Wednesday, April 24, 2024

मौलाना आजाद फेलोशिप बंद: शिक्षा में पहले से ही पिछड़े मुसलमानों के लिए नई मुसीबत

यूपीए-1 सरकार द्वारा 2005 में नियुक्त सच्चर समिति की रपट सन् 2006 में जारी हुई थी। इस रपट के अनुसार देश में मुसलमान, सामाजिक और राजनैतिक जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं। उनके खिलाफ अनवरत हिंसा ने उनके मन में असुरक्षा का भाव जागृत कर दिया है जिसके कारण सामाजिक-राजनैतिक जीवन में उनका प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। यूपीए सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कदम उठाए। इनमें से एक कदम था मौलाना आजाद फेलोशिप की स्थापना। यह फेलोशिप अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा व शोध हेतु दी जाती थी। इसके लिए सभी अल्पसंख्यक वर्गों यथा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं जैन के विद्यार्थी पात्र थे। परंतु इससे लाभान्वित होने वालों में मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। पिछली बार 1000 फेलोशिप में से 733 मुस्लिम विद्यार्थियों को दी गईं थीं।

स्वतंत्रता के बाद से शैक्षणिक दृष्टि से मुसलमानों की स्थिति में तेजी से गिरावट आई। इसका कारण था डर का वातावरण, गरीबी और सकारात्मक कदमों का अभाव। जैसे-जैसे मुसलमानों में शिक्षा के प्रति अभिरुचि घटती गई वैसे-वैसे स्कूलों में दाखिला लेने वालों में मुस्लिम विद्यार्थियों का अनुपात कम होता गया। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार मुसलमानों की साक्षरता दर 57.3 प्रतिशत है जबकि कुल आबादी में 73.4 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। इसी तरह जहां देश में औसतन 22 प्रतिशत लोग मैट्रिक या उससे उच्च शिक्षा प्राप्त हैं वहीं मुसलमानों में यह प्रतिशत 17 है। मुसलमानों में साक्षरता की दर अन्य अल्पसंख्यक समुदायों से भी काफी कम है। उच्च शिक्षा व शोध संस्थानों में मुस्लिम विद्यार्थियों की मौजूदगी न के बराबर है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार जहां 5.98 प्रतिशत हिन्दू स्नातक थे वहीं मुसलमानों के मामले में यह प्रतिशत 2.76 था। मुसलमानों की देश की कुल आबादी में हिस्सेदारी 14.2 प्रतिशत है परंतु केवल 5.5 प्रतिशत मुसलमान उच्च शैक्षणिक संस्थाओं तक पहुंच पाते हैं। इस पृष्ठभूमि में जाहिर है कि मौलाना आजाद फेलोशिप सही दिशा में एक छोटा सा कदम था। इस योजना को बंद कर दिया गया है।

इसी तरह मुसलमानों के लिए प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना को केवल कक्षा 9वीं और 10वीं तक सीमित कर दिया गया है। प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना की शुरुआत सन् 2008 में की गई थी। वह मैट्रिक में पढ़ रहे मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए निश्चित रूप से बहुत उपयोगी थी। उस समय नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क दिया था कि केन्द्र इस योजना को लागू करने के लिए गुजरात को मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि यह योजना धर्म पर आधारित है। गुजरात सरकार ने इस योजना के क्रियान्वयन के लिए केन्द्र द्वारा भेजी गई धनराशि वापस कर दी थी।

गत 8 दिसंबर 2022 को अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी ने घोषणा की कि दिसंबर से मौलाना आजाद फेलोशिप योजना बंद कर दी जाएगी। सरकार की इस मनमानी कार्यवाही की कई लोगों ने खिलाफत की है और कांग्रेस व अन्य पार्टियों के सांसदों ने इस मसले को संसद में भी उठाया है। ईरानी का कहना है कि यह योजना इसलिए बंद की जा रही है क्योंकि इसी तरह की कई अन्य योजनाएं उपलब्ध हैं जिनके लिए मुस्लिम विद्यार्थी पात्र हैं जैसे कि ओबीसी के लिए छात्रवृत्तियां। शायद सुश्री ईरानी यह भूल रही हैं कि कोई भी विद्यार्थी एक से अधिक छात्रवृत्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

शोधार्थी अब्दुल्ला खान ने ‘मुस्लिम मिरर’ से बात करते हुए कहा कि उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण रिपोर्ट (एआईएसएचई) जिसे भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने तैयार किया है, के अनुसार उच्च शिक्षा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व एससी, एसटी व ओबीसी से भी कम है।

यह स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार सभी नागरिकों को एक बराबर अवसर उपलब्ध करवाने के लिए जो भी थोड़े-बहुत प्रयास किए गए हैं उन्हें मटियामेट कर देना चाहती है। राजनैतिक स्तर पर साम्प्रदायिक तत्व अनेक तरीकों से मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं। हाल में हमने देखा कि श्रद्धा-आफताब जैसे अपराधों को ‘लव जिहाद’ बताया जा रहा है। यह घटना हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक उदाहरण भर है परंतु इसे साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। हिन्दू पुरूषों द्वारा महिलाओं के साथ वीभत्स हिंसा की घटनाएं भी होती हैं परंतु इन पर साम्प्रदायिक तत्व चुप्पी साध लेते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा ही किसी समुदाय की उन्नति की कुंजी है। सईद मिर्जा की क्लासिक फिल्म ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ इस सच को बहुत शानदार तरीके से सामने लाती है। मुंबई के एक मानवाधिकार संगठन बेबाक कलेक्टिव द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह सामने आया है कि वर्तमान में जो सामाजिक स्थितियां व्याप्त हैं उनके कारण मुस्लिम युवक बहुत कुछ भोग रहे हैं।

भारत में विघटनकारी राजनीति के बढ़ते बोलबाले ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के जीवन को कई तरह से प्रभावित किया है। सत्ता में न रहने पर भी ये ताकतें अर्ध-धर्मनिरपेक्ष दलों की सरकारों पर दबाव बनाती हैं कि वे मुसलमानों और ईसाईयों की बेहतरी और भलाई के लिए कुछ न करें। नई शिक्षा नीति और शिक्षा के अंधे निजीकरण से गरीब और हाशियाकृत समुदायों की समस्याएं बढ़ेंगी ही।

सत्ताधारी दल को संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त है और इस तरह के निर्णयों पर विरोध दर्ज करवाने मात्र से सरकार अल्पसंख्यकों की मदद नहीं करने लगेगी और ना ही वह श्रेष्ठि वर्ग की बेहतरी के लिए काम करना बंद कर देगी। सत्ताधारी दल की चुनाव मशीनरी इतनी बड़ी और इतनी शक्तिशाली है कि कम से कम निकट भविष्य में तो वह ऐसे किसी गठबंधन को सत्ता में नहीं आने देगी जो हाशियाकृत समूहों की समस्याओें के प्रति संवेदनशील हो। परंतु इन सारी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी हमें कोई न कोई राह निकालनी होगी ताकि यह डरा हुआ समुदाय खुलकर सांस ले सके और हम एक ऐसा समाज बना सकें जिसमें हरेक को आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त हों फिर चाहे उसका धर्म, जाति, भाषा और लिंग कुछ भी हो।

वर्तमान सरकार का एजेंडा अलग है। जो लोग ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ जैसे आंदोलनों के पीछे रहे हैं वे यह नहीं समझ सकते कि एक असमान समाज में सकारात्मक भेदभाव कितना महत्वपूर्ण है। अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थी अब भी जामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयों में उनके साथियों पर हुए हमलों को भूले नहीं हैं। जिस समय ईरानी केन्द्रीय शिक्षा मंत्री थीं उसी समय रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी। इससे शिक्षा जगत में दलितों की स्थिति रेखांकित होती है।

आगे का रास्ता क्या है? क्या मुस्लिम समुदाय के परोपकारी धनिक व वक्फ व अन्य सामुदायिक संपत्ति के नियंत्रणकर्ता आगे आकर उस अंतर को पाटेंगे जो मौलाना आजाद नेशनल फैलोशिप को बंद करने और प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति को केवल कक्षा 9 और 10 तक सीमित कर देने से बना है। यह बहुत मुश्किल है परंतु अगर सरकार अपने इन दोनों निर्णयों को पलटती नहीं है तो इस तरह के कदम उठाना जरूरी हो जाएगा। सरकार अपने अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडे को पूरे जोरशोर से लागू कर रही है। जो विद्यार्थी अपनी उच्च शिक्षा के अधबीच में हैं और जो उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं उनकी हर संभव मदद की जानी चाहिए। 

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया ने किया है।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles