हमेशा की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय संबोधन सुना। विगत संबोधानों से ताजा संबोधन में बीज अंतर यह रहा कि इस दफा उनके संबोधन में निर्वाचित अधिनायकवाद की गूंज पंचम स्वर में थी। ‘मैं ही राज्य हूं’ (I am the state) के भाव प्रचंडता के साथ विस्फोटित हुए। संपूर्ण भाषण अगले वर्ष के आम चुनाव की पूर्व-पीठिका की नुमाइश था। संपूर्ण भव्यता, तामझाम, नौटंकी और अदाकारी के साथ प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से स्वयं को प्रसारित-प्रचारित किया।
करीब नब्बे मिनट तक चले अपने संबोधन में मोदी जी ने देशवासियों के स्थान पर परिवारवासी, परिवार जैसे शब्दों का प्रयोग किया। ऐसा करके उन्होंने संघ परिवार के एजेंडे की भावना को सामने रखा है। वे अब तक अक्सर देशवासी शब्द का प्रयोग करते रहे हैं। लेकिन इस दफा देश के बजाय परिवार शब्द के माध्यम से उन्होंने छिटकते देशवासियों के साथ अतिरिक्त घरापा दिखाने की कोशिश की है। नए शब्द जाल रिझाने की कवायद से अधिक कुछ नहीं है। यह तब ही होता है जब नेतृत्व का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है।
जर्मनी में हिटलर ने इसी अदाकारी के सांचे में स्वयं और जनता को ढालने की कोशिश की थी। टूटते मतदाताओं या जनता के साथ त्वरित भावनात्मक रिश्ते जोड़ना, विवेचनात्मक चेतना से उसे दूर रखना, तानाशाही नेतृत्व ऐसे हथियारों का इस्तेमाल करता है क्योंकि ऐसे नेतृत्व का प्रथम व अंतिम दुश्मन होती है जनता की critical consciousness। इससे ही चिढ़ है मोदी जी को। उन्हें भक्तिभाव से समर्पित प्रजा चाहिए। जनता या नागरिक नहीं।
इसीलिए मोदी जी परिवार के साथ-साथ रह-रह कर हमारे या हमारी के स्थान पर ‘मेरी’ और ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ चरम व्यक्तिवादी संज्ञाओं का प्रयोग करते रहे। इससे ऐसा भाव प्रकट होता है कि देश, राष्ट्र, समाज और सरकार उनकी निजी संपति है, सामूहिक नहीं है। भारत की सामूहिकता का भाव मोदी जी की व्यैक्तिकता में बदल चुका है। यह अधिनायकवाद या तानाशाही का मार्ग है। इससे लोकतंत्र और संविधान की प्रभावशालीता कमजोर होती जाती है और देश व समाज पर नेतृत्व के एकछत्र राज की संभावना प्रबल होने लगती है। प्रधानमन्त्री मोदी यही चाहते हैं।
इसीलिए वे यह कहने से नहीं चूकते हैं कि जिन योजनाओं की वे नींव रख रहे हैं, उनका उद्घाटन करना भी, “मेरे भाग्य” में लिखा है। मुझे याद है जब उन्होंने सैनिकों के लिए वन रैंक वन पेंशन को लागू करने की घोषणा की थी तब भी सीमाओं पर तैनात फौजियों से बात करते हुए मोदी जी कहा था कि इस योजना को लागू करना भी मेरे भाग्य में लिखा है। किसी भी प्रधानमंत्री के लिए ऐसा कहना शोभा नहीं देता। देश या समाज किसी भी दल या नेता की जागीर नहीं है। यह विशेष भू-राजनीतिक भाग पर बसी मानवता के सामूहिक परिश्रम की अभिव्यक्ति है। संघ या मोदी जी निजी बपौती नहीं है। इस सामान्य ऐतिहासिक प्रक्रिया व समझदारी की धज्जियां मोदीजी ने उड़ा दी है।
मैं आजकल Anne Frank की डायरी पढ़ रहा हूं। यह हिटलर के शासन के दौरान ऐन ने छिप कर लिखी थी। इस डायरी में लेखिका ने यहूदियों के विरुद्ध हिटलर के कारनामों का विवरण दिया है, उसकी बढ़ती पदचापें मोदी राज में सुनाई देती हैं। कभी-कभी भय लगता है कि कहीं हिटलर का भारतीय संस्करण इस शासन की कोख में पल तो नहीं रहा है! कहीं हमें सॉफ्ट फासीवाद से नेकेड फासीवाद की सुरंग में तो नहीं धकेला जा रहा है!

ऐसे क्षणों में भाजपा के मूर्धन्य नेता लालकृष्ण आडवाणी की चेतवानी याद आती है जब उन्होंने 2015 में देश को चेताया था कि लोकतंत्र को कमज़ोर करनेवाली ताकतें आज भी मजबूत हैं। याद रखें, 2014 में मोदी हुकूमत शुरू हो चुकी थी। डेढ़ साल के भीतर ही आडवाणी जी की चेतावनी का आना, खतरनाक आसार का सूचक है। उनकी दूरदर्शीता पूर्ण चेतावनी को एकाएक खारिज़ नहीं किया जा सकता। इस चेतावनी के परिप्रेक्ष्य में ताज़ा मोदी संबोधन को देखा जाना चाहिए।
इस दफा यह भाषण भारत से कई हजार किलोमीटर दूर स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबर्ग में तड़के तड़के सुना था। दोपहर में एक रेस्टोरेंट में एक जर्मन पर्यटक जोड़े से टकरा गया। उनकी उम्र पचास पचपन के आस-पास रहा होगा। हिटलर शासन की बात चली तो दोनों तमतमा उठे। अपने दोनों कान पकड़ते हुए कहने लगे इस अत्याचारी का नाम मत लीजिए। वह घिनौना इतिहास है। इसे सुनकर मुझे और पत्नी को कैसी आशंकाओं ने घेरा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस समय लंदन की यात्रा पर हैं।)