Thursday, April 25, 2024

जातीय भेदभाव और धार्मिक नफरत का दंश झेलता हिंदू समाज

अभी पिछले दिनों इंदौर शहर में एक गरीब चूड़ी बेचने वाले को घोर जातिवादी और सत्ता प्रायोजित गुँडों के एक भगवाधारी समूह के लोग एक हिन्दू मुहल्ले में चूड़ी बेचने के कथित अक्षम्य अपराध के लिए चारों तरफ से उसे घेरकर पहले उसके टोकरे से चूड़ियों को लूट रहे थे,उसके बाद उसे चारों तरफ से घेरकर थप्पड़ों, लात, मुक्कों और पैरों से ऐसे मार-पीट रहे थे, जैसे वह कोई हिस्र पशु हो। उस घटना के कुछ ही दिनों बाद ही इसी मध्य प्रदेश के नीमच जिले में संपूर्ण मानवता को शर्मसार करने वाली और इस देश को कथित आध्यात्मिक गुरू और विश्वगुरु के खिताब से नवाजने वालों के इस बयान पर कालिख पोतने वाली एक ऐसी घटना हुई, जिसे सुनकर ही इस देश के हर संवेदनशील व सहृदय व्यक्ति का रोम-रोम सिहर उठता है, दिल कराह उठता है, इस घटना में कुछ जातिवादी दरिंदे, आततायी और गुंडे एक गरीब, बेबस, कमजोर, निःसहाय, अकेला आदिवासी युवक को उसके लाख गिड़गिड़ाने, रोने और अपनी जान की भीख मांगने के बावजूद उसे भयंकरतम् शारीरिक चोट पहुंचाने के बाद उसके दोनों पैरों को एक मोटी रस्सी से जकड़कर एक ट्रक के पीछे बांधकर लगभग एक सौ मीटर तक तेजी से घसीटते हुए ले जाने का लोमहर्षक कुकर्म किए, सबसे बड़ी क्रूरता की हद तो यह हुई कि इस घृणित कुकृत्य के ये हिंसक भेड़िए वीडियो बना रहे थे।

दुःखद रूप से उस आदिवासी युवक   की बाद में मौत हो गई। भारतीय समाज और इस राष्ट्र राज्य में उक्त वर्णित जातिगत व धार्मिक विग्रह, घृणा और वैमनस्यता से होती हत्याएं और जुल्म एक सामान्य सी बात होती जा रही है। इस देश में आम जनता को इंदौर और नीमच वाली घटनाएं तो इसलिए पता चल गईं, क्योंकि सोशल मीडिया पर ये वायरल हो गईं, नहीं तो इस देश में कहीं न कहीं प्रति दो मिनट में इस तरह की 7 हिंसक,बलात्कार या प्रतारणा की घटनाएं अक्सर कहीं न कहीं हो रही होतीं हैं। लेकिन उनका कहीं भी जिक्र तक नहीं होता।       

सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री व अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत बुराइयों पर गहन अध्ययन किया है। उन्होंने अपने विशद् अध्ययन को ‘वर्ल्ड एनइक्वेलिटी डाटाबेस स्टडी ‘ के नाम से संयोजित किया है । उनके इस अध्ययन के अनुसार भारतीय गाँवों में आज भी जातियों-उपजातियों जैसे अमानुषिक भेदभाव की वजह से सबसे नीची समझी जाने वाली जातियाँ जैसे ‘वाल्मीकी’ और ‘भंगी ‘ अत्यन्त नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं, अधिकतर सवर्ण गाँवों में उन्हें गाँव से बाहर ही एक अलग मुहल्ला बनाकर बसा दिया जाता है, वे लोग गाँव के सार्वजनिक नल, कुएं, तालाब या हैंडपंप का इस्तेमाल नहीं कर सकते। उन सभी के लिए गाँव से बाहर ही एक हैंडपंप या कुआं होता है, अगर गर्मी के दिनों में उनका कुआं या हैंडपंप सूख जाता है,तो वे किसी दूर या पास की नहर से अगर वह भी न हो तो गाँव के किसी जोहड़ (पश्चिमी उ.प्र.और हरियाणा में गड्ढे को ‘जोहड़ ‘कहते हैं) से ही पानी ले सकते हैं, अन्यथा वे गाँव के सवर्णों के पानी के श्रोतों जैसे कुएं, तालाब या हैंडपाइप से पानी माँगने का साहस भी नहीं कर सकते।

तब वे अपने दलित भाइयों से पानी माँगते हैं, परन्तु चूँकि दलित भी ‘भंगियों ‘और ‘वाल्मीकियों ‘ को अपने से ‘नीच ‘ और ‘अछूत ‘मानते हैं। लिहाजा वहां भी दिक्कत पैदा हो जाती है। मतलब भारतीय समाज में जातिवाद का कीड़ा हर तबके में बुरी तरह घुसा हुआ है। भारत का कन्याकुमारी से कश्मीर और मेघालय से गुजरात तक कोई भी समाज भारतीय जातिवादी वैमनस्यता और घृणा से मुक्त नहीं है। इसलिए वे लोग भी इन लोगों को पानी देने से साफ इंकार कर देते हैं। इन नहरों और जोहड़ों का प्रदूषित पानी पीने का परिणाम यह होता है कि इन जातियों के लोग तरह-तरह की पेट की बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं ,चूँकि  ये लोग बहुत गरीब और आर्थिक तौर पर बहुत विपन्न होते हैं, इन लोगों के पास इतना पैसा होता नहीं कि अच्छा ईलाज करा सकें, इसलिए प्रदूषित पानी पीने से ये तमाम तरह की भयंकर बीमारियों से ग्रस्त होकर असमय ही बूढ़े, असक्त और बीमार होकर अल्पायु में ही मौत के शिकार हो जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश भारतीय दलित आबादी को प्राकृतिक गड्ढों ,जोहड़ों ,नहरों के प्रदूषित पानी पीने से तरह-तरह की बीमारियां सामान्यतः हो ही जातीं हैं । भारतीय समाज में नीची समझी जाने वाली जातियों को होने वाली परेशानियाँ केवल पानी तक ही सीमित नहीं हैं। उनका जीवन हर जगह सामाजिक अपमान ,आर्थिक परेशानियों और अन्य बहुत सी जिल्लतों और काँटों से भरा पड़ा है।

       भारतीय समाज में सबसे नीची समझी जाने वाली इन जातियों में डोम, हलखोर, बंसफोर, चाँडाल, भंगी और वाल्मीकी कही जाने वाली जातियों में व्याप्त अत्यन्त गरीबी से ढंग से खाना न खा पाने की स्थिति में ये लोग भयंकर कुपोषण के शिकार हैं,जिससे ये कई भयंकर बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं, इस कारण इन्हें अन्य उच्च जातियों की तुलना में अपने ईलाज पर बहुत ज्यादे खर्च करना पड़ता है । भयंकरतम् कुपोषण से इन जातियों की 20 प्रतिशत तक महिलाएं कद में सामान्य से बहुत छोटी होती हैं ,इनकी 80 प्रतिशत तक गर्भवती महिलाएं खून की भयंकर कमी से ग्रस्त हैं ,जिसके चलते इनके गर्भस्त शिशुओं का भी सामान्य शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता, वे बहुत कमजोर पैदा होते हैं ,चूँकि उनके माँ-बाप पहले ही आर्थिक रूप से अत्यन्त अक्षम होते हैं, इसलिए इन बच्चों का विकास भी सामान्य नहीं हो पाता ,क्योंकि इन्हें ढंग से पोषण ही नहीं मिल पाता।

         थॉमस पिकेटी के अनुसार भारत में विशेषकर 1980 के बाद कथित वैश्वीकरण, उदारीकरण,जनसंख्या वृद्धि और तकनीकी क्रांति ने दिखाने के लिए आर्थिक विकास का दर तो बढ़ाया ,परन्तु दुखद रूप से कथित उच्च जातियों और नीच कही जाने वाली जातियों में आर्थिक खाई को और अधिक चौड़ी करने का काम किया है । 1980 के बाद उक्त वजह से सार्वजनिक सम्पत्ति का बहुत बड़े पैमाने पर हस्तानांतरण निजी क्षेत्र में हुआ ,इसमें समाज के मात्र एक प्रतिशत उच्च जातियों के लोगों के पास किसानों ,आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को सरकार के सहयोग से विस्थापित करके बहुत बड़ी सम्पत्ति का हस्तानांतरण किया गया।

इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था के निजीकरण के नाम पर सरकारों ने उच्च जाति के व्यवसायियों और उद्योगपतियों को भारी मात्रा में कर्ज रेवड़ियों की तरह बाँटकर उस कर्ज को बड़ी आसानी से खुद माफकर भारतीय समाज में उच्च जातियों को कथित नीची जातियों से आर्थिक रूप से असमानता की खाई को और भी खूब बढ़ा दिया। दलित और नीच कही जाने वाली जातियों को तो छोटे से छोटे कर्जे भी जैसे शिक्षा के लिए कर्ज भी नहीं मिलते, इस प्रकार सरकारों ने कथित उच्च जातियों को आर्थिक रूप से खूब सम्पन्न बनाकर और सबसे नीची जातियों के बीच आर्थिक असमानता की खाई को खूब और चौड़ा करने का काम खुद करके भारतीय समाज को जातिगत् भेदभाव और वैमनस्यता को और अधिक बढ़ाने में और अधिक सहयोग ही किया है !

          आज वर्तमान समय में भारतीय सत्तारूढ़ सरकार ने शिक्षा का निजीकरण करके उसे इतना मंहगा कर दिया है कि एक औसत या मध्य वर्ग का भारतीय भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला पाने में असमर्थ हो गया है ,तब इन अत्यन्त दलित जातियों यथा भंगी और वाल्मीकी जाति के लोग अपने बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं ? इसलिए इन गरीब जातियों के बच्चों को अच्छी नौकरी तो छोड़िए ,छोटी नौकरी भी नहीं मिलती,इसलिए ये गरीब जातियाँ और गरीब होने को अभिशापित हैं । जिन उच्च शिक्षा संस्थानों में करोड़ों रूपयों के डोनेशन और लाखों रूपयों में प्रतिमाह फीस हो, जहाँ भारत के बड़े-बड़े ब्यूरोक्रेट्स, भ्रष्ट नेताओं, बड़े व्यापारियों, नव धनाड्यों के बच्चे ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने की स्थिति में हों, वहाँ आर्थिक रुप से एक अत्यन्त गरीब नीची जाति का व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ा ले। इसकी कल्पना करना भी व्यर्थ है ।

            आज के वर्तमानकाल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भले ही सभी जातियों को कानूनन समानता का दर्जा प्राप्त होने का भ्रम हो, लेकिन वास्तविकता ठीक इसके उलटा है, भारतीय समाज लगभग 3000 वर्षों या उससे भी अधिक समय से जातिवादी व्यवस्था में आरोही क्रम में ऊपर से नीचे तक घृणा, वैमनस्यता और अश्यपृष्यता और ऊँच नीच के भाव से भयावह रूप से जकड़ा समाज खत्म होने के बजाय आधुनिक काल में और अधिक सुदृढ़ हो रहा है । भारतीय समाज की कथित उच्च जातियाँ सामाजिक ,आर्थिक ,शैक्षणिक ,अच्छी मलाईदार नौकरी आदि से, हर तरह से दलित व नीची जातियों से सम्पन्न ,बलशाली व सुदृढ़ हैं । कथित नीची जातियाँ पानी ,भोजन की उपलब्धता, आर्थिक,सामाजिक मान मर्यादा ,शिक्षा,उच्च नौकरी आदि में हर तरह से अनुपस्थित,वंचित, अपमानित और तिरस्कृत हैं ।

फ्रांसीसी अर्थशास्त्री के इस अध्ययन से दिगर इस समाज का कोई भी निष्पक्ष,निष्पृह, शिक्षित और उदार व्यक्ति भारतीय समाज के इस हकी़कत को आसानी से अनुभव कर सकता है । आज भी भारत के लाखों गाँवों और कस्बों में कथित उच्च जातियों द्वारा नीच कही जाने वाली जातियों से, उनकी औरतों से,उनके लड़के-लड़कियों से छोटी-छोटी बात पर गालीगलौज, मारपीट, अपमानित और तिरष्कृत करने की घटनाओं को आसानी से देखा जा सकता है, वहाँ यह एक सामान्य सी घटना है। चूँकि शासन,प्रशासन,पुलिस और न्यायालय आदि सभी संस्थाओं में इन्हीं कथित उच्च जातियों का वर्चस्व है, तभी तो 2006 से 2016 तक दलितों और आदिवासियों के खिलाफ होने वाली पांच लाख से भी अधिक केसों में 99 प्रतिशत केसों की अभी तक जाँच भी नहीं हो पा रही है ,यह अकारण नहीं बल्कि जानबूझकर ऐसा किया जा रहा है । यह भारतीय समाज के पतन की पराकाष्ठा का आधुनिक समय की एक विडम्बना है ।

इतना सब कुछ होने के बावजूद इस देश के स्वतंत्र होने के 75 वर्षों बाद आज भी चुनावों में अक्सर भारतीय नेता अपनी चुनावी फसल को काटने और अपनी सत्ता की अक्षुणता के लिए भारतीय समाज का कलंक जाति और धर्मिक वैमनस्यता का जबर्दस्त तरीके से दोहन कर रहे हैं । इसके अलावे जातिगत संकीर्णता से भारतीय समाज और भारत कितना कष्ट उठाया है और पूरे राष्ट्र का जो अकल्पनीय नुकसान हुआ है ,वह वर्णनातीत है।

(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद हैं और आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)                  

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