के जरिए देश के 215 अरबपति घरानों ने राष्ट्र की अधिकांश सम्पति पर कब्ज़ा कर रखा है। इसमें शिखर के कतिपय नेताओं और नौकरशाहों के साथ सांठगांठ भी शामिल है। फलस्वरूप पिछले एक-दो सालों में ही देश के 100 अमीरतम लोगों ने अपनी 62 लाख करोड़ की सम्पत्ति में सामूहिक रूप से 20 लाख करोड़ रूपये का इज़ाफ़ा कर लिया है।

सारांश में, मुट्ठीभर अमीर सरकारी आय में से प्रतिदिन 5,500 करोड़ रुपए डकार रहे हैं। दूसरी तरफ करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए हैं। आर्थिक लूट और तथाकथित विकास की प्रक्रिया ने गंभीर विषमता पैदा कर दी है। विषमता की खाई चौड़ी होती जा रही है। अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए सरकार को करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज बांटना पड़ रहा है। करोड़ों भारतीय निर्धनता की रेखा तले खिसक गए हैं। इस सिलसिले को रोकना होगा।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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