हिंदवी की संगत: प्रगतिशीलता और प्रतिक्रांति दोनों के फल खाते हिंदी बुद्धिजीवी 

`इंडियन प्रीमियर लीग-2023` का फाइनल मैच जीतने के बाद `चेन्नई सुपर किंग्स` टीम मैदान पर जश्न मना रही थी तो बल्लेबाज रवींद्र जडेजा की पत्नी रिवाबा ऑनलाइन कवरेज के बीच साड़ी का पल्लू अपने सिर पर रखकर माथे तक लाती हैं और अपने पति के पांव छूती हैं। शान-ओ-शौक़त वाले परिवार की आधुनिक जीवन शैली वाली बहू जिसने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रखी है, इस तरह `संस्कारों` का प्रदर्शन करे तो व्यापक संदेश जाता है और पब्लिक ख़ूब वाहवाही करती है। 

इंसानी गरिमा व व्यक्ति-स्वतंत्रता की पक्षधर और पितृसत्ता के बंधनों को लेकर सजग स्त्रियों ने इस पर चिंता जाहिर की और इसे एक सुनियोजित इवेंट की संज्ञा दी। जाहिर है, एक बड़ा तबका इस तरह के तर्कों के साथ मुखर हो जाता है कि अगर कोई स्त्री `भारतीय संस्कारों` में आस्था रखती है और अपनी इच्छा से अपने पति के प्रति श्रद्धा रखती है तो इससे किसी को क्या परेशानी है।

रिवाबा गुजरात के जामनगर से भारतीय जनता पार्टी की विधायक हैं। उन्हें 2018 में करणी सेना ने अपनी गुजरात महिला विंग की प्रमुख भी नियुक्त किया था। जाहिर है कि भाजपा और करणी सेना की राजनीति यही है और स्त्रियों की यही छवि उनका सांस्कृतिक आदर्श भी है।

15-16 दिन बाद आधुनिक साहित्य और विचार की दुनिया में संस्कारों का ऐसा ही ऑन-लाइन प्रदर्शन देखने का मिला। `रेख़्ता फ़ाउंडेशन` की हिन्दी साहित्य की वेबसाइट ‘हिन्दवी’ की संगत सीरीज के तहत 16 जून को यूट्यूब पर आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के साक्षात्कार का वीडियो जारी किया गया। साक्षात्कार-कर्ता अंजुम शर्मा साक्षात्कार का समापन करते हुए त्रिपाठी के चरण स्पर्श करते हैं; त्रिपाठी उन्हें आशीर्वाद देते हैं। इस साक्षात्कार का कमाल यह है कि इसमें शुरू से लेकर आख़िर तक त्रिपाठी को ब्राह्मण होने के नाते आजीवन मिलते रहे जन्मजात प्रीविलेजेज का पता चलता रहता है जबकि उनके ब्राह्मणवाद से मुक्त हो जाने का ऐलान पहले ही हो चुका होता है। 

आधुनिकता के तमाम झोकों के बावजूद विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों से लेकर हिन्दी मीडिया तक ब्राह्मणवाद और इसकी चरण-वंदना की रस्म किस तरह फलती-फूलती रही, यह कोई छुपा हुआ अध्याय नहीं है। कहने को वाम सितारे और काम-काज में दक्षिणपंथी नामवर सिंह तो हिन्दी संसार के इस सुसंगठित उद्योग के मसीहा ही रहे। बहरहाल, इसके विश्लेषण या व्याख्या और इसके संभावित जवाबों कि कोई किसी वरिष्ठ-बुजुर्ग-पितातुल्य विद्वान के लिए आस्था प्रदर्शित करता है तो किसी को क्या समस्या हो सकती है, आदि-आदि, के फेर में पड़ने के बजाय बार-बार दोहराई जाने वाली इस बात को याद करते हैं कि किसी हद तक क्रांति की तरह रहा आज़ादी के बाद का दौर प्रतिक्रांति के दौर में तब्दील हो चुका है। 

बेहतर सामाजिक-राजनीतिक बदलाव और बराबरी की चाहत के वलवले 1980 के बाद मंद पड़ते गए और जिन प्रतिगामी बातों को लेकर बुद्धिजीवियों को शर्मिंदगी महसूस हुआ करती थी, वे उनके आमाल में खुलकर नज़र आने लगीं। हिन्दी के बुद्धिजीवियों के एक तबके की ख़सलत यह रही कि उन्होंने प्रगतिशीलता के फल भी खाए और वे प्रतिक्रांति के फ़ायदे भी उठाने में भी पीछे नहीं हैं।

बहरहाल, विश्वनाथ त्रिपाठी के इस साक्षात्कार में बिस्कोहर गांव का उनका बचपन है जहां लोग और कुत्ते जूठन पर टूट पड़ते हैं, जहां `साधनहीन` बालक त्रिपाठी हैं जिनके पिता के पास ज़मीन है पर वे खेती बटाई पर कराते हैं, ख़ुद लोगों के यहां चोरी कराते हैं, डाके डलवाते हैं, पुलिस के लिए मुखबिरी करते हैं, बालक त्रिपाठी की ब्राह्मण जात पता चलने भर से लोग उसके पांव छूते हैं, उसका बस्ता सिर पर उठा लेते हैं जबकि कोई दलित बालक है तो उसकी जात पता चलते ही गालियां देते हैं। बिस्कोहर में पिता से मिले संस्कार हैं कि बालक त्रिपाठी छोटे-मोटे कारिंदों को या उनके परिवार से जुड़े आम लोगों को वे मुसलमान हों, हिन्दू हों, किसी कथित छोटी जात के हों, चाचा, काका, बाबा, बड़के दादा वगैराह संबोधनों के बग़ैर नहीं पुकारते हैं। 

`फ्यूडलिज़्म से कम्युनलिज़्म नहीं आता` लेकिन फ्यूडल परिवार के `सेकुलर` संस्कारों में पले बालक त्रिपाठी को नानाजी देशमुख ख़ुद आरएसएस का स्वयंसेवक बना देते हैं। त्रिपाठी जिले में अखिल विद्यार्थी परिषद की स्थापना करते हैं। अपने गांव में शाखा स्थापित करने का दायित्व निर्वाह करने पहुंचते हैं तो जैसा कि `सामंतवाद से साम्प्रदायिकता नहीं आती है` तो उनके सामंत परिवार के असर वाले क़रीब 70 मुसलमान लड़के उस खेल के लिए पहुंच जाते हैं जिसे त्रिपाठी को शाखा खोलने के लिए खिलाना है।

चूंकि `फ्यूडलिज़्म से कम्युनलिज़्म नहीं आता` सो सामंत के लड़के त्रिपाठी अपने गांव के मुसलमान लड़कों से सामंती रिश्तों की लिहाज़ रखते हुए शहर लौट कर संघ के ओहदेदारों को कह देते हैं कि चाहे जो सेवा दें लेकिन गांव में शाखा खोलने का काम उनसे नहीं होना है। चूंकि `फ्यूडलिज़्म से कम्युनलिज़्म नहीं आता`, `केपिटलिज़्म से आता है`, सामंत के लड़के त्रिपाठी आरएसएस की सेवा में इस तरह जुट जाते हैं कि ‘अटलजी`उन्हें पर्सनली जानते हैं, ‘अटलजी की मित्र` राजकुमारी कौल उन्हें मानती हैं। वे आरएसएस के लिए जेल चले जाते हैं, उसके लिए कविताई करते हैं।

बचपन में लोगों से पांव-छुआई का लाभ उठा चुके त्रिपाठी नौजवानी में ब्रह्मणवाद से मुक्त हो चुके हैं, संघर्षों में हैं और हर जगह उनके लिए ब्रह्मणवाद संपर्कों से रास्ते खुलते जाते हैं। बनारस में त्रिपाठी को संस्कृत के पं. रामसुरेश त्रिपाठी ख़ुद पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के घर ले जाते हैं। त्रिपाठी एमए की पढ़ाई के लिए सीधे प्रवेश प्रक्रिया में शामिल होने के बजाय द्विवेदी के घर जाकर उनके चरण स्पर्श करते हैं और बक़ौल त्रिपाठी उस समय भी हिन्दी की दुनिया में सूर्य जैसी हैसियत वाले द्विवेदी से संबंधों की शुरुआत होती है, उनकी कृपा से दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंच जाते हैं। उनके जीवन में पांव छूने-छुआने की यह `विशिष्ट परंपरा` तमाम आधुनिकताओं और वरिष्ठ प्रगतिशील-वाम आलोचक कहलाने लगने के बावजूद इस साक्षात्कार के रिलीज होने तक क़ायम है।

आरएसएस से मोहभंग की त्रिपाठी की कथा दिलचस्प है। इस बात का तीन बार ज़िक्र आता है। एक बार यह कि एक क्रांतिकारी द्वारा दी गई राहुल की किताब ने उन्हें बदला, एक बार यह कि “बनारस गया तो नामवर जी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे, नये साहित्य के संपर्क में आया।“एक बार यह कि किसी दोस्त सतीश बजाज से याराना हुआ, सिनेमा का शौक़ लगा, नंबर कम आए, कानपुर छूटा आदि-आदि…। सत्यनारायण कथा की तरह वे इस विषय पर गंभीरता से कुछ नहीं कहते। मान सकते हैं कि इस तरह एक के बाद एक बातों ने उनकी शख़्सियत को बदला। यह भी मान सकते हैं कि नामवर के संपर्क में उन्हें इल्म हुआ कि हिन्दी साहित्य में ज़माना फ़िलहाल प्रगतिशील मुद्रा का है। लेकिन, शायद यह कहना ज़्यादती हो। 

आख़िर, संघ में इतनी महत्वपूर्ण स्थिति में पहुंचकर वे उससे दूर हुए। अजीब यह है कि तमाम क़िस्से रस ले-ले कर सुनाने वाले त्रिपाठी भंवर मेघवंशी जैसे उन बुद्धिजीवियों की तरह कुछ भी नहीं बताते जो आरएसएस को छोड़ कर सेकुलर व सामाजिक बराबरी के अभियानों में सक्रिय हुए। त्रिपाठी इतने सचेत रहते हैं कि न आरएसएस के क़ब्ज़े वाले वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर कुछ बोलते हैं, न आरएसएस के बारे में कोई अप्रिय जेस्चर तक आने देते हैं। हां, उत्फुल्ल होकर वह कविता सुनाने लगते हैं जो उन्होंने कभी आरएसएस की तरफ़ से लिखी थी। इसमें आए `तपस्वी माधव आनन` शब्दों पर चहकते हुए रौशनी डालते हैं- “माधव आनन माने माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरु जी“। आख़िर, इस उत्फुल्ल प्रदर्शन के हर तरह फ़ायदे ही फ़ायदे हैं।

त्रिपाठी और शर्मा की `संगत` तुलसी पर बातचीत में देखते ही बनती है। त्रिपाठी की किताब `लोकवादी तुलसीदास` का उल्लेख करते हुए अंजुम शर्मा कहते हैं कि `ताड़ना` शब्द को लेकर काफ़ी बहस हुई। कहा गया कि तुलसी दलित विरोधी हैं, स्त्री विरोधी हैं। खिलंदड़ त्रिपाठी गंभीर हो जाते हैं। संभल-संभल कर, ठहर-ठहर कर बोलने लगते हैं कि तुलसीदास के समर्थन और विरोध का सवाल नहीं है। ऐसा होना नहीं चाहिए। फिर वे विवेक पर ज़ोर देते हैं। कहते हैं कि तुलसीदास कवि के रूप में बहुत बड़े कवि हैं, भक्त के रूप में बहुत बड़े भक्त। तुलसीदास जितने लोकप्रिय संसार के बहुत कम कवि होंगे लेकिन तुलसीदास अपने समय की, अपनी परिस्थितियों से सीमित हैं।

वे सामंत युग के कवि हैं। भक्ति फ्यूडल आइडयोलॉजी है। वे ईश्वर का रूप, अपने प्रिय का रूप सामंत के रूप में देखते हैं कि राम की सेवा करनी चाहिए। वे वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक हैं और आधुनिक समय से अपने विचारों में पीछे हैं। शूद्र, गंवार, पशु, नारी या तेली, कुम्हार, पिशाच लिखा है, हम यहां तुलसीदास की आलोचना करते हैं, विरोध करते हैं। लेकिन तुलसीदास की कविता और भक्त कवि, ये सब कुछ कह जाते हैं लेकिन वे कहते हैं `सबसे ऊंची भकत सगाई`। वे वर्णाश्रम व्यवस्था मानते हुए भी एक पंचम वर्ण भक्ति को सबसे बड़ा वर्ण मानते हैं कि आप चाहे जिस युग में हों, आप भक्त हैं तो सबसे बड़े हैं। तुलसीदास को इसी रूप में देखना चाहिए।

त्रिपाठी गंभीर मुद्रा में बेतुकी बातें करते जाते हैं। वही ब्राह्मणवादी ट्रिक कि कोई तर्क न हो तो भी बोलते जाओ, कहो कि असहमत हैं लेकिन जो हो, अराध्य यही हैं। अगर तुलसी अपने समय व परिस्थितियों से सीमित हैं तो वे कैसे बड़े कवि हैं? सामंत आइडियोलॉजी, समय की सीमा जैसे कुतर्क कब तक दोहराएं जाएंगे? त्रिपाठी ने नहीं पढ़ा कि तुलसी से पहले से ही कितने लोग ब्राह्मणवाद के विरोध में लिख रहे थे, संघर्ष कर रहे थे? तुलसी उसी ब्राह्मणवाद के पक्ष में हिंसा की हद तक जाकर बोल रहे थे जिसकी रक्षा में त्रिपाठी इतने लेकिन-वेकिन किए जा रहे हैं। फिर, पंचम वर्ण का शिगुफ़ा कि तुलसी को इसी रूप में देखना चाहिए। वे तुलसी की वैधता के लिए कबीर को खींच लाए- “हर बात हम स्वीकार नहीं कर सकते जैसे कबीरदास दलित कवि हैं, जुलाहा कवि हैं, कबीरदास ने जो नारी निंदा की है, उसे हम क्या स्वीकार कर लेंगे?“तुलसी भक्त सवर्ण प्रगतिशीलों की यह पुरानी अदा है कि वे तुरंत बार्गेनिंग पर उतर आते हैं। कबीर की जो भी आलोचना है, उसे क्यों नहीं किया जाना चाहिए और इसे ब्राह्मणवादी घृणा के सिद्धांतकारों का कवच क्यों बनाना चाहिए?

तुलसी से असहमति के नाटक की लफ़्फ़ाज़ी को अंजुम सवालों में नहीं लाते, इससे संतुष्ट होते हुए कहते हैं कि आलोचकों को इसका पहले ही ध्यान रखना चाहिए था, ये बातें तब उठ रही हैं जब लोगों ने इसकी आलोचना करनी शुरू की। त्रिपाठी कह देते हैं, बिल्कुल रखना चाहिए था। 

शर्मा और त्रिपाठी ने मिलकर मामला सेट कर लिया जबकि त्रिपाठी जानते हैं कि तुलसी के यहां किसी एकाध दोहे या चौपाई को लेकर समस्या नहीं है। इस बारे में समग्रता से लिखा जाता रहा है कि तुलसी के यहां यह एक पूरा राजनीतिक मसला है, पक्षधरता का जिस पर ब्राह्मणवाद की पुनर्प्रतिष्ठा का अभियान टिका है और जिससे आज का फ़ासीवाद भी आधार पाता है। अम्बेडकरवादी आलोचक कंवल भारती और मार्क्सवादी आलोचक जवरीमल्ल पारख भी इस बारे में विस्तार से लिख चुके हैं। इस दृष्टि से तुलसी पर मुक्तिबोध की एक टिप्पणी तो चर्चित है ही।

विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी `जाति श्रेष्ठता` और इसके वर्चस्व के लाभ को जानते हैं। तुलसी का सवाल आया तो एक-एक शब्द तौल-तौल कर बोलते हैं। बाक़ी, `केयरलेस-केयर` वाले अंदाज़ में कि लापरवाह-मस्त से, कभी सेंटी होकर रोते-हंसते हुए लेकिन पूरी तरह जानते-बूझते इस तरह बातें करते हैं कि उन्हें `सूफ़ी` की तरह लिया जाए जिसने दिल खोलकर रख दिया है। उनकी बातों में कोई अफ़सोस या द्वंद्व नहीं मिलेगा, न जीवन और करियर में वे उन विचारों में ज़रा भी आगे बढ़े मिलेंगे जो उनके पिता को उस ग्रामीण जीवन में बाहुबली होने का प्रिविलेज देते थे और जो `आधुनिक समय` में ख़ुद उन्हें श्रद्धेय-पूज्य बनाए रखते हैं।`

‘मैं उन अज्दाद का बेटा हूं जिन्होंने पैहम अजनबी क़ौम के साए की हिमायत की है“, जैसी जो बेचैनी साहिर के यहां हैं, त्रिपाठी में उसकी झलक तक न मिलेगी। वे जानते हैं कि कुछ चटखारे वाली बातें आपत्तिजनक भी हों तो भी उनकी रक्षा द्विजों का कर्तव्य हो जाएगा। इस साक्षात्कार पर लाहलोट हो रहे लोगों की चेतना और विवेक पर तरस ही खाया जा सकता है। यहां तक कि पत्नी और प्रेमिकाओं को लेकर छिछले विश्लेषणों और निर्लज्ज व्याख्याओं को सबसे ज़्यादा सेलिब्रेट किया जा रहा है।

यहां अंजुम शर्मा की वह सेंसेबिलिटी नतमस्तक हो जाती है जो विष्णु नागर के साथ बातचीत में मुखर हो उठी थी। नागर से बातचीत में उनकी फेसबुक पोस्ट से ली गई उनकी कविता का ज़िक्र करते हुए अंजुम स्त्रियों को लेकर फूहड़ होने पर चिंता जताते हैं। वे पढ़कर सुनाते हैं-“स्त्री से बड़ा कोई आलोचक नहीं होता/उसके आगे नामवर सिंह तो क्या/रामचंद्र शुक्ल भी पानी भरते हैं/अब ये इनका सौभाग्य है कि/पत्नियों के ग्रंथ मौखिक होते हैं/कहीं छपते नहीं“। 

नागर इस कविता के बारे में कहते हैं कि वैवाहिक जीवन के भी सत्य होते हैं। पत्नी को भी ऊब होती है। वह आलोचना के तरीक़े से देखती है। वे समझने के लिए पूछते हैं कि आपको यह फूहड़ लगी तो अंजुम स्त्रियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता याद दिलाते हुए कहते हैं कि सस्ते चुटकुले को सभ्य भाषा में ऐसे कहा जाएगा। नागर कहते हैं कि हो सकता है ऐसा हो। वे इस बारे में सोचेंगे। वे कहते हैं कि स्त्रियों और दलितों के लेखन से वे हमेशा सीखने की, संवेदनशील होने की कोशिश करते हैं।

तमाम कोशिशों के बावजूद भीतर का पुरुष अभिव्यक्ति पा सकता है। अंजुम पूछते हैं कि क्या यह कविता नामवर सिंह और शुक्ल पर कमेंट है। जाहिर है कि ग्रामीण परिवेश से आए बहुत से हिंदी विद्वानों ने जिस तरह अपनी पत्नियों के साथ संवेदनहीन बर्ताव किया, उसे देखते हुए इस कविता यह भी एक अर्थ निकलता ही है। नागर ने विनम्रता से कहा कि है कि यह एक चीज़ भी घुली-मिली है लेकिन स्त्री को लेकर एक चीज़ है, इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।

विश्वनाथ त्रिपाठी की स्त्रियों को लेकर लिजलिजी व्याख्याओं पर अंजुम शर्मा की इतनी श्रद्धा क्यों उमड़ पड़ती है कि वे एक प्रोफेशनल कार्यक्रम में चरण-स्पर्श का प्रदर्शन करते हैं? क्या वे निशाना और आस्था राजनीतिक आधार पर चुनते हैं? क्या इसलिए कि विष्णु नागर ब्राह्मण पृष्ठभूमि से ज़रूर आते हैं लेकिन वामपंथ और सामाजिक बराबरी के सवालों को लेकर अपेक्षाकृत गंभीर हैं जबकि त्रिपाठी पर मार्क्सवादी आलोचक की तोहमत ज़रूर है लेकिन इस संगत की तरह उनकी बातें ब्राह्मणवादियों के सर्वथा अनुकूल रहती हैं? इस दृष्टि से उनके कुछ और सवालों व पक्षधरताओं पर बाद में बात करने से पहले `संगत` से त्रिपाठी के कुछ उद्गार देख लेते हैं-

“…और ख़ूब प्रेम करता था, मैं अपनी पत्नी से।…प्रेम कुछ एकाध से हुए हैं, उनका वियोग नहीं सह पाया हूं मैं। जैसे अपनी पत्नी का ही। पत्नी तो प्रेमिका नहीं होती। पत्नी तो प्रेमिका भी होती है, पत्नी भी। प्रेमिका अलग होती है। बड़ा फ़र्क़ होता है जो मैं कह रहा हूं…। पत्नी तो जैसे महाकाव्य होती है, जीवन।… प्रेमिका जैसे कोई शेर है, कोई मुक्तक। ग़ालिब का शेर है कोई। ऐसे प्रेमिका होती है। कुछ देर के लिए बड़ी शिद्दत होती है। बड़ी तक़लीफ़ होती है यार, प्रेम-व्रेम करने के चक्कर में पड़ना नहीं चाहिए आदमी को। बहुत वाहियात चीज़ है। सचमुच, …कन्ज्यूमिंग, यश-अपयश, पैसा, टाइम और आदमी का कलेजा निकल गया साला। गालिब का शेर है न तेरे वादे पे जिये हम..। लगता ही नहीं कि वो मिलेगी। लगता है कि अब नहीं मिलेगी गई।“

यहां अंजुम शर्मा सवाल के बहाने टोकते हैं। हो सकता है, अपने श्रद्धेय के अश्लील होते जाने की आशंका से उन्हें बचा रहे हों। त्रिपाठी कहते हैं, टोक दिया, लिजलिजा हो रहा था। अंजुम पूछते हैं कि बीच में एक दौर आया जिसे आप विचलन का दौर कहते हैं। लोगों ने आपके बारे में तरह-तरह की बातें कहनी शुरू कीं। क्या उस दौर की सीख ने ने जीवन को सार्थकता प्रदान की? त्रिपाठी कहते हैं, “बहोतl“ फिर वापस उसी अंदाज़ में शुरू हो जाते हैं कि मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं। दो बातें। एक तो बड़ी समझदार होती हैं लड़कियां, कई बड़ी चालाक और समझदार होती हैं।

एक आदमी जिस बात को एक घंटे में समझेगा, लड़की वो एक-दो सेकंड में समझती है। बस में सफ़र कर रहे हैं, कहां उतरना है, उतरते समय कौन देख रहा है, ये सब चीज़ें आदमी के बस में नहीं, पिटाई हो जाती है आदमी की। लड़की जानती है क्योंकि उसे चौबीसों घंटे सतर्क रहना पड़ता है। जैसे ही वो 13 साल की होती है, मां-बाप, चाचा, काका, नाना, सब उसको देखते रहते हैं, ताड़ते रहते हैं। उसकी लाइफ में बन गया है कि ऐसे रहना चाहिए। वो मारती है कि जहां फिर आप बच नहीं सकते। वो जानती है सब कुछ। ये मैंने अक़्ल हासिल की।

मुझे मारा नहीं बचाया, बहुत इज़्ज़त है मेरे मन में उस लड़की के लिए और संबंध है मेरा। बहुत लकी था मैं इसे बारे में। लेकिन पत्नी का कोई जवाब नहीं। प्रेमिका पत्नी का पर्याय नहीं बन सकती। देखिए, आप अच्छे कपड़े पहनकर, इतर-उतर लगाकर बाज़ार में घूम रहे हैं, रस्ते में खाना खा रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं; और आपको कफ़ आ रहा है, पेट ख़राब है, बदबू कर रहे हैं, नाक से मैल.. पत्नी साथ देती है। आप बच्चे हो जाते हैं।

शर्मा-त्रिपाठी की इस `संगत` पर भरपूर वाहवाही के माहौल के बीच हिन्दी कवि रूपम मिश्र ने इस साक्षात्कार का एक टुकड़ा फेसबुक पर शेयर करते हुए एतराज़ दर्ज़ किया तो कई प्रखर महिलाओं ने त्रिपाठी को लेकर तीखी टिप्पणियां कीं। नीलिमा चौहान ने विश्वनाथ त्रिपाठी की तुलना बिना सिंदूर वाली स्त्रियों को खाली प्लॉट बताने वाले कथित संत बागेश्वर से की। उन्होंने लिखा, “इतनी पढ़ाई इतनी विद्वत्ता के बावजूद वे प्रतीक हैं भीतर। क्या लाभ ऐसी विद्वत्ता का? कोई जाहिल प्लॉट कह देता है स्त्री को तो कोई विद्वान शेर, मुक्तक, महाकाव्य।“ उनसे सहमति जताते हुए रूपम ने कहा, “जी जो लोग लहालोट हो रहे हैं इस अंश पर वो उनकी समझदारी है मुझे तो इस अंश से घोर असहमति है।“

वंदना चौबे ने लिखा, “ये पत्नी-प्रेमिका का मसला तो जो है सो है ही। दरअसल, यह पूरा मसला ही संपत्ति-सम्बन्ध और उससे बनती पितृसत्ता का है। रूपम ने लिखा, “ये एकदम अजीब बात है, आप पत्नी-प्रेमिका को दो ध्रुवों पर रख रहें हैं लेकिन सच तो है कि दोनों एक ही ज़मीन पर खड़ी होती हैं । पत्नी महाकाव्य ही होती हैं तो उसी में रमे रहते छिटपुट शेर, छंद पर कलेजा क्यों निकालते रहते हैं लोग, जीवन भर? अगर पढ़े-लिखे, ज़हीन, वरिष्ठ, ज़िम्मेदार लोग प्रेम या प्रेमिका को लेकर इस तरह की सतही बात कर रहे हैं तो मोबाइल के रीचार्ज का रोना रोने वाले लड़कों और इस तरह के महापुरुषों में अंतर क्या है?“ अर्चना लार्क ने कहा, “जब पत्नी ही सबकुछ होती है तो प्रेम भी उसी से होना चाहिए। पत्नी, प्रेमिका भी तो हो सकती है, इस दृष्टिकोण से क्यों नहीं देखा जाता! बाहर किसी पर आसक्त होने की फिर नौबत ही न आए और न कलेजा मुंंह को आए और न प्रेम को वाहियात ही कहा जाए, पैसा, यश-अपयश घर में ही पत्नी तक ही रह जाए..!“ रूपा गुप्ता ने टिप्पणी की,“…आदमी किसी भी उम्र का हो, किसी भी पेशे, पद, रंग, जाति या धर्म का हो, पत्नी के होते हुए भी वह ऐसी वाहियात बात करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। उसने इस बात को सार्वजनिक रूप से इतना अधिक स्थापित कर दिया है कि किसी को अजीब भी नहीं लगता।“

रूपम मिश्र की पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियों के बाद ही मैंने विश्वनाथ त्रिपाठी के इस इंटरव्यू को देखा और `संगत` सीरीज में ही विष्णु नागर व राजेश जोशी के इंटरव्यू देख कर कुछ बातें समझने की कोशिश कीं। अंजुम लेखकों से जुड़े रहे विवादों पर चर्चा छेड़ते हैं। त्रिपाठी के 2018 के कारनामे से भी वे ज़रूर परिचित रहे होंगे, जिस पर उन्होंने कोई चर्चा नहीं की। गौरतलब है कि पाखी पत्रिका के ‘टॉक-ऑन टेबल` स्तंभ के लिए उनके साथ बातचीत में पत्रिका के संपादकीय मंडल के अपूर्व जोशी व प्रेम भारद्वाज के साथ मदन कश्यप, अल्पना मिश्र, कुमार अनुपम और दाताराम चमोली शामिल थे। भयानक विवाद की वजह बनी उस बातचीत का एक अंश इस तरह था-

“विश्वनाथ त्रिपाठी: सौंदर्य को देखकरआदमी क्रूर भी हो सकता है। आदमी दो साल की लड़की को देखकर ‘रेप` की भावना से भर सकता है।

अल्पना मिश्र: यह तो विकृति है।

अपूर्व जोशी: मानसिक रुग्णता है।

विश्वनाथ त्रिपाठी: उस विकृति को पालने के लिए सौंदर्य उपासक होने की जरूरत है।“

त्रिपाठी की थू-थू हुई थी तो वरिष्ठ मार्क्सवादी आलोचक होने से लेकर सीधे-सादे होने जैसे तमाम हवाले दिए गए थे और प्रचारित किया गया था कि उन्हें बदनाम करने के लिए बातचीत को हेरफेर करके प्रकाशित किया गया है। सच्चाई यह थी कि रिकॉर्डिंग सुनने के बाद पता चलता था कि त्रिपाठी ने यही सब फरमाया था।

विष्णु नागर से बातचीत में अंजुम शर्मा एक अजीब सवाल पूछते हैं, “कुछ शब्द हैं जो बार-बार आते हैं जिनमें बाज़ार है, भूमंडलीकरण है, क्या ये शब्द या अल्पसंख्यक या मुसलमान, एक कविता भी आपकी है, संग्रह में। क्या ये शब्द डालना इतना ज़रूरी है कि लगता है कि इनके बिना कविता पूरी ही नहीं हो सकती या संग्रह पूरा ही नहीं हो सकता? या ये पत्रकारिता का प्रभाव है?“

सवाल का स्ट्र्क्चर इतना हैरान करने वाला है लगता है, मानो सरकार की कोई एजेंसी कवि को कठघरे में खड़ा कर रही हो कि अल्पसंख्यक या मुसलमान के बारे में लिखे बिना क्यों तुम्हारा काम नहीं चलता। यहां तक कि तुम्हारी तो एक कविता ही है `क्योंकि मैं एक मुसलमान हूं`।

राजेश जोशी के साक्षात्कार में अंजुम शर्मा के सवालों और उनकी पॉजिशनिंग से लगता है कि नागर से किए गए सवाल में उनके लिए मुख्य समस्या मुसलमान ही थे। राजेश जोशी से भी कविताओं में भोपाल के मुस्लिम चरित्र बहुत ज़्यादा आने पर सवाल किया जाता है और फ़ेहरिस्त पेश करते हुए पूछा जाता है,`

‘क्या साम्प्रदायिकता के लिए या देश साम्प्रदायिक हो रहा है, यह दर्शाने के लिए आपको मुस्लिम चरित्रों को उठाना ज़रूरी था? ये काम तो हिन्दू चरित्र उठाकर भी किए जा सकते थे।“

क़ायदे से तो एक सवाल साक्षात्कारकर्ता से ही बनता था कि देश के वर्तमान परिदृश्य और उसमें मुसलमानों के हालात को लेकर वे क्या महसूस करते हैं। राजेश जवाब देते हुए हिन्दी वालों की एक दुखती रग को भी छेड़ देते हैं। वे कहते हैं, “आप सोचिए कि हिन्दी का यह दुर्भाग्य है कि पूरा विभाजन हो गया, उसमें सिर्फ़ पंजाब के…लेखक क्यों विभाजन पर लिखते रहे? क्यों उत्तर भारत के हिन्दी के लेखकों ने विभाजन पर एक लाइन भी नहीं लिखी?

ऐसा क्यों हुआ, आपके लिए तो पूरा देश एक है, पूरी यूनिट है? मेरे लिए मेरठ में जो दंगा होगा, वो मुझे तक़लीफ़ देना चाहिए और मुझे उस पर लिखना चाहिए। उसका विरोध करना चाहिए, कम से कम। पूरे उत्तर भारत में, बिहार में जो इतने पास थे, इनमें कहीं कोई एक कविता नहीं। सिर्फ़ अज्ञेय की 11 कविताएं मिलती हैं, क्योकि उनके रिश्ते लाहौर से थे। हालांकि, कमज़ोर कविताएं हैं, इसलिए उन पर बहुत कम ध्यान गया। फिर भी उनके यहां हैं। पर, इतने सारे प्रग्रेसिव मूवमेंट, 36 से लेकर 52 तक, उसमें कहीं नहीं।“

यह मसला एकाध लेखक ही उठाते रहे हैं और हिन्दी की मुख्यधारा इस सवाल से उखड़ती रही है। अंज़ुम ने प्रतिवाद किया कि इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जो यथार्थ है, उसका स्रोत उपलब्ध सूचनाएं न होकर जो व्यक्ति का अनुभव है, उसको बनाया जा रहा हो। राजेश ने सवाल किया कि ऐसा क्यों होना चाहिए? एक देश जिसमें आप रह रहे हैं, वह एक यूनिट है, वो एक छोटी सी चीज़ नहीं है। अंजुम ने कहा कि वे इसका काउंटर…लीलाधर जगूड़ी की बात से करेंगे कि जब केदारनाथ की त्रासदी हुई, हिन्दी में किसी ने नहीं लिखा। जब 84 हुआ, भोपाल त्रासदी हुई तो सबने लिखा। भोपाल भी उसी देश में है, केदारनाथ भी उसी देश में है। एक में हिन्दी के कवि चुप रहे, एक में हिन्दी के कवि बोले। ऐसा क्यों है?

जगूड़ी ने यह बात कही होगी तो पता नहीं कि अंजुम ने उन्हें याद दिलाया होगा या नहीं जिन नीतियों को केदारनाथ की आपदा के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है, जगूड़ी उन नीतियों का विरोध करने वालों के हमलावरों को सम्मानित कर रहे थे। उनके उस विराट होटल जो उस आपदा में ध्वस्त हुए था, को कवि का मेहनत से बनाया घर बताते हुए मंगलेश डबराल ने भावातिरेक में मार्मिक टिप्पणी भी लिखी थी। इस आपदा के तुरंत बाद ख़ुद जगूड़ी किन यात्राओं पर निकल रहे थे, इसके लिए समयांतर का जुलाई 2013 अंक तलाश कर पढ़ा जा सकता है।

बहरहाल, राजेश जोशी ने पुख़्तगी से कहा कि इस तरह से चीज़ों को देखना ग़लत है। कुछ घटनाएं पूरे समाज को विचलित करती हैं, पूरे समाज की संरचना को कहीं न कहीं विभाजित करती हैं। विभाजन एक छोटी घटना नहीं है। विभाजन ने हमारे पूरे मुल्क को विभाजित कर दिया, हमारी पूरी संरचना को बिगाड़ दिया। इसलिए कहीं बाढ़ आई है, उस पर मैंने नहीं लिखा, कहीं भूकंप आया लातौर में, सिर्फ़ मंगलेश डबराल ने क्यों लिखा, दूसरों ने क्यों नहीं लिखा, ये चीज़ें बहुत ही छोटी मतलब लोकेलाइज चीज़ें हैं। अगर बड़ी घटना हो रही है, उस पर आप चुप हैं, जो देश को विभाजित कर रही है, वो आप को कैसे विचलित नहीं कर रही है, जो समय को विभाजित कर रही है जो तमाम चीज़ों को विभाजित कर रही है।

अंजुम फिर मुस्लिम चरित्रों पर लौटे, “जब आप मुस्लिम चरित्र अपनी कविताओं में उठा रहे होंगे, अपने आसपास किसी मुस्लिम को देख रहे होंगे, किसी हिन्दू को देख रहे होंगे, आपके दिमाग़ में उस थीम पर लिखने के लिए वो थीमेटिक कविताएं चल रही होंगी तो बहुत सारी चीज़ें आसपास से ओझल हो जाती होंगीं और आप उसी चीज़ को देखने की कोशिश कर रहे होंगे, तो वहां पर कवि किस चीज़ को देखता है, किस चीज़ को छोड़ता है? क्या वो न्याय कर पाता है?“

जाहिर है, सवाल में आरोप है कि मुसलमान चरित्रों को देखते हुए एकतरफ़ा लिखा जाता है। अंजुम शर्मा ने कविताओं में विचारधारा की वजह से आने वाले विद्रोही स्वर को भी समस्या बताया कि इस तरह पूरे समाज का बहिष्कार कर दिया जाता है। मुसलमान, विचारधारा, विद्रोही स्वर आदि को लेकर अंजुम के सवालों के ख़ास पैटर्न और स्टैंड से सवाल उठता है कि क्या इस सीरीज का कोई वैचारिक-राजनीतिक एजेंडा है जिसके आधार पर हिन्दवी की टीम सवाल तैयार करती है या हिन्दवी की टीम के पीछे भी कोई और है।

राजेश जोशी के साक्षात्कार से यह भी साफ़ हुआ कि वाम-प्रगतिशील सफ़ से जुड़े रहे बुद्धिजीवी किसी बहस में तभी कमज़ोर पड़ते हैं जब उनके अपने विचलन आडे़ आ जाएं या जाति-संस्कार। मसलन तुलसी तो राजेश जोशी के लिए भी क्रांतिकारी ही ठहरे। मुसलमानों और देश के विभाजन जैसे मुद्दों पर राजेश जोशी ने गंभीरता से बात रखी लेकिन `आज तक` चैनल के कार्यक्रम में शामिल होने के सवाल पर वे बेहद पैथेटिक नज़र आए। अंजुम ने चैनल का नाम लिए बिना पूछा कि जलेस से जुड़े होते हुए भी उन्होंने दिल्ली में बहुत ही पॉपुलर और बहुत ही कमर्शियल कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज करानी कैसे शुरू कर दी।

राजेश ने इसकी वजह मदन कश्यप को बताया जिनका कहना था कि इस तरह तो फेसबुक का भी विरोध करना होगा। नहीं तो चैनल का विरोध किस तरह से करेंगे? अंजुम और राजेश दोनों ही इस बात को गोल कर गए कि चैनल का अपने कार्यक्रमों के जरिए साम्प्रदायिक अभियानों में भागीदार होना बड़ा मसला था और यह पुराने समय के विवादों-बहसों से अलग बात थी। मदन कश्यप के हवाले से राजेश जोशी ने यह भी कहा कि चैनल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

जरा भी रेशनल बात करने वालों को स्टूडियो में बुलाकर ज़लील करने के एंकरों के तौर-तरीक़े इन कवियों ने शायद देखे नहीं होंगे और राजेश जोशी को शायद यह अहसास भी नहीं होगा कि वे हिन्दवी के `संगत` मंच को भी राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर सवाल खड़े करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर पाए, उलटे, हिन्दवी ने ही उन्हें इस्तेमाल किया। राजेश ने कहा कि उनका किसी भी कार्यक्रम के संदर्भ में कोई इंटरेस्ट नहीं रहा क्योंकि वे साहित्यिक मूवमेंट से नहीं बल्कि ट्रेड यूनियन और पॉलिटिकल मूवमेंट से आए थे। 

यह बात अलग है कि हिन्दवी के साक्षात्कार में वे आज के हालात पर एक पॉलिटिकल एक्टिविस्ट राइटर वाले सवाल उठा ही नहीं पाए। हो सकता है कि इस बारे में साक्षात्कार शुरू होने से पहले ऐसा कोई निवेदन किया जाता हो या प्रगतिशील विचारक-लेखक `संगत`के फॉर्मेट में फंस जाते हों। अलबत्ता, प्रगतिशील और सेकुलर मूल्यों को कठघरे में खड़े करने वाले सवाल तो राजेश से भी किए ही गए। यह भी दिलचस्प था कि चैनल के कार्यक्रम से जुड़ा विवाद तो अंजुम शर्मा को याद रहा लेकिन उन्होंने राजेश जोशी के लिए ज़्यादा बड़ी मुश्किल बने उनके `बद्रीनारायण प्रेम` को छुआ तक नहीं। क्या इसलिए कि बद्रीनारायण को लेकर सवाल उठाना आयोजकों के राजनीतिक-वैचारिक एजेंडे के भी अनुकूल न पड़ता हो?

( धीरेश सैनी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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