जन्म दिवस विशेष: संसद में मधु लिमये की मौजूदगी में सरकार झूठ बोलने से डरती थी

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भारतीय समाजवादी आंदोलन के महानायकों में से एक मधु लिमये का जन्म शताब्दी वर्ष सम्पन्न हो चुका है। आज उनका 101वां जन्मदिवस है। मधु जी ने देश के स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लिया था और वे गोवा मुक्ति संग्राम के नायकों में से भी एक थे।

मधु लिमये का जन्म 1 मई, 1922 को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था। कम उम्र में ही उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद मधु लिमये ने 1937 में पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया और तभी से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। इसके बाद मधु लिमये एसएम जोशी, एनजी गोरे वगैरह के संपर्क में आए और अपने समकालीनों के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए। समाजवादी आंदोलन में वे जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के करीबी सहयोगी रहे।

मधु जी एक प्रतिबद्ध समाजवादी होने के साथ ही महान संसदविद्, चिंतक, विद्वान लेखक और भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रेमी भी थे। इस सबके अलावा उनके व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी- ईमानदारी और नैतिक मूल्यों में गहरी आस्था। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीन राजनेताओं की जमात से एकदम अलग, विशिष्ट स्थान पर खड़ा करती थी।

मधु लिमये के संसदीय कौशल का आलम यह था कि जब वे दस्तावेजों का पुलिंदा और किताबों का गट्ठर लेकर सदन में प्रवेश करते थे तो सरकारी बैंचों पर बैठे लोगों के चेहरों पर यह सोच कर हवाइयां उड़ने लगती थीं कि पता नहीं आज किसकी शामत आने वाली है। संसद में उनकी मौजूदगी में प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्री झूठ बोलने से यह सोचकर डरते थे कि उन्हें मधु लिमये कहीं विशेषाधिकार हनन के मामले में न फंसा दे।

संसदीय परंपराओं और नियमों का उनका ज्ञान भी इतना जबरदस्त था कि कई बार वे स्पीकर या उसकी आसंदी पर बैठे अन्य पीठासीन अध्यक्ष को भी अपनी दलीलों से लाजवाब कर देते थे। मधु लिमये को अगर संसदीय नियमों और परंपराओं के ज्ञान का चैंपियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोकसभा में उनके समय में सोशलिस्ट पार्टी को कुल 7-8 सदस्य ही होते थे लेकिन इसके बावजूद वे अपने संसदीय कौशल से भारी-भरकम बहुमत वाली सरकार पर बहुत भारी पड़ते थे।

इस सिलसिले में साठ के दशक का एक वाकया बेहद दिलचस्प और उल्लेखनीय है। उस समय वित्त मंत्रालय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास ही था और उन्होंने लोकसभा में बजट पेश किया था जो वस्तुत: लेखानुदान था। उनका भाषण खत्म होते ही मधु लिमये ने व्यवस्था का प्रश्न उठाना चाहा, लेकिन स्पीकर ने अनुमति नहीं दी और सदन कार्यवाही को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया।

मधु लिमये झल्लाते हुए स्पीकर के चैम्बर में गए और कहा, ”आज बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है। आप आज की सारी प्रोसिडिंग मंगवा कर देखिए। मनी बिल तो पेश ही नहीं किया गया है और अगर मनी बिल पारित नहीं हुआ तो आज रात 12 बजे के बाद सरकार का सारा काम रूक जाएगा और कोई भी सरकारी महकमा एक भी पैसा खर्च नहीं कर पाएगा।’’

मधु लिमये की यह बात सुनकर स्पीकर भी हैरान रह गए। उन्होंने सारी प्रोसिडिंग्स मंगवा कर देखा तो पता चला कि मनी बिल तो वाकई पेश ही नहीं हुआ। वे घबरा गए, क्योंकि सदन तो स्थगित हो चुका था। उन्होंने मधु लिमये से ही पूछा कि अब क्या किया जा सकता है?

मधु लिमये ने कहा, ”यह अब भी पेश हो सकता है। आप तत्काल विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक बुला कर उन्हें विश्वास में लें और रात में ही सदन की बैठक बुलवाएं।’’ स्पीकर ने ऐसा ही किया और उसी समय रेडियो पर घोषणा करवाई गई कि संसद की आपात बैठक बुलाई गई है, जो सदस्य जहां भी है, तुरंत संसद भवन पहुंच जाए। इस तरह रात में संसद की बैठक हुई मनी बिल पारित हो सका।

नैतिकता के प्रति उनका आग्रह कितना प्रबल था, इसे एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है। बात आपातकाल के दौर की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया था। उस समय मधु लिमये भी लोकसभा के सदस्य थे और मध्य प्रदेश की जेल में बंद थे।

जयप्रकाश जी (जेपी) मुंबई के जसलोक अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे। उन्होंने अस्पताल से ही विपक्षी दलों के सभी लोकसभा सदस्यों के नाम एक अपील जारी कर इंदिरा सरकार के इस फैसले के विरोधस्वरूप लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने का अनुरोध किया। जेपी की इस अपील पर मधु लिमये ने बगैर कोई देरी किए जेल से अपना इस्तीफा लोकसभा स्पीकर को भेज दिया। उनका अनुसरण करते हुए इंदौर जेल मे बंद शरद यादव ने भी अपना इस्तीफा स्पीकर के पास पहुंचा दिया। उस समय शरद यादव को लोकसभा में आए महज 16 महीने ही हुए थे। वे मध्य प्रदेश के जबलपुर से उपचुनाव में जेपी के जनता उम्मीदवार के तौर पर जीत कर लोकसभा में पहुंचे थे। पूरे विपक्ष में ये मात्र दो सांसद ही रहे इस्तीफा देने वाले।

उस समय लोकसभा में जनसंघ (आज की भाजपा) की नैतिकता के शीर्ष पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी सहित जनसंघ के 22 सदस्य थे, लेकिन उनमें से किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था। यानी वे सभी अनैतिक तरीके से बढ़ाई गई लोकसभा की अवधि के दौरान भी सांसद बने रहे और वेतन-भत्ते तथा अन्य सुविधाएं लेते रहे।

वाजपेयी उस समय इलाज के बहाने पैरोल पर जेल से बाहर थे (वैसे भी 19 महीने के आपातकाल के दौरान वे कुछ ही दिनों के लिए जेल गए थे और बाकी पूरा समय इलाज के बहाने जेल से बाहर थे। खैर, यह एक अलग ही कहानी है)। वाजपेयी ने दलीय अनुशासन से बंधे होने की दुहाई देते हुए इस्तीफा देने से इनकार कर दिया था।

मधु लिमये ने सिर्फ लोकसभा की सदस्यता से ही इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि कई मौकों पर उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता भी ठुकराई। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई चाहते थे कि मधु लिमये भी सरकार में शामिल हों लेकिन मधु लिमये ने मंत्री बनने के बजाय संगठन में बने रहने को प्राथमिकता दी।

मधु लिमये ने स्वाधीनता सेनानियों और पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन भी कभी नहीं ली। मधु लिमये का स्पष्ट मानना था कि सांसदों और विधायकों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। उन्होंने न सिर्फ स्वाधीनता सेनानी और सांसद की पेंशन नहीं ली, बल्कि अपनी पत्नी चम्पा लिमये को भी कह दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद वे पेंशन के रूप में एक भी पैसा न लें।

हालांकि वे ऐसा नहीं कहते तो भी उनकी मृत्यु के बाद चम्पा जी पेंशन स्वीकार नहीं करतीं, क्योंकि वे भी अपने पति की तरह ही सादगी और समता के मूल्यों को जीने वाली महिला थीं। वैसे भी चम्पा जी प्राध्यापिका होने के नाते आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं और मधु जी को परिवार की आर्थिक चिंता से मुक्त रखने में उनका भी बड़ा योगदान था।

सक्रिय और संसदीय राजनीति से निवृत्त होने के बाद वे अपनी किताबों की रायल्टी और अखबारी लेखन से मिलने वाले मानदेय से ही अपना रोजमर्रा का खर्च चलाते थे। उनकी सादगी का आलम यह था कि उनके घर में न तो फ़्रिज था, न एसी और न ही कूलर। कार भी नहीं थी उनके पास। हमेशा ऑटो या बस से चला करते थे।

भीषण गरमी में कूलर या एयरकंडीशनर की जगह पंखे से निकलती गरम हवा में सोना या खुद चाय, कॉफ़ी या खिचड़ी बनाना न तो उनकी मजबूरी थी और न ही नियति। यह उनकी पसंद थी। उनके लिए संक्षिप्त में यही कहा जा सकता है कि अधिकतम दिया, न्यूनतम लिया, मधु लिमये सा कौन जिया!
मधु लिमये जैसे राजनेताओं की जमात अब हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में लुप्त हो चुकी है। आज जब सड़क गूंगी, संसद नाकारा और राजनीति आवारा होकर पूरी तरह जनद्रोही हो चुकी है, ऐसे में मधु लिमये बहुत याद आते हैं और आते रहेंगे। उनकी स्मृति को सादर नमन।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे हैं।)

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