नाजी नरसंहार से आज भारतीय जनांदोलनों को सबक लेने की जरूरत है

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जब भी नाजी नरसंहार के बारे में बात होती है तो यह बात जरूर दोहराई जाती है कि हिटलर ने जो यहूदी धर्मावलंबियों के साथ दुर्व्यवहार किया। उस विशेष व्यवहार के बारे में अनेक इतिहासकारों और टिप्पणीकारों द्वारा विस्तार से चर्चा की गई है और हो भी क्यों न, पूरी सदी का सबसे बड़ा नरसंहार नस्ल के आधार पर करते हुए हिटलर ने मानव सभ्यता को पीछे ले जाने की भरपूर कोशिश की थी जिसके वैचारिक आधार को हम नाजीवाद भी कहते हैं।

परन्तु यहूदी के अलावा हिटलर के कार्यकाल में अन्य लोगों के ऊपर भी भीषण नरसंहार हुए जिसके बारे में काफी कम चर्चाएं की गई हैं और जो इतिहास के लिए एक बहुत बड़ा सबक है, शायद इन नरसंहारों के बारे में काफी कम लिखा और बोला गया है। इसकी वजह से “वार सिंपैथी” की नजरों से दुनिया आज भी यहूदियों को देखती है जो आज खुद एक खुले युद्ध के द्वारा फिलिस्तीन में तबाही मचा रहा है। 

हमारे इस लेख का मुख्य विषय यहूदी से इतर हिटलर और नाजीवाद के काल में हुए नरसंहारों पर चर्चा करना और उससे हमारी पीढ़ी क्या सीख ले सकती है उसे रेखांकित करना है। इसके लिए हम ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ उनके विश्लेषण में भी जाने का प्रयास करेंगे।

चूंकि वर्तमान समय में दुनिया के हर एक देश में एक फासीवादी उद्भव की लहर बढ़ रही है और जन आंदोलनों को लगातार फासीवादी राजकीय नीतियों द्वारा कुचला जा रहा है ऐसे में उसके महत्व पर भी चर्चा करनी होगी कि लोग डिटेंशन कैंप के अंदर भी किस तरह से प्रतिरोध करने का प्रयास कर रहे थे पर वो कभी भी नाकाफी ही रहा। 

हिटलर के साथ एक और व्यक्ति हेनरिक हेमलर का नाम भी नाजी इतिहास में काफी अलग तरीके से लिया जाता है और यह माना भी जाता है कि हेमलर ही “फाइनल होलोकास्ट” का प्रधान नायक था। हिटलर और हेमलर दोनों का ही यह मानना था कि जर्मन लोग यहूदियों की जनसंख्या के खिलाफ एक युद्ध पर हैं, जो अपने अस्तित्व के लिए इस जनसंख्या से लड़ेगा ही।

युद्ध से पहले तक यहूदी जनसंख्या के खिलाफ भीषण नरसंहार के तरीके को अपनाने की कोई योजना नहीं थी, परन्तु यहूदियों को जर्मनी से बाहर निकालने की योजना तय थी। युद्ध के प्रारंभ के एक साल में जर्मनी को शुरुआती बढ़त मिली और यूरोप का एक बहुत बड़ा क्षेत्र जिसके अंदर यहूदी आबादी रहती थी, जर्मनी के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।

1940 की दशक के शुरुआत में भी नाजियों की योजना कोई ज्यूस के लिए सहानुभूतिपूर्ण नहीं थी पर वह इस मत पर सहमत हो रहे थे कि इन्हें फ्रांस के औपनिवेशीकृत द्वीप मेडागास्कर पर छोड़ दिया जाएगा जहां उनसे बंधुआ मजदूर के रूप में नाजी निगरानी में काम करवाया जाएगा।

परन्तु जब डिटेंशन कैंप और मेडागास्कर की योजना इनके लिए लंबी होने लगी और युद्ध ने एक मौका दिया जहां वह विश्व युद्ध के नाम पर भीषण नरसंहार को अंजाम दे सकते थे, तब जर्मन नाजी नेताओं ने मिलकर ’फाइनल सॉल्यूशन’ के रूप में भीषण नरसंहार को अपनाया। 

परन्तु इससे पहले नाजी पार्टी मध्यम वर्ग के दिलों में जगह बनाते हुए और प्रथम विश्व युद्ध के बाद वर्साय की संधि का बदला लेने वाली एक राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में तख्तापलट के साथ सत्ता में 1933 में काबिज हो चुकी थी और उसके नरसंहार का कार्य उसी समय से जारी था।

नाजियों के सीधे निशाने पर हर तरह के विरोधी लोग थे जो नाजी व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे। उसमें बड़े समूह कम्युनिस्ट, बायोलॉजिकली अनफिट जर्मन आबादी, सोशल डेमोक्रेट्स, जिप्सी, आदि शामिल थे।

1939 के आखिरी में हिटलर द्वारा ’बायोलॉजिकली प्यूरिफिकेशन’ नाम से एक योजना चलाई जाती है जिसका आधार यह होता है कि जो भी व्यक्ति जीवन जीने के योग्य नहीं है और देश की अर्थव्यवस्था पर केवल बोझ है बीमार है और उनको इलाज के दम पर रखा गया है उन्हें ’एक्टिव यूथेनेशिया’ देकर मारा जाने लगा।

इस योजना को कभी भी घोषित न करते हुए T-4 के नाम से हॉस्पिटलों और ऐसाइलम्स में चलाया गया। दस हजार से ज्यादा लोग असाध्य रोग, मानसिक रूप से बीमार, होमोसेक्सुअल जनता को हिटलर ने इस योजना के तहत जहरीली गैस देकर मरवा दिया। जर्मनी के इतिहासविदों की राय है कि T-4 नरसंहार के अंदर कुल मिला कर सत्तर से नब्बे हजार लोगों को मारा गया और इसके लिए सामान्य फिजिशियंस, मेडिकल प्रैक्टिशनर ने खुलकर नाजी ताकत का साथ दिया।

डिटेंशन कैंप की योजना विश्वयुद्ध से पहले ही तैयार कर ली गई थी जिसका शुरुआत में प्रयोग यूरोप भर से जर्मन क्षेत्राधिकार में आने वाले सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और भी विरोधियों को इसमें डाला जाता था।

युद्ध शुरू होने के बाद हम पाएंगे कि बहुत भारी संख्या में डिटेंशन कैंप बनाए जाने लगे जहां लोगों को नस्लों के आधार पर, उनकी राजनीतिक विचारधारा के आधार पर, धर्म, शारीरिक और मानसिक रुग्णता के आधार पर, पादरी और नन, जिहोवा विटनेस, समलैंगिक, कलाकार, प्रबुद्ध लोगों को भयानक अमानवीय स्थिति में रखा जाता था।

जहां आतंक, यौन उत्पीड़न तथा मेडिकल ह्यूमन ट्रायल बेहद आम बात थी। लोगों के ऊपर दवाओं का परीक्षण किया जाता था जिसमें कई लोग मारे गए थे। सही आंकड़े तो बता पाना मुश्किल है पर कुछ लाख से ज्यादा लोगों को इस दयनीय स्थिति में मौत के घाट उतर दिया गया था और इनमें से ज्यादातर लोग नॉन–यहूदी और जर्मन थे। 

नाजियों ने मामले को यहां तक नहीं रुकने दिया, वह जिन क्षेत्रों को जीतते हुए आगे बढ़ रहे थे वहां के लोकल जनजातियों को भड़का कर यहूदी आबादी के खिलाफ नरसंहार करवाए। जिससे यूरोप के एक बड़े क्षेत्र में नस्लीय आधार पर उनकी जनसंख्या को एक ’कॉमन एनिमी’ के रूप में देखा जाने लगा था। वहीं जर्मनी के आम नागरिकों को भी इस भीषण नरसंहार का हिस्सा एसएस (प्राइवेट नाजी मिलीशिया) के लोगों द्वारा बनाया गया, जो नरसंहार के समय एसएस का भरपूर साथ देते थे। 

होलोकास्ट इनसाइक्लोपीडिया के आंकड़ों की मानें तो नाजी जर्मनी द्वारा 2,50,000 से ज्यादा यूरोपियन रोमा या जिप्सी आबादी को निचली नस्ल होने के कारण मौत के घाट उतर दिया गया। यह नरसंहार सर्बिया, पोलैंड और रशिया के क्षेत्रों में किया गया था।

बहुत से डिटेंशन कैंप से उद्योगपतियों को स्लेव लेबर के रूप में जिप्सी को भयानक अमानवीय दशा में काम कराया जाता था। कहते हैं कि जिप्सी जनजाति के ज्यादातर लोगों को जर्मनी के बाहर मारा गया था जिसके कारण मरने वालों की संख्या को कम बताया जा सके। 

परन्तु क्या सिर्फ नरसंहार हो रहे थे या लोग प्रतिरोध भी कर रहे थे। तो सच ये है कि लोगों ने अपने स्तर पर प्रतिरोध का सहारा भी लिया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने आत्मालोचन में इस बात को रखा था कि हम हिटलर के विस्तार को समझ नहीं पाए और भूमिगत होने में बहुत देर कर दी जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे कई लोग पकड़े गए और डिटेंशन कैंप में डाल दिए गए।

परन्तु कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों में कुछ लोग जानबूझ कर डिटेंशन कैंप गए और लोगों को अंदर से संगठित करने का प्रयास किया। परन्तु कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ सका और ज्यादातर लोग मार दिए गए। वार्षव घेटो में 1943 के दौरान एक बड़ा सशस्त्र विद्रोह किया गया जिसके प्रभाव में आकर अन्य छोटे घेटो में भी छोटे विद्रोह किए गए। परन्तु इसे तुरंत दबा दिया गया।

जर्मन आम जनता ने लोगों को अपने स्तर पर मदद करने का प्रयास किया, जिसमें लोगों को अपने घरों पर रखना व उनको खुफिया गुप्तचरों से बचाना था, परन्तु एक बड़ी प्रबुद्ध आबादी कभी भी नाजियों के खिलाफ जनांदोलनों के रूप में सामने नहीं आई। 

इस पूरे नरसंहार को देखने के बाद यहूदियों ने यह सीखा कि खुद फिलिस्तीन में दुनिया का सबसे बड़ा डिटेंशन कैंप बना दिया जो उसी अमेरिका के दम पर जी रहा है, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एंटी-इमिग्रेंट पॉलिसी लगा कर यहूदियों के नरसंहार में जर्मनी की अप्रत्यक्ष सहायता की।

भारत के अंदर भी डिटेंशन कैंप बनाए जाने लगे हैं। असम के अंदर एक बड़ा डिटेंशन कैंप बनाया गया है जहां सरकार के अनुसार ’अवैद्य बांग्लादेशी शरणार्थियों’ को रखा गया है। यह कुछ वैसे ही शुरू हुआ है जैसे पहली बार जर्मनी में शुरू हुआ था।

डेविड रेंटन अपनी किताब फ़ासिज़्म में लिखते हैं कि अगर फासीवादियों को शुरुआत में ही बड़े समारोहों को करने से रोक जाता और नस्लवादी और गैर लोकतांत्रिक भीड़ के रूप में इकट्ठा न होने दिया जाता तो वह एक सबसे बेहतर समाधान होता।

इस किताब में डेव रेंटोन ’स्ट्रेटेजिक ऑफेंस’ को अपनाने पर बल देते हैं जहां फासीवादी कार्यक्रमों में विघ्न डालना, उनके प्रोग्राम को न होने देने जैसे कार्यों को शामिल किया है। यह समझदारी तत्कालीन सोशल डेमोक्रेट्स की समझदारी से बिल्कुल अलग थी, जो एक लंबे समय तक फासीवादियों के भी लोकतांत्रिक अधिकार के बारे में बात करती रही और कभी भी स्ट्रेटजी ऑफेंस के रूप में नहीं गई।

भारत में भी स्थिति दिन प्रतिदिन बेहद भयावह होती जा रही है और देश के अंदर एक बड़ा प्रगतिशील तबका है जो समस्त देशवासियों के लिए लोकतांत्रिक अधिकार की बात को अभी भी कर रहा है। उन्हें इतिहास में झांककर जरूर देखना चाहिए और उससे सीख लेनी चाहिए, क्योंकि भारत का फासीवादी न केवल अमेरिका से मॉडल ले रहा है अपितु इजरायली फासीवादी आदर्शों पर चलने के लिए बिल्कुल तैयार है। 

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं।)

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