भारत में जीडीपी के आंकड़े सरकार और एजेंसियों के लिए एक आश्चर्यजनक उत्साह जगाने वाले हैं। 2022-23 की चौथी तिमाही के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 5.1% की विकास का अनुमान लगाया था, जो वास्तव में 6.1% हुआ है। इस खबर से उद्योग एवं वित्तीय जगत में उत्साह का जबर्दस्त संचार देखने को मिल रहा है, और इसे भारतीय अर्थव्यस्था की मजबूती के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है, विशेषकर जब वैश्विक अर्थव्यस्था के मंदी में जाने का संकट सामने दिखाई दे रहा है।
सांख्यकीय मंत्रालय ने अपनी रिलीज में कहा है कि 2011-12 के मूल्य को आधार मानते हुए 2022-23 वित्तीय वर्ष में जीडीपी का स्तर 160.06 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। पिछले वर्ष 21-22 में यह आंकड़ा 149.26 लाख करोड़ रूपये था। कुल मिलाकर 22-23 की जीडीपी वृदि दर 7.2% आंकी गई है, जबकि पिछले वर्ष यह 9.1% थी। कई अर्थशास्त्री 2023-24 के लिए जीडीपी वृद्धि दर के 6.1% रहने का अनुमान लगा रहे हैं, जबकि आरबीआई एवं सरकार को 6.5% विकास दर का भरोसा है। विश्व बैंक ने भी अप्रैल माह में अपने अनुमानों में सुधार कर भारत के लिए 6.3% की जीडीपी वृद्धि को अनुमानित किया है।
लेकिन क्या जीडीपी बढ़ोत्तरी वास्तव में किसी देश के विकास की द्योतक है? देश में वस्तुओं के दाम बढ़ने पर भी जीडीपी में वृद्धि दर्ज हो जाती है। इसमें भले ही देशवासी पहले की तुलना में कम खपत करें, लेकिन आंकड़ों में मौसम गुलाबी बना रहता है। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें सकल आय और व्यय को रखा जाता है। ऐसे में सरकार यदि युद्ध और हथियारों या ब्याज चुकाने पर ही बड़ी राशि खर्च करे, या आय का बड़ा हिस्सा चंद प्रतिशत के ही हिस्से में जा रहा हो, तो वह बहुसंख्यक आबादी की आय, खुशहाली में वृद्धि को कैसे आंके, का कोई फार्मूला नहीं पेश करता है।
असल बात तो यह है कि पिछले 12 वर्षों से देश में तेज वृद्धि की रफ्तार थम गई है। उल्टा नोटबंदी, जीएसटी और कोविड-19 महामारी के साथ-साथ सरकार की आर्थिक नीतियां मांग को बढ़ाने के बजाय लगातार आपूर्ति पक्ष को ही मदद करने के लिए बनाई जा रही हैं। देश में बुनियादी उद्योग-धंधे तेजी से बंद हो रहे हैं, छोटे और मझोले उद्योगों के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा करना हर नया दिन अधिक मुश्किलों भरा होता जा रहा है। बड़े उद्योगों के लिए प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव एक भारी मुनाफे के रूप में सामने आया है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद कॉर्पोरेट जगत ने उद्योगों में निवेश से अपनी दूरी बनाए रखी है।
पिछले साल भर से विभिन्न अखबार बता रहे हैं कि देश में एंड्राइड मोबाइल की बिक्री की रफ्तार तेजी से घटी है। अभी तक इस क्षेत्र में लगातार उछाल बना हुआ था, और भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार बन कर उभर रहा था। लेकिन चीनी मोबाइल फोन के बाजार से वापसी और फोन की कीमतों में 25-40% की वृद्धि ने सस्ते फोन की खरीद को आम लोगों की पहुंच से बाहर कर दिया है। 5जी स्पेक्ट्रम और टेलिकॉम क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बाजार के दो दिग्गजों एयरटेल और जिओ नेटवर्क के बीच में सिमटते जाने से मासिक टॉकटाइम और डेटा उपभोग की दरें बढ़ने से भी ग्रामीण क्षेत्र में मांग तेजी घटी है। लेकिन वहीं दूसरी ओर महंगे फोन की मांग में उछाल देखने को मिल रहा है।
इसी तरह रेफ्रीजरेटर की बिक्री पर भी भारी असर पड़ा है। 10-15,000 रूपये मूल्य के फ्रिज की बिक्री में रिकॉर्ड कमी आई है, जबकि 1-1.5 लाख रूपये की कीमत वाले फ्रिज की बिक्री तेजी से बढ़ी है। मारुति, हुंडई की बेसिक मॉडल की कारों का खरीदार नहीं बचा, जबकि एसयूवी ब्रांड और मर्सिडीज बेंज की कारों के लिए वेटिंग टाइम पहले से बढ़ गया है। दुपहिया वाहन में भारी गिरावट से निर्माता अब इस क्षेत्र में नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर हैं। छंटनी और तालाबंदी के दौर से कई ऑटो सेक्टर से जुड़े ओईएम (Original equipment manufacturers) को जूझना पड़ रहा है।
डेरी सेक्टर में दुग्ध उत्पाद में लगातार महंगाई बनी हुई है। नई नौकरियां सृजित नहीं हो रही हैं, उल्टा अब तो आईटी सेक्टर से छंटनी की खबरें आये-दिन अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जीडीपी में वृद्धि क्या वास्तव में भारत की खुशहाली को दर्शाने में सक्षम है, या इसके माध्यम से कोई बड़ी गड़बड़ी को छिपाने की कोशिश की जा रही है? यह प्रश्न कोई नया नहीं है। पश्चिमी देशों में भी यह सवाल पहले भी उठाया जाता रहा है।
वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम में भी जीडीपी की इस पहेली को समझने की कोशिश 8 साल पहले की गई थी। उसकी रिपोर्ट बताती है कि पिछले कई दशकों से वास्तविक विकास अवरुद्ध है। फोरम ने अपने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि 80 के दशक से ही सही मायने में जीडीपी की विकास दर वास्तविक विकास को दर्शाने में असफल सिद्ध हुई है। इसमें प्रति व्यक्ति मानव कल्याण, गैर-बराबरी की कीमत पर समायोजन, पर्यावरणीय क्षति सहित अन्य कल्याणकारी उपायों में सरकारी कटौती अहम रही है। जीडीपी वास्तविक अर्थव्यस्था को सामने ला पाने में पूरी तरह से नाकामयाब सिद्ध हो चुकी है। जीडीपी में मानव कल्याण के बारे में क्या किया गया, के बारे में कोई जानकारी नहीं हासिल होती है। समूचे समाज की बेहतरी के लिए जीडीपी के स्थान पर जीपीआई को अपनाया जाना चाहिए।
वास्तविक अर्थव्यस्था में हमारे पास उपलब्ध प्राकृतिक संपदा को शामिल किया जाना चाहिए, इसमें वे सभी वस्तुएं शामिल हैं जिन्हें मनुष्य के द्वारा स्वयं निर्मित नहीं किया जाता है, और जो हमारे लिए बेशकीमती हैं, लेकिन उनका विपणन संभव नहीं है। इसमें जलवायु नियंत्रण, जल आपूर्ति, आंधी-तूफ़ान से बचाव, परागण एवं पुनर्रचना का क्षेत्र शामिल है। इन प्राकृतिक उपहारों के बारे में आकलन बताते हैं कि ये विश्व की कुल जीडीपी से भी अधिक मानव कल्याण में अपना योगदान देते हैं। लेकिन हमारी अविवेकपूर्ण उपेक्षा के चलते इन बहुमूल्य संपदाओं का तेजी से क्षरण जारी है। 1997 से इन गैर-विपणन पारिस्थितिकी तंत्र से विश्व भर में हमें 20 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान हो रहा है, जो अमेरिका की कुल जीडीपी के बराबर है।
लेख में आगे कहा गया है कि 1980 के बाद से विशेषकर जी-20 देशों के भीतर असमानता में भारी बढ़ोत्तरी देखी गई है। गरीबी-अमीरी की बढ़ती असमानता के परिणामस्वरूप सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं, सामाजिक पूंजी के निर्माण की क्षमता पहले से घट रही है, और जीवन जीने की गुणवत्ता में कुल मिलाकर गिरावट दर्ज की गई है।
पिछले कई दशकों में जीडीपी से जो भी फायदा हुआ है, उसमें से अधिकांश हिस्सा शीर्ष के 1% आबादी के हिस्से में आया है। शेष 99% लोगों के लिए सामाजिक एवं प्राकृतिक संपदा में लगातार क्षरण के संदर्भ में देखें तो उनकी आय में कोई वृद्धि नहीं हो सकी है।
जलवायु परिवर्तन एक ऐसा विषय है इसको लेकर वर्गीय हितों का संघर्ष सबसे बड़ा है। जलवायु हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण धरोहरों में से एक है। लेकिन इसमें निवेश एवं इसके रख-रखाव को आर्थिक प्रगति के लिए अवरोध के रूप में देखा जाता है। यह सबसे बड़ी बाधा है। वास्तव में जलवायु परिवर्तन को जीडीपी की विकास दर की लागत से जोड़े जाने की जरूरत है, जो हमारे लिए उद्योगों, सड़क और आवास की क्षति जितनी ही महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार बढ़ती असमानता के कारण सामाजिक पूंजी के ह्रास को भी जीडीपी में किसी भी प्रकार की बढ़ोत्तरी की कीमत पर आंका जाना चाहिए।
सामाजिक एवं प्राकृतिक पूंजी में बदलावों को आंकने के लिए एक सूचकांक के रूप में हमारे पास जीपीआई (वास्तविक प्रगति सूचक) है। जीपीआई में आय वितरण के द्वारा व्यक्तिगत उपभोग को समायोजन किया जाता है, और हवा और जल प्रदूषण जैसे प्राकृतिक संपदा के क्षरण की लागत को इसमें घटाकर दिखाया जाता है। इसके आधार पर वैश्विक स्तर पर 1978 के बाद से प्रति व्यक्ति जीपीआई में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, भले ही प्रति व्यक्ति जीडीपी दुगुने से भी अधिक हो चुकी है।
सक्षेप में कहें तो दुनिया भर में आज हमें वास्तविक आय एवं खुशहाली के आंकड़ों की जरूरत है। सरकारें आंकड़ों के जाल में आम लोगों को दिग्भ्रमित कर लगातार प्रकृति के दोहन से एक तरफ चंद कॉर्पोरेट को मालामाल करने के एजेंडे के लिए जीडीपी के आंकड़ों का इस्तेमाल कर रही हैं, वहीं 90% आबादी के लिए रोजगार, रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य दूभर होता जा रहा है। धन के अधिकाधिक संकेंद्रण ने कॉर्पोरेट के लिए निरंकुश सता में अपना हित साधन ढूंढ लिया है, जो असली आंकड़ों और तथ्यों को आम जन से ओझल करने के लिए मीडिया को अपनी निजी जागीर बनाने से भी बाज आ रहा है। सच तक पहुंचने के लिए जो भी साधन हैं, उन्हें एक-एक कर काटा जा रहा है, और झूठे ख्वाबों के महल खड़े करने के लिए जीडीपी की विकास दर सबसे बड़ा टॉनिक साबित हो रही है।
( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)