कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या देश में लगातार बढ़ते जाने और इस पर प्रभावी नियंत्रण पाने में भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर स्वीकार कर लिया कि दुनिया के समर्थ देशों को इस महामारी ने बेबस करके रख दिया है।
ऐसा नहीं है कि वो देश प्रयास नहीं कर रहे हैं या फिर उनके पास संसाधनों की कमी है, लेकिन, कोरोना वायरस इतनी तेजी से फैल रहा है कि तमाम प्रयासों के बावजूद इन देशों में चुनौती बढ़ती ही जा रही है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जब कोरोना फैलता है तो इसे रोकना मुश्किल होता है। यही वजह है कि जब अमेरिका, चीन इटली में इसने फैलना शुरू किया तो हालात बेकाबू हो गए। इटली जैसे देशों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतरीन हैं। फिर भी ये देश इसे संभाल नहीं पाए। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार की रात आठ बजे राष्ट्र को संबोधित करते हुए रात 12 बजे से देश भर में पूरी तरह से लॉकडाउन करने की घोषणा की।
प्रधानमंत्री ने कहा कि उम्मीद की किरण उन देशों से मिले अनुभव हैं, जो कोरोना को नियंत्रित कर पाए। इन देशों में लोगों ने सरकारी निर्देशों का पालन किया। अब ये देश इस बीमारी से बाहर आ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि आप ये देख रहे हैं कि दुनिया के समर्थ से समर्थ देश को भी इस महामारी ने बेबस कर दिया है।
ऐसा नहीं है कि देश प्रयास नहीं कर रहे हैं या उनके पास संसाधनों की कमी है, लेकिन, कोरोना वायरस इतनी तेजी से फैल रहा है कि तमाम तैयारियां और प्रयासों के बावजूद यह फैल रहा है। इन सभी देशों के दो महीनों के अध्ययन से जो निष्कर्ष निकल रहा है और जो विशेषज्ञ कह रहे हैं, वह यह है कि कोरोना से प्रभावी मुकाबले के लिए एकमात्र विकल्प है सोशल डिस्टेंसिंग।
दरअसल एक ओर विकसित और अमीर देश बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद कोरोना संकट का मुकाबला करने में हलकान हैं। 135 करोड़ आबादी वाले हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा बेहद घटिया स्तर की है और निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा पैसा कमाने की कफ़न खसोट सेवा है। ऐसे में कोरोना संकट ने पूरे देश को महामारी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हेल्थ इंफ्रा को मजबूत करने के लिए कहा कि कोरोना वायरस से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 15,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त प्रावधान किया है। इस राशि का उपयोग हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के लिए होगा। जबकि नए संसद भवन का प्रस्तावित बजट 22000 करोड़ है।
पीएम मोदी ने कहा कि कोरोना से जुड़ी टेस्टिंग फेसिलिटीज, पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्वीपमेंट्स, आइसोलेशन बेड्स, आईसीयू बेड्स, वेंटिलेटर्स, और अन्य जरूरी साधनों की संख्या तेजी से बढ़ाई जाएगी, लेकिन क्या इसे बढ़ाने का आधारभूत ढांचा उपलब्ध है? फिर कोरोना का कहर तात्कालिक है और प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं उसे खरीदने और स्थापित करने में समय लगेगा।
यही नहीं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2017-18 में भारत सरकार ने अपने जीडीपी का 1.28 फ़ीसदी ही स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करने का प्रवाधान रखा।
इसके अलावा 2009-10 में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर सरकार ने ख़र्च किए महज़ 621 रुपये। पिछले आठ सालों में सरकार का प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्चा बढ़ा ज़रूर है, लेकिन 2017-18 में ये बढ़ कर भी 1657 रुपये प्रति व्यक्ति ही हुआ है। इन आंकड़ों से स्वत: स्पष्ट है कि सरकार स्वास्थ्य को लेकर कितनी सजग है।
2019 के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में करीब 26,000 सरकारी अस्पताल हैं। इनमें से 21,000 ग्रामीण इलाक़ों में हैं जबकि 5,000 अस्पताल शहरी इलाक़ों में हैं। भारत में हर एक अस्पताल के बेड पर हैं 1,700 मरीज़। राज्यों में बिहार की हालात सबसे ख़राब है और तमिलनाडु की सबसे अच्छी। देश भर में 2018 तक साढ़े 11 लाख एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मुताबिक़ डॉक्टर और मरीज़ों का अनुपात हर 1,000 मरीज़ पर एक डॉक्टर का होना चाहिए। 135 करोड़ की भारत की जनसंख्या में डॉक्टरों की संख्या बेहद कम है और डब्लूएचओ के मानकों के मुताबिक़ तो नहीं है। यदि यह माना जाए कि एक समय में इस संख्या में से 80 फ़ीसदी डॉक्टर मौजूद रहते हैं तो एक डॉक्टर पर तकरीबन 1500 मरीज़ की ज़िम्मेदारी हुई।
गौरतलब है कि कोरोना से संक्रमित लोगों को सांस लेने संबंधी दिक्कतें आती हैं, लेकिन ज़्यादातर लोग दवाई से ठीक भी हो जाते हैं। कोविड19 के इलाज में तकरीबन पांच फ़ीसदी मरीज़ों को ही क्रिटिकल केयर की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे लोगों को उपचार के लिए आईसीयू की ज़रूरत पड़ती है। इंडियन सोसाइटी ऑफ़ क्रिटिकल केयर के मुताबिक़ देश भर में तकरीबन 70 हज़ार आईसीयू बेड हैं। देश में तकरीबन 40 हज़ार ही वेंटिलेटर मौजूद है। इनमें से अधिकतर मेट्रो शहरों, मेडिकल कॉलेजों और प्राइवेट अस्पतालों में उपलब्ध हैं।
कोरोना का संक्रमण तीसरे चरण में पहुंचने पर ख़तरा इस बात है कि ज़्यादा लोगों को क्रिटिकल केयर की ज़रूरत पड़ेगी। तीसरे चरण में कोविड19 बीमारी पहुंचती है तो इतने वेंटिलेटर काफ़ी होंगे? जी नहीं! यदि इटली, चीन स्पेन जैसे हालात भारत में हुए तो ये बहुत ही भयावह स्थिति होगी। मौजूदा संख्या के वेंटिलेटर साथ इसे संभालना लगभग असम्भव हो जाएगा। आईसीयू से ज़्यादा समस्या वेंटिलेटर की हो जाएगी।
स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ भारत ने आपात स्थिति से निपटने के लिए तकरीबन 1200 और वेंटिलेटर मंगवाए हैं, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इन्हें लगाया कहां जाएगा। इसकी तयारी नहीं है। मेडिकल फ्रैटर्निटी में कहा जा रहा है कि इटली, स्पेन और चीन में जैसे हालात यहां पैदा हुए तो बड़ी संख्या में यहां लोग संक्रमण की चपेट में आएंगे और यह कोरोना की सुनामी जैसा होगा।
इस बीच कारवां की रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए मास्क, गाउन और दस्ताने जैसे पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट या पीपीई का भंडारण करने में सरकार विफल रही। 19 मार्च को भारत सरकार ने देश में निर्मित पीपीई के निर्यात पर रोक लगाई। सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पीपीई की आपूर्ति में संभावित ढिलाई की चेतावनी के तीन सप्ताह बाद ऐसा किया।
इससे पहले 27 फरवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिशा निर्देश जारी करते हुए बताया था कि दुनिया भर में पीपीई का भंडारण पर्याप्त नहीं है और लगता है कि जल्द ही गाउन और गोगल (चश्में) की आपूर्ति भी कम पड़ जाएगी। गलत जानकारी और भयाक्रांत लोगों की तीव्र खरीदारी और साथ ही कोविड-19 के बढ़ते मामलों के चलते, दुनिया में पीपीई की उपलब्धता कम हो जाएगी।
जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों में बताया गया है, पीपीई का मतलब है चिकित्सीय मास्क, गाउन और एन 95 मास्क। इसके बावजूद भारत सरकार ने घरेलू पीपीई के निर्यात पर रोक लगाने में 19 मार्च तक का समय लगा दिया।
31 जनवरी को भारत में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के बाद, विदेश व्यापार निदेशालय ने सभी पीपीई के निर्यात पर रोक लगा दी थी, लेकिन आठ फरवरी को सरकार ने इस आदेश पर संशोधन कर सर्जिकल मास्क और सभी तरह के दस्तानों के निर्यात की अनुमति दे दी।
25 फरवरी तक जब इटली में 11 मौतें हो चुकी थीं और 200 से अधिक मामले सामने आ चुके थे, सरकार ने उपरोक्त रोक को और ढीला करते हुए आठ नए आइटमों के निर्यात की मंजूरी दे दी।
यह बिलकुल साफ है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के बावजूद भारत सरकार ने पीपीई की मांग का आंकलन नहीं किया जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय डॉक्टर और नर्स इसकी कीमत चुका रहे हैं और इस संकट का सामना कर रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय, कपड़ा मंत्रालय और सरकारी कंपनी एचएलएल लाइफकेयर लिमिटेड के पिछले दो महीनों के निर्णयों ने स्वास्थ्य कर्मियों और कार्यकर्ताओं को सकते में डाल दिया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इलाहाबाद में रहते हैं।)