गांधी जी जब अप्रैल 1915 में कुम्भ के अवसर पर महात्मा मुन्शी राम से मिलने हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें इस तीर्थनगरी और खास कर गंगा की गंदगी को देख कर बड़ा कष्ट हुआ। गंगा की इस भौतिक गंदगी से भी कहीं अधिक कष्ट उन्हें नैतिक गंदगी देख कर हुआ। गांधीजी की इस यात्रा और उनकी डायरी में लिखे यात्रा वृतान्त के बाद एक पूरी सदी गुजर गयी मगर राजीव गांधी के गंगा एक्शन प्लान और नरेन्द्र मोदी के नमामि गंगे में हजारों करोड़ रुपये गंगा में बह जाने के बाद भी पतित पावनी गंगा का मैल घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है। स्थिति यहां तक आ गयी है कि गंगा का पानी पीने लायक तो रहा नहीं मगर कई स्थानों पर उसके जलचरों के लिये जीने लायक भी नहीं रह गया है। गांधी जी काशी में मंदिर के आसपास और गंगा में गंदगी से भी बहुत दुखी थे।
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में गंगा की सफाई का बीड़ा उठाते हुये 1986 में गंगा एक्शन प्लान शुरू किया जिस पर वर्ष 2014 तक लगभग 4 हजार करोड़ खर्च हुये। प्रधानमंत्री मोदी के लिये गंगा की पवित्रता बहाल करना उनका सपना ही नहीं बल्कि संकल्प भी है। इसलिये भारत सरकार ने गंगा नदी के संरक्षण हेतु मई, 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम अनुमोदित किया था, जिसका कुल परिव्यय 20,000 करोड़ रूपए था जिसे बढ़ा कर 25,000 करोड़ कर दिया गया मगर ज्यों-ज्यों लक्षित समयावधि नजदीक आती है त्यों-त्यों लक्ष्य दूर होता जाता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ताजा रिपोर्ट में गंगा का हरिद्वार से ही प्रदूषित बताया गया है लेकिन स्थिति उत्तर प्रदेश के कन्नौज से ज्यादा खराब होती जाती है। वहां गंगा में गंभीर प्रदूषण बताया गया है जबकि कानपुर और वाराणसी में गंगा जल की स्थिति अति चिन्तनीय बतायी गयी है जो स्नान योग्य भी नहीं है।
बहुप्रचारित नमामि गंगे पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने पर भी गंगा के मायके उत्तराखण्ड में भी गंगा का मैल साफ नहीं हो पाया। उत्तराखण्ड सरकार का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) भी अपनी ताजा रिपोर्ट में कहता है कि गंगा का जल बिना क्लोरिनेशन या ट्रीटमेंट के पीने और आचमन करने के लिए सुरक्षित नहीं है। हालांकि हरिद्वार में गंगा में स्नान किया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक सभी सैंपलों की ओवरऑल जांच रिपोर्ट में गंगा का जल बी श्रेणी का है। यानी कि बी श्रेणी का जल बिना क्लोरिनेशन या ट्रीटमेंट के पीने योग्य नहीं है। पीसीबी ने भगीरथ बिंदु और हरकी पैड़ी से लेकर रुड़की तक 12 जगहों से गंगाजल की सैंपलिंग की थी। इनमें हरकी पैड़ी भी शामिल थी। पानी में कोलीफॉर्म और टोटल कोलीफार्म की मात्रा काफी अधिक मिली है। सभी 12 सैंपलों की जांच में सबसे कम टीसी कोलीफॉर्म का स्तर (63 एमपीएन) हरकी पैड़ी पर मिला है। यानी हरकी पैड़ी पर सबसे साफ पानी है। इसके बाद भी पानी सीधे पीने या आचमन योग्य नहीं है। 50 एमपीएन से नीचे ही पानी पीने योग्य होता है।
गांधी जी जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद अपने मित्र चार्ली एंड्रूज की सलाह पर शांति निकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के बाद 5 अप्रैल को कुंभ के अवसर पर मुन्शीराम से मिलने हरिद्वार पहुंचे तो गंगा की गंदगी को देख कर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है कि…. ‘‘ऋषिकेश और लक्ष्मण झूले के प्राकृतिक दृष्य मुझे बहुत पसन्द आये। ………परन्तु हरिद्वार की तरह ऋषिकेश में भी लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा कर डालते थे। गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुये उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर मेरे चित्त को बड़ी चोट पहुंची……..।
इससे पहले गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर 1902 में जब गांधी जी भारत भ्रमण पर निकले तो वह 21-22 फरवरी को कलकत्ता से राजकोट को रवाना हुये तो रास्ते में काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में भी एक-एक दिन रुके। उन पर काशी की गंदगी और भिक्षुकों का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। यहां के बारे में भी उन्होंने अपने यात्रा विवरण में इस तरह उल्लेख किया था।….सुबह मैं काशी उतरा। ….वहां कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो साफ सुथरा दिखाई दिया मैंने उसके घर जाना पसन्द किया। ………बारह बजे तक पूजा स्नान से निवृत्त हो कर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहां पर जो कुछ देखा मन को बड़ा दुख हुआ। मंदिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुये फूल पड़े हुये थे और उनमें से दुर्गन्ध निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्धश्रद्धालु ने रुपये जड़ रखे थे; रुपयों में मैल कचरा घुसा रहता है। ……मैं इसके बाद भी एक दो बार काशी विश्वनाथ गया।…….किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला जैसे के तैसे ही वहां देखे।….’’
हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों पर भौतिक और नैतिक गंदगी के बारे में गांधी जी ने डायरी में लिखा था कि….“नि:संदेह यह सच है कि हरिद्वार और दूसरे प्रसिद्ध तीर्थस्थान एक समय वस्तुतः पवित्र थे। …… लेकिन हरिद्वार में इच्छा रहने पर भी मनुष्यकृत ऐसी एक भी वस्तु नहीं देख सका, जो मुझे मुग्ध कर सकती……..पहली बार जब 1915 में मैं हरिद्वार गया था तो मैं सहज ही बहुतेरी बातें आखों देख सका था ……. लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों ने मुझे मोह लिया, वहां दूसरी ओर मनुष्य की करतूतों को देख मेरे हृदय को सख्त चोट पहुंची और हरिद्वार की नैतिक तथा भौतिक मलिनता को देख कर मुझे अत्यंत दुख हुआ।
पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिये ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुये असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। …………..यह तो हुयी प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। ….विधिवत् पूजा करने के लिये मैं हरिद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गयीं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है…..।
गांधीजी जब 1915 के कुम्भ में हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि वहां 17 लाख श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्र हुयी थी। अगर गांधीजी आज के महाकुम्भों में भी मौजूद रहते तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उनकी डायरी में मां गंगा का क्या चित्रण होता! काशी से लेकर ऋषिकेश हरिद्वार तक सालभर करोड़ों लोगों के स्नान चलते रहते हैं। हर साल 2 करोड़ से अधिक कांवड़िये गंगा जल भरने हरिद्वार आते हैं और शौचालय की समुचित व्यवस्था न होने पर टनों के हिसाब से गंगा के निकट मलमूत्र त्याग कर लौटते हैं। कानपुर जैसे स्थानों पर औद्योगिक प्रदूषण तो और भी गंभीर समस्या है।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)