(ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिनेमा ने जहाँ फ़िल्मों के निर्माण में दलितों के श्रम का शोषण किया है वहीं उनकी कहानियों को मिटाया और हड़पा है। यह सब अकस्मात न था। परदे पर जब उनकी कहानियाँ दिखलाई जातीं तो पितृसत्तात्मक, मर्दवादी और जातिवादी प्रच्छन्न भावों के साथ सवर्ण ही उनके क़िरदारों को निभाते।
यह परिदृश्य धीरे-धीरे बदला है और दलित (और कुछ ग़ैर-दलित) फ़िल्मकारों द्वारा निर्देशित सिनेमा में दलित चरित्रों की पहचान जाति और वर्ग की सीमाओं से परे जाकर और अधिक मुखर हुई है। इन फ़िल्मकारों ने उस दृश्यात्मक दास्तानगोई को आकार देने में मदद की है जो ‘न्याय समवेत सौंदर्यशास्त्र’ का मेल कराती है।
सवर्णों द्वारा बनाए गए सिनेमा में ‘न्याय समवेत सौंदर्यशास्त्र’ कदाचित ही मौजूद था या वह सिनेमा शायद ही कभी ईमानदार था। दलित-बहुजन फ़िल्मकारों ने दलित-बहुजन दर्शकों को अपील करने वाला नई धारा का सिनेमा रचते हुए इस कमी को पूरा किया है।
इस श्रृंखला में हम पड़ताल करेंगे उन 10 भारतीय फ़िल्मों की जिनकी गिनती न केवल इस देश में बनी बेहतरीन फ़िल्मों में होती है बल्कि इनमें न्याय, राजनीति और सौन्दर्यबोध गुँथे हुए हैं।)
जब मैं पाँच या छह साल का था तब मेरे पिता- जो उस समय ड्राइवर का काम करते थे और फ़िल्मों के बड़े शौक़ीन थे- मुझे हर इतवार को नागपुर के सिनेमा हॉलों में बॉलीवुड की फ़िल्में दिखाने ले जाया करते। मेरे लिए उन अँधेरे सिनेमाहॉलों में प्रवेश करना एक नई दुनिया में प्रवेश करने जैसा था जो मेरी यथार्थ की दुनिया- दलित बस्ती और वहाँ की मुश्किल ज़िन्दगी – से अलग प्रतीत होती थी। यह विराग का बोध (सेन्स ऑफ़ एलियनेशन) मुझमें लम्बे समय तक बना रहा।
2013 में एमए करने मैं मुम्बई आया। उसके अगले ही साल नागराज मंजुले की फैंड्री रिलीज़ हुई। मैं मराठी फ़िल्मों का फैन नहीं था मगर उस फ़िल्म के बारे में कुछ लोगों से सुनकर उसे सिनेमाघर में देखने का फ़ैसला किया। वह सिनेमाहॉल में मेरा देखा हुआ सिनेमाई कल्पना का सबसे सुन्दर और सूक्ष्म भावों से परिपूर्ण प्रगटन था।
फैंड्री देखने पर क्या सभी को वैसा ही महसूस हुआ होगा? बिल्कुल नहीं। क्यों? इसलिए कि भारत में दर्शक अपनी जाति का बोझा लिए सिनेमा देखते हैं और फ़िल्म का हमारा अनुभव इस बात पर निर्भर करता है कि अपने जाति-अनुकूलन के चलते हम दुनिया को किस तरह देखते हैं।
फैंड्री देखने के बाद सिनेमा को लेकर जो विराग मेरे भीतर इतने लम्बे समय से था, वह ख़त्म हो गया। फैंड्री बहुतेरे ‘मैं’ पर्दे पर लाई और उन्हें वह आत्मविश्वास, व्यक्तित्व और उद्देश्य प्रदान किया जो बॉलीवुड फिल्मों ने हमसे छीन रखा था।
1913 में एक मराठी ब्राह्मण दादासाहेब फालके ने, जिन्हें फ़ादर ऑफ़ इण्डियन सिनेमा भी कहा जाता है, राजा हरिश्चंद्र नामक पहली भारतीय फ़िल्म बनाई थी। यह एक मूक फ़िल्म थी। फालके की लगभग सारी फ़िल्में भारत और इसके समाज की हिन्दू-ब्राह्मणीय पौराणिक कल्पनाओं पर आधारित थीं। सिनेमा की तकनीकी में हिन्दू-ब्राह्मण मिथ का प्रवर्तन अकस्मात न था: फालके, ब्राह्मण होने के नाते जिनका अपनी सामाजिक अवस्थिति के कारण समाज के वृहत हिस्से और उसकी कहानियों से बेहद कम सम्पर्क होगा, जनसाधारण के दुखों और गुणों से विलग होकर बड़े हुए। यह विलगाव लगभग सारे मराठी निर्देशकों और उनकी फ़िल्मों में नज़र आता है। चुनिन्दा फ़िल्में ही सौन्दर्यबोध और राजनीति में सचमुच ‘संवेदी’ थीं। मगर वे सब ब्राह्मणीय कल्पनाशक्ति से उपजी थीं: उनके सिनेमा में सांस्कृतिक ठिकाने के तौर पर जाति को अक्सर क्षति पहुँचाई गई, उसे मैनिपुलेट किया गया और बहुधा अपनी सहूलियत के हिसाब से हथियाया गया। इस सन्दर्भ में मराठी सिनेमा में सौ सालों तक कुछ नहीं बदला।
फिर 2014 में फैंड्री रिलीज़ हुई। इसके फ्रेम्स, कैमरे के कोण, पटकथा, पार्श्वसंगीत, दास्तानगोई, शोर की आवाज़ें और ख़ामोशी भी- सबने उन नियमों को तोड़ा जिनका पालन मराठी सिनेमा अब तक करता आया था। आख़िरी दृश्य के बाद- जब नायक जब्या द्वारा फेंका गया पत्थर समूचे पर्दे पर फैल जाता है – सिनेमाहॉल में जब मैं अपनी कुर्सी से उठा तो सुन्न और अवाक हो गया।
मुझे यह समझने में ख़ासा वक़्त लगा कि एक कलाकृति को देखने का अनुभव कितना समृद्ध करने वाला हो सकता है। फैंड्री निस्संदेह विश्व सिनेमा की श्रेष्ठ कृतियों में है: इसलिए नहीं कि इसका नायक दलित है या निर्देशक दलित है, बल्कि वह जिस तरह सामाजिक यथार्थ को सिनेमाई कल्पना में परिवर्तित करती है, उस वजह से। महान सिनेमा जनसाधारण को अपने-आप में समाहित करने में मदद करता है, वह उसके दुख, ख़ूबियों और सौन्दर्यबोध को अपील करता है और चन्द बुर्जुआज़ी की अभिरुचि की चाकरी नहीं करता। यही ख़ूबियाँ फैंड्री को सिनेमाई मास्टरपीस बनाती हैं।
दिलचस्प यह कि राज कपूर की शुरूआती फ़िल्मों में वामपंथी और उदारवादी अंतर्प्रवाह थे ज़्यादातर इसलिए कि वे पटकथाएँ वामपन्थी रुझान वाले लेखकों द्वारा लिखी गई थीं और उनके अमर गीत लिखे थे शैलेन्द्र ने जो एक दलित थे जिनके अगाध बोलों का कोई मुकाबला न था।
फैंड्री में कैमरा कहानी के नायक के प्रति न तो हमदर्दी दिखाता है और न ही रहम, और न ही वह कृत्रिम तौर पर विद्रोही है। वह सशंक है, वह सुन्दर है, वह सपने की तलाश में है, वह असामान्य जाति-यथार्थों के बीच सामान्य होना चाहता है। वह ज़िन्दगी से बड़ा (लार्जर दैन लाइफ़) नहीं, बल्कि ज़िन्दगी है- जिसे समाज ने पंगु और भारत के सिनेमा ने चालाकी से बदनाम कर दिया। इस ज़िन्दगी, दलितों की ज़िन्दगी, का पुनरुज्जीवन होता है और भारत में प्रथमतः ही सिनेमाई कल्पना में उसे एक अर्थ प्रदान किया जाता है।
फैंड्री पुनर्प्रस्तुत करती है एक नायक को जो इतिहास में ‘मृत’ और सिनेमा द्वारा लोगों की ज़िन्दगियों से मिटा दिया गया है। जहाँ तक दलित जीवन की बात है, भारतीय सिनेमा ने अब तक अनभिज्ञ बने रहने का विकल्प चुन रखा था। दया दिखाने के लिए (समानांतर सिनेमा आंदोलन में) कुछ फिल्मों में सवर्ण निर्देशकों द्वारा दलित जीवन के कुछ तथ्य और आचरण दर्शाए गए थे मगर नकारात्मक ढंग से।
फ्रांत्स फ़ैनॉन अपनी पुस्तक ब्लैक स्किन वाइट मास्क में लिखते हैं: ‘हमारे लिए आवश्यक यह है कि हम तथ्य और व्यवहार इकट्ठे न करें, बल्कि उनके अर्थ सामने लाएँ।’ फैंड्री दलित जीवन के अर्थ सामने लाई। यह राज्य की किसी भी राजनीतिक विचारधारा से परे है।
फैंड्री का नायक जब्या, या जाम्बुवंत कचरू माने, सपने देखने वाला,पढ़ने-लिखने वाला, प्रेम करने वाला और सबसे ऊपर अपने इर्दगिर्द की दुनिया के प्रति सम्वेदनशील है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि वह दब्बू है। वह बुद्धिमान और मेहनती है और अपने सपनों, अपने प्रेम का अनुसरण करने की हसरत रखता है। मगर उसका जाति-यथार्थ उसकी हसरतों के पहिए को क्षत-विक्षत कर डालता है। और उसे इसका प्रतिकार करना है।
जब-जब जब्या का अपमान किया जाता है, वह शांत और सहिष्णु बना रहता है। मगर क्लाइमेक्स में जिस लड़की से वह प्यार करता है उसके समक्ष, सहपाठियों के सामने उसे अपमानित किया जाता है। और तो और, उसकी बहनों को भी अपमानित किया जाता है और उनकी ‘गंध’ के लिए तिरस्कृत किया जाता है। यह चीज़ वह नहीं सह पाता और आक्रामक होकर प्रत्युत्तर देता है – फ़िल्म में ऊँची जाति वाले उत्पीड़कों की ओर पत्थर फेंक कर। जब्या एक असामान्य कथानायक है क्योंकि इससे पहले किसी भी भारतीय फ़िल्मकार ने किसी फिल्म की केन्द्रीयता एक दलित व्यक्ति में नहीं रखी थी। फैंड्री में एक दलित आदमी की आमद होती है ज़िन्दगी के विजन पर और उसकी नज़रों से दर्शक, अभी और आगे भी, दुनिया को देखते हैं। इसी में नागराज मंजुले की प्रतिभा निहित है।
फैंड्री ने मराठी सिनेमा को पुनरुज्जीवित किया। इसकी उत्कृष्ट सिनेमाई भाषा से परे फैंड्री हमसे उस गूढ़ कविता की तरह बात करती है जिसका उद्देश्य हमें जीवन के मूल्य के बारे में सिखाना, एक दूसरे के प्रति हमारे अज्ञान से उपजने वाली पीड़ा को महसूस कराना और इतने सालों और दशकों से सांस्कृतिक उद्योग द्वारा रचित खोटी चेतना को नेस्तनाबूद करना है। हमसे भी दर्शकों के तौर पर फैंड्री एक सख़्त सिनेमाई अनुभव के रूप में इन बिन्दुओं पर मनन करवाती है कि हम कैसा समाज बन चुके हैं, इस समाज ने कैसा सिनेमा तैयार किया है और सिनेमा ने कैसा समाज रचा है कि जिसमें एक व्यक्ति को प्रेम हासिल नहीं होता सिर्फ़ इसलिए कि वह दलित है।
जब मैं पलटकर उस दिन को याद करता हूँ जब मैंने फैंड्री देखी थी,तो मुझे लगता है कि सिनेमा को लेकर मेरे अन्दर कुछ हमेशा के लिए बदल गया। मुझे पता लगा कि इस देश की सिनेमाई कल्पना में मेरी भी एक जगह है चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो। मैं जानता हूँ कि जब भी मेरे जैसे लोग फैंड्री देखते हैं, तो उन्हें भी लगता है कि अपनी कहानी दुनिया को बता रहे हैं जो अब तक उन्हें नज़रअंदाज़ करती आई है।
(न्यूज़साइट फर्स्टपोस्ट पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख का भारत भूषण तिवारी द्वारा किया गया यह हिन्दी अनुवाद `समयांतर` में छप चुका है। कुल दस आलेखों की श्रृंखला में यह पहला है।)
(कवि-कहानीकार-अनुवादक योगेश मैत्रेय `पैंथर्स पॉ“ नामक जाति-विरोधी प्रकाशन के संस्थापक हैं। सम्प्रति वह टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी कर रहे हैं।)
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