हिंदी दिवस विशेष: आधुनिक खड़ी बोली को ‘बभनौटी’ की हिंदी कैसे बनाया गया ?

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भाषा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने मूल रूप में वह वर्ग, वर्ण, लिंग और धर्मनिरपेक्ष होती है, लेकिन वर्चस्वशाली समूह उसका इस्तेमाल वर्ग, वर्ण, लिंगगत और धर्मगत वर्चस्व के लिए करते हैं।

हिंदी भाषा अपने जन्म और विकास में जितनी भी वर्ग, वर्ण, लिंग और धर्मनिरपेक्ष रही हो, लेकिन आधुनिक खड़ी बोली अपने जन्म के साथ ही वर्चस्व की भाषा के रूप में सामने आई। सरकारी कामकाज, औपचारिक शिक्षा, अकादमिक जगत और साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा बनते ही, कमोवेश द्विजों (जनेऊधारियों) ने इस पर नियंत्रण कर लिया और इसे वर्ण-जाति वर्चस्व, वर्गीय वर्चस्व, लिंगगत वर्चस्व और धार्मिक वर्चस्व की भाषा बना दिया।

आधुनिक हिंदी खड़ी बोली के अंतर्वस्तु और रूप दोनों मामलों में निम्न तरीकों से ‘बभनौटी’ की हिंदी बनाया गया-

1. उर्दू शब्दों, उसकी शब्द संपदा के फारसी-अरबी शब्दों को बाकायदा अभियान चलाकर सचेत तौर पर हिंदी शब्द संपदा से बाहर करना। सार रूप में कहें तो अमीर खुसरो की पूरी तरह एक दूसरे में गुथी साझी परंपरा को खत्म करने का अभियान चलाकर।

    इस प्रक्रिया में मुसलानों को हिंदी की परंपरा से बाहर करना और हिंदी को हिंदुओं की भाषा बना देना। न केवल रूप के तौर पर बल्कि सार रूप में भी।

    केवल उर्दू के शब्द गायब नहीं हुए या सिर्फ उर्दू के शब्दों को बाहर नहीं किया गया, अमीर खुसरो, मीर,गालिब और मुहम्मद इकबाल जैसे महान कवि भी हिंदी की विरासत से बाहर कर दिए गए।

    बात यहीं नहीं रूकी, आधुनिक खड़ी बोली वालों को धीरे-धीरे ‘म्लेच्छों’ की भाषा उर्दू से नफ़रत की ओर ढकेल गया।

    2. हिंदी को देवभाषा संस्कृत की बेटी कहकर उसे पाली, प्राकृत और अपभ्रंष से जहां तक संभव हो काट कर अलग कर देना। इसका मतलब था कि हिंदी को आजीवक, बुद्ध, जैन यानी गैर-वैदिक विरासत से पूरी तरह अलग कर उसे पूरी तरह श्रमण-बहुजन परंपरा से काट देना। हिंदी को संस्कृत के बेटी के रूप में उसे पूरी तरह आर्य-ब्राह्मणवादी, वैदिक-सनातन परंपरा का वारिस बना देना। जिसमें श्रमण-बहुजन परंपरा के तत्व पूरी तरह से बाहर हो जाएं या उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर रहे।

    देवभाषा की संस्कृत की बेटी को भी पवित्र देवी बनान के लिए मुसलमानों और श्रमण-बहुजनों से इसको अलग करना जरूरी था। नहीं तो उसकी पवित्रता नष्ट हो जाती।

    सिर्फ पाली और प्राकृत को भाषा के तौर पर गायब नहीं किया गया, इन भाषाओं में लिखा सारा साहित्य भी आधुनिक खड़ी बोली की विरासत के दायरे से गायब कर दिया गया। आजीवक साहित्य, बौद्ध साहित्य और जैन साहित्य की समृद्ध साहित्य की विरासत को ही गायब कर दिया गया। जैसे रामकथा का संस्कृत जिस रूप में प्रस्तुत है, उसे पढ़ाया गया। लेकिन बौद्ध और जैन साहित्य में उसका क्या रूप है, से पाठ्यक्रम रखने और पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं समझी गई।

    3. हिंदी की बोलियों से उसे जितना संभव हो आधुिनक खड़ी बोली से अलग कर देना। आधुनिक खड़ी बोली जब एक बार खुद को संस्कृत की बेटी घोषित कर लिया, तो उसके लिए यह अनिवार्य और अपरिहार्य हो गया कि वह खुद संस्कृत की सम्पदा से समृद्ध करे। बोलियां खड़ी बोली को भदेस और गंवारु लगती हैं। क्योंकि ‘गंवार’ लोग उसे बोलते हैं। गंवार कौन थे और हैं, हिंदी पट्टी के मेहनतकश गरीब-गुरबा लोग।

    इस तरह ‘गँवारों-भदेसों’ की बोलियों ( भोजपुरी, ब्रजी, अवधी आदि) के ‘गंवारपन’ से आधुनिक खड़ी बोली को मुक्ति दिलाई गई।

    आधुनिक खड़ी बोली हिंदी सिर्फ बोलियों से शब्द लेना ही नहीं छोड़ा, बल्कि बोलियों से जीवन-रस और जीवन-यथार्थ लेना भी बंद कर दिया। धीरे-धीरे वह एक अमूर्त भाषा बनती गई, जिसमें जीवन के ठोस चित्र कायम होते गए। प्रेमचंद और रेणु जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो।

    दलित-बहुजन इन बोलियों से शब्द और रस लेकर जो कुछ लिख रहे थे, उसे तो आधुनिक खड़ी बोली ने अपना माना ही नहीं। चाहे अछूतानंद हों, जिज्ञासु हों या आज की तारीख में कंवल भारती और मोहन मुक्त जैसे लोग हों। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।

    हां कुछ दलित आत्मकथाओं को स्वीकार करना पड़ा। दलित साहित्य के एक कोने के तौर पर। मुख्य धारा के साहित्य में उसकी स्वीकृति नहीं है।

    पाली-प्राकृत, उर्दू और बोलियों से काटकर इस आधुनिक खड़ी बोली को ‘शुद्ध’ और ‘पवित्र’ कर देव भाषा संस्कृत की शुद्ध और पवित्र बेटी बनाया गया और आधुनिक खड़ी बोली हिंदी को बभनौटी की हिंदी बनाने की प्रक्रिया का प्रथम चरण पूरा हुआ।

    कैथी लिपि की जगह देवनगारी लिपि का चुनाव

    भाषा के स्तर पर यह काम पूरा हो जाने के बाद बारी लिपि की थी। कैसे उस समय खूब प्रचलित और स्वीकृत कैथी लिपि देवभाषा की बेटी हिंदी की लिपि होती। इसके लिए लिपि भी तो देव वाली ही होनी चाहिए। उस समय के लिपि संबंधी बहसों से ऐसा लगता है, जैसे देवभाषा की बेटी हिंदी के लिए लिपी नहीं वर (दूल्हा) तलाश किया जा रहा हो। फिर नगरी चुनी गई। नागरी से भी काम नहीं चल रहा था। देव होना चाहिए। उसे देवनागरी कहा गया। बद्री नारायण उपाध्याय ‘प्रेमघन’ ने देवनागरी को बभनी लिपि कहा है। मतलब ब्राह्मणों की लिपि। ये तो होना ही था। भू देवता तो ब्राह्मण ही हैं। इस तरह सबकी हिंदी को बभनौटी की हिंदी बना दिया गया।

    इस काम को विश्वविद्यालयों, अकादमिक जगत, साहित्यिक जगत, सरकारी काम-काज और कचहरियों में पूरी तरह वर्चस्वशाली द्विजों (जनेऊधारियों) ने अंजाम दिया। इस आधुनिक खड़ी बोली इस अंजाम तक पहुचाने में घोषित दक्षिणपंथियों की बहुत कम भूमिका रही है। इस काम भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, प्रताप नाराणय मिश्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि के नेतृत्व में अंजाम दिया गया। हां विद्यानिवास मिश्र जैसे लोगों की भूमिका भी रही है। कवियों में करीब-करीब सभी बड़े कवि शामिल रहे हैं। जिसमें निराला जैसे महाकवि भी शामिल हैं। मुक्तिबोध भाषा के स्तर पर इससे बिलकुल ही बाहर नहीं निकल पाए। उनके विषय-वस्तु में भी उर्दू विरासत, पाली-प्राकृत और बोलियों की विरासत की कोई उपस्थिति नहीं हैं।

    फिलहाल तो अभी आधुनिक खड़ी बोली हिंदी मुख्यत: जनेऊधारी वैचारिकी, मूल्यों, पंरपरा और जनेऊधारी लेखकों के ही चंगुल में है, जिसे बभनौटी कहते हैं। इनके चंगुल से निकालकर और उसे आधुनिकता की वाहक उर्दू, बोलियों और बहुजन-श्रमण पंरपरा से जोड़कर कर ही उसे आधुनिकता का वाहक बनाया जा सकता है और गोबर पट्टी या काऊ पट्टी को आधुनिकता का केंद्र बनाया जा सकता है और हिंदी को फिर से सबकी हिंदी बनाया जा सकता है, जो वह आधुनिक काल यानी हिंदी के पर्याय के रूप में खड़ी बोली को स्थापित करने से पहले थी।

    (डॉ. सिद्धार्थ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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