‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ से लेकर ’नारी तुम केवल श्रद्धा हो….’ तक भारतीय संस्कृति और साहित्य में ढोल-नगाड़ों के साथ काफी ‘लाउड’ तरीके से नारी की महिमा और महानता का बखान किया गया है। वह पूजनीय है, वंदनीय है। पूजनीय वंदनीय बने रहने के लिए धर्मग्रंथों और पुराणों में उसके अंतहीन कर्तव्य गिनाए गए हैं। इन शिक्षाओं का हाल ही में एक नया संस्करण देखने को मिला।
एक परिचित मित्र के बेटे की शादी मेरठ में हुई। उपहारों को खोलते हुए उसकी नवविवाहिता को लाल और सुनहरी बिंदिया वाले खूबसूरत कागज में लिपटी एक पुस्तक मिली। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है- ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य-शिक्षा।’ एक सौ साठ पृष्ठों की इस पुस्तक का सन् 1997 तक चालीस संस्करण छप चुके थे।
इस संस्करण से पहले पुस्तक की साढ़े नौ लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। जिस देश में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त फ्रेंच लेखिका सिमोन द बुवा की पुस्तक ’द सेकंड सेक्स’ के हिंदी अनुवाद का ग्यारह सौ प्रतियों का पहला संस्करण समाप्त होने में न आ रहा हो, जहां तसलीमा नसरीन की पुस्तक ’औरत के हक में’ या अरविंद जैन की ’औरत होने की सजा’ पुस्तक के नाम से भी अधिकांश लड़कियां अनजान-अपरिचित हों, वहां ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य-शिक्षा’ जैसी पुस्तक की दस लाख की संख्या को छूती हुई खपत को देखकर जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। संभवतः छोटे शहरों का मध्यवर्गीय परिवार, लड़कियों की शादी में, उपहार देने के लिए थोक में यह पुस्तक खरीदता रहा है।
चौंतीस खंडों से सुसज्जित इस पुस्तक में पतिव्रता नारियों, विधवाओं, आदर्श माताओं-बहनों के लिए समयोचित व्यवहार और धर्म बताए गए हैं। इसके लिए बाकायदा ब्रम्हवैवर्तपुराण, मनुस्मृति, व्यासस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, महाभारत, पराशरस्मृति आदि भारतीय धर्मग्रंथों में से पतिपरायण सती नारियों
(कुंती,माद्री, शांडिली आदि) के उदाहरण विस्तार से दिए गए हैं। एक बानगी देखिए- ’कुलीन पतिव्रता नारी अपना पति- पतित,पागल,दरिद्र,रोगी या मूर्ख हो, तो भी उसे सदा विष्णु के समान देखती है।’
’जो मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर कभी पति के विपरीत आचरण नहीं करती, वह भगवतस्वरुप पतिलोक को प्राप्त होती है और साध्वी कही जाती है।’(पृष्ठ-13)
इस पुस्तक के लेखक जयदयाल गोयनका पतिव्रता धर्म पर विस्तार से प्रवचन देते हैं- ‘सुहागन स्त्रियों के लिए पति सेवा ही सब कुछ है। पति की आज्ञा के बिना वे कहीं न जाएं, जहां भी जाएं, यथासंभव अपने पति के साथ ही जाएं, क्योंकि उनको केवल एक पति सेवा से ही सब प्रकार की पूर्ण सफलता मिल जाती है।’(पृष्ठ-56)
’आजकल धनी घराने की या पढ़ी-लिखी स्त्रियां काम-काज (यहां काम-काज से मतलब श्रमजीवी होने से है-गेहूं पीसना, खाना बनाना आदि) छोड़कर पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रहती हैं या तितली की तरह उड़ती-फिरती हैं, वे शौकीन स्त्रियां एक प्रकार से निकम्मी हो जाती हैं और उनमें कई प्रकार के दोष आ जाते हैं। ऐसी स्त्रियों की इस लोक में निंदा होती है और मरने पर उनकी दुर्गति होती है।’(पृष्ठ-44)
लेखक गोयनका ने पुरुषों को भी शिक्षा दी है- ‘पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों को अधिक से अधिक घरेलू कामों में लगाए रखें, ताकि खाली समय में उनके मन में कुविचार न आएं।’(पृष्ठ-53)
गीता प्रेस, गोरखपुर के संचालक-संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- ’’भारतीय आर्य संस्कृति में स्त्रियों का स्थान बड़े ही महत्व का है। आर्यशास्त्रों ने स्त्रियों को जितना ऊंचा स्थान दिया है, उनकी मर्यादा का जितना विचार किया है, उनके जीवन को संयम तथा सेवा से अनुप्राणित कर जितना पवित्रतम बनाने की चेष्टा की है, वह परम आदर्श है और जगत के इतिहास में सर्वथा विलक्षण और अनुकरणीय है।’’(पृष्ठ-4)
यह पूरी पुस्तक स्त्री-शिक्षा-विरोधी ही नहीं, सतीप्रथा की हिमायती भी है। इस विलक्षण पुस्तक में समझाए गए महान नारियों के आदर्शों से परेशान नहीं हूं, क्योंकि जानती हूं- महानगर की पढ़ी-लिखी लड़की इस पुस्तक को पढ़कर यही समझेगी कि पुस्तक गलती से उसके कमरे में आ गई है और वह अपनी दादी के पूजाघर में चांदी के सिंहासन और पीतल की मूर्तियों के पास एहतियात से इसे रख आएगी… पर छोटे शहरों और कस्बों की उन साढ़े नौ लाख मासूम लड़कियों का क्या हश्र होगा, जो अपने दकियानूसी संस्कारों वाले मध्यवर्गीय परिवारों से इसी तरह की शिक्षाएं जन्मघुट्टी में पी-पीकर बड़ी होती हैं और विवाहित जीवन की दहलीज पर कांपते हुए कदम रखती हैं। तब खूबसूरत ‘रैपर’ में लिपटी यह ‘कर्तव्यशिक्षा’ उनके लिए कितनी व्यावहारिक सिद्ध हो सकती है?
मध्यप्रदेश का हिंदी दैनिक ’देशबंधु’ मेरे सामने है। पिछले चार दिनों की खबरें देखें- झुलसकर विवाहिता मृत (देशबंधु, 20 मई, पृष्ठ-5), युवती ने खुदकुशी की (19 मई, पृष्ठ-7), नवविवाहिता की संदेहास्पद मौत (15 मई, पृष्ठ-5), दहेज प्रताड़ना से मौत (15 मई, पृष्ठ-6)
कानपुर शहर की तीन बहनें जब गले में फंदा लगाकर, मां-बाप को दहेज की यातना से बचाने के लिए आत्महत्या करती हैं या गया, पटना, बनारस, मुंगेर, रायपुर, बिलासपुर की कोई नवविवाहिता औरत जलने के बाद, मरने से पहले का बयान दे जाती हैं कि उसका पति और उसकी सास निर्दोष हैं, कि उसका जलना महज एक दुर्घटना थी, कि वह मिट्टी का तेल छिड़कने से नहीं, स्टोव के अचानक फटने से मरी, तो इन सारी घटनाओं के पीछे कौन-सी सामाजिक स्थिति और कैसी मानसिकता काम करती है? क्या इस मानसिकता के निर्माण में ऐसी पुस्तकें चिनगारी का काम नहीं करतीं? और अगर करती भी हैं तो ऐसी किताबों पर कोई प्रतिबंध न लगाकर क्या हम इन चिनगारियों को हवा नहीं दे रहे?
(लेखिका सुधा अरोड़ा का यह लेख 1997 में जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था।)