विभाजन के लिए अगर कोई दोषी है तो वह आरएसएस और हिन्दू महासभा

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मोदी ने अब से चौदह अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मरण दिवस घोषित करवा दिया है। ये सोच रहे हैं कि इस बहाने हमें हर साल भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार बता कर मुसलमानों और कांग्रेसियों को गाली देने का मौका मिल जाएगा, लेकिन इस बार भाजपा से गलती हो गई है, क्योंकि सच्चाई अलग है। विभाजन के लिए अगर कोई दोषी है तो आरएसएस और हिन्दू महासभा दोषी हैं। जिन्ना शुरू से एक धर्म निरपेक्ष नेता थे। जिन्ना भगत सिंह के वकील थे, जिन्ना तिलक के वकील थे, सन् 1940 तक जिन्ना ने कभी भारत के बंटवारे की मांग नहीं की थी, जिन्ना को यह मांग करने के लिए मजबूर करने वाले थे हिन्दू महासभा के सावरकर, मुंजे, भाई परमानन्द और गोलवलकर। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग पहली बार 1940 में की, क्योंकि 1939 में यानी एक साल पहले ही हिन्दू महासभा ने दो कौम दो राष्ट्र का प्रस्ताव कर दिया था, कांग्रेस भी बंटवारे के खिलाफ थी। मौलाना आज़ाद खान अब्दुल गफ्फार खान, गांधी, नेहरु सबके सब बंटवारे के खिलाफ थे, गांधी जी ने तो यहाँ तक प्रस्ताव कर दिया था कि भारत का प्रधान मंत्री जिन्ना को बना दो लेकिन बंटवारा मत करो। 

लेकिन जब 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में कांग्रेस नेता जेल में थे, तब हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने मिलकर तीन राज्यों में अपनी मिलीजुली सरकारें बनाई थीं। 

याद रखिये मुस्लिम लीग का गठन हिन्दुओं के खिलाफ नहीं हुआ था। आप मुझे मुस्लिम लीग का कोई स्टेटमेंट हिन्दुओं के खिलाफ दिखा दीजिये, वहीं दूसरी तरफ हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं को संगठित करने के लिए किया गया था। इन हिंदुत्ववादी  संगठनों ने शुरू से ही मुसलमानों के खिलाफ ज़हर और नफरत फैलाना और उन्हें हिन्दुओं से दूर करने का लगातार काम किया, जबकि गांधी लगातार हिन्दुओं और मुसलमानों को जोड़ने और मिलकर आज़ादी की लड़ाई में शामिल करने के लिए कोशिश कर रहे थे, हिन्दू महासभा के नेता भाई परमानन्द ने 1908 में ही इसकी शुरुआत कर दी थी। भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा साहित्य लिखा जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं। सन् 1908 के प्रारंभ में ही उन्होंने विशिष्ट क्षेत्रों में संपूर्ण हिंदू व मुस्लिम आबादी के आदान-प्रदान की योजना प्रस्तुत कर दी थी।

अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह योजना प्रस्तुत की -‘सिंध के बाद की सरहद को अफ़ग़ानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाक़ों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस इलाक़े के हिंदुओं को वहाँ से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहाँ से निकल कर इस नई जगह बस जाना चाहिए। ’ डॉक्टर बी एस मुंजे,जो हिंदू महासभा के नेता होने के साथ-साथ आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और इटली के तानाशाह मुसोलिनी के दोस्त थे, ने तो 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान का आह्वान किए जाने से बहुत पहले हिंदू अलगाववाद की वकालत कर दी थी। मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन में कहा था कि-‘जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंग्रेज़ों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएँगे और शुद्धि तथा संगठन द्वारा फले-फूलेंगे।’

भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने और यहाँ से मुसलमानों-ईसाइयों को बाहर निकाल देने के तमाम तरीक़े 1923 के प्रारंभ में सावरकर ने अपनी विवादित किताब ‘हिंदुत्व ‘ में विस्तार से प्रस्तुत किए। इस पुस्तक को लिखने की अनुमति उन्हें आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेज़ों की कैद में रहते दे दी गई थी। हिंदू राष्ट्र की उनकी परिभाषा में मुसलमान व ईसाई शामिल नहीं थे, क्योंकि वे हिंदू सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते नहीं थे, न ही हिंदू धर्म अंगीकार करते थे। उन्होंने लिखाः ‘ईसाई और मुहम्मडन,जो कुछ समय पहले तक हिंदू ही थे और ज़्यादातर मामलों में जो अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिन्दू ख़ून और मूल का दावा करें। लेकिन उन्होंने एक नई संस्कृति अपनाई है इस वजह से ये हिंदू नहीं कहे जा सकते हैं।

नए धर्म अपनाने के बाद उन्होंने हिंदू संस्कृति को पूरी तरह छोड़ दिया है… उनके आदर्श तथा जीवन को देखने का उनका नज़रिया बदल गया है। वे अब हमसे मेल नहीं खाते इसलिए इन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता। ’हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने बाद में दो- राष्ट्र सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की। इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि मुस्लिम लीग ने तो पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, लेकिन आरएसएस के कथित महान विचारक व मार्गदर्शक सावरकर ने इससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था। 

सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें राष्ट्रीय अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से यही बात दोहराई- ‘फ़िलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल गया है या सिर्फ़ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जायेगा… आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है। बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्य तौर पर दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुसलमान। ’

हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक ‘वी, एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ से और बल मिला। भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने इस किताब में नस्ली सफ़ाया करने का मंत्र दिया, उसके मुताबिक़ प्राचीन राष्ट्रों ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या हल करने के लिए राजनीति में उन्हें (अल्पसंख्यकों को) कोई अलग स्थान नहीं दिया। मुस्लिम और ईसाई, जो ‘आप्रवासी’ थे, उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अर्थात ‘राष्ट्रीय नस्ल’ में मिल जाना चाहिए था। गोलवलकर भारत से अल्पसंख्यकों के सफ़ाये के लिए वही संकल्प प्रकट कर रहे थे कि जिस प्रकार नाज़ी जर्मनी और फ़ासीवाद इटली ने यहूदियों का सफ़ाया किया है। वे मुसलमानों और ईसाइयों को चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बँधे रहेंगे।

उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी, न ही उनके कोई विशेष अधिकार होंगे। इन विदेशी तत्वों के सामने केवल दो रास्ते होंगे, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने-आपको समाहित कर लें या जब तक यह राष्ट्रीय नस्ल चाहे तब तक वे उसकी दया पर निर्भर रहें अथवा राष्ट्रीय नस्ल के कल्याण के लिए देश छोड़ जाएँ। अल्पसंख्यक समस्या का यही एकमात्र उचित और तर्कपूर्ण हल है। इसी से राष्ट्र का जीवन स्वस्थ व विघ्न विहीन होगा। राज्य के भीतर राज्य बनाने जैसे विकसित किए जा रहे कैंसर से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का केवल यही उपाय है। प्राचीन चतुर राष्ट्रों से मिली सीख के आधार पर यही एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी नस्लें अनिवार्य हिंदू संस्कृति व भाषा को अंगीकार कर लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें तथा हिंदू वंश, संस्कृति अर्थात् हिंदू राष्ट्र का गौरव गान करें। वे अपने अलग अस्तित्व की इच्छा छोड़ दें और हिंदू नस्ल में शामिल हो जाएँ, या वे देश में रहें, संपूर्ण रूप से राष्ट्र के अधीन किसी वस्तु पर उनका दावा नहीं होगा, न ही वे किसी सुविधा के अधिकारी होंगे। उन्हें किसी मामले में प्राथमिकता नहीं दी जाएगी यहाँ तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएँगे।’

इसके बाद क्या मुसलमान ना डरते ?इस तरह यह साबित होता है कि और इतिहास की सच्च्चाई यही है कि भारत के विभाजन के लिए मोदी के पूर्वज ही जिम्मेदार हैं कांग्रेस या मुसलमान नहीं, कांग्रेसियों आगे बढ़ो और इस मुद्दे पर घेर लो इस दंगाई को, अगर कांग्रेसियों के पास हिम्मती नेता ना हो तो मुझसे कहो मैं पूरे देश में भाजपा के खिलाफ इसी मुद्दे पर अभियान चलाने के लिए तैयार हूँ।

(हिमांशु कुमार गांधीवादी कार्यकर्ता हैं।)

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