Saturday, April 27, 2024

इंफोसिस के संस्थापक को कॉर्पोरेट मुनाफे में कटौती मंजूर नहीं

इंफोसिस के सह-संस्थापकों में प्रमुख नाम नारायण मूर्ति की देश के युवाओं से सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह को लेकर तमाम हलकों में चर्चा का बाजार गर्म है। इस एक बयान ने हर तबके को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या मूर्ति की बात पर अमल होना जरुरी है। मूर्ति की छवि को देश की मीडिया ने कॉर्पोरेट संत सरीखा बना रखा है।

भारत में इस एक बयान को लेकर इतनी अलग-अलग तरह की चर्चा है कि किसी एक वर्ग, आयु के बीच में भी एक राय पर कायम रह पाना आसान नहीं है। युवा वर्ग के बीच भी इस बारे में एक राय नहीं है। लेकिन 70 घंटे काम की बात कह कर नारायण मूर्ति ने कहीं न कहीं भारतीय कॉर्पोरेट की छिपी-दबी आकांक्षाओं को खुलकर सामने ला दिया है। कॉर्पोरेट की चाकरी में बिछ चुके सरकारी अमले ने तो कोविड-19 महामारी के दौर में इसे आधिकारिक रूप पहले ही दे दिया था।

संभवतः हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने इस बारे में बाकायदा अधिसूचना भी जारी कर दी थी, लेकिन अभी तक कोई राज्य इसे लागू करने की हिम्मत नहीं कर सका है। पिछले दिनों, तमिलनाडु में भी द्रमुक मुख्यमंत्री स्टालिन ने 12 घंटे काम का प्रस्ताव विधानसभा में पारित करा लिया था, लेकिन सहयोगी वामपंथी पार्टियों के भारी विरोध के बाद उन्हें अपने इरादों से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

नारायण मूर्ति और भारतीय कॉर्पोरेट के मन की बात

इंफोसिस से जुड़े पूर्व सहयोगी मोहनदास पाई के साथ अपनी बातचीत में नारायण मूर्ति ने जिस बात पर मुख्य जोर देकर कहा, उसमें यही बात उभरकर आ रही है कि भारत को यदि तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो उसके युवाओं को अपने योगदान को गुणात्मक रूप से बढ़ाने की जरुरत है। इसके लिए उन्होंने जापान और जर्मनी का उदाहरण तक दे डाला कि किस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध में बुरी तरह जर्जर इन दोनों देशों ने कुछ ही वर्षों के भीतर अपनी अर्थव्यवस्था को बुलंदियों पर ला खड़ा कर दिया था। यह सब इन देशों की युवा शक्ति के बल पर ही संभव हो सका था।

लेकिन क्या यह बात पूरी तरह से सही है? क्या यूरोप और जापान सहित पश्चिमी देशों के लोग भारतीयों की तुलना में ज्यादा मेहनती हैं? क्या नारायण मूर्ति और सज्जन जिंदल जैसे कॉर्पोरेट के प्रतिनिधि असल में अपने लिए तय मुनाफे को घटाने के बजाय उसकी वसूली भारतीय आईटी श्रमिकों से करने की मंशा पाले हुए हैं?

जेएसडब्ल्यू ग्रुप के चेयरमैन सज्जन जिंदल भी मूर्ति के विचार के साथ पूर्ण सहमति जताते हुए दो कदम आगे बढ़ जाते हैं। उनका कहना है, “यह मामला शोषित होने का नहीं, बल्कि समर्पण से जुड़ा हुआ है। हमें भारत को 2047 तक एक ऐसी आर्थिक महाशक्ति बना देना है जिस पर हम सभी नाज कर सकें। 5-दिवसीय सप्ताह वाली कार्य संस्कृति वह नहीं है जिसकी भारत जैसी तेजी से विकसित हो रहे विकासशील देश को जरूरत है, क्योंकि हमारे देश की “परिस्थितियां अद्वितीय हैं और इसके सामने जो चुनौतियां हैं वे विकसित देशों से पूरी तरह से भिन्न हैं।”

सज्जन जिंदल जिस बात की ओर इशारा कर रहे थे, उस बारे में जर्मनी में एआई को अपनी कंपनी में इन्टीग्रेट कर रहे भारतीय मूल के भानु सिंह ने जनचौक से अपनी बातचीत में बताया, “पश्चिमी देश पूंजी और तकनीक के मामले में विकासशील देशों से कहीं आगे हैं। अब एआई और रोबोटिक्स के साथ उन देशों की उत्पादक क्षमता में गुणात्मक विकास हो रहा है। इसकी तुलना में पिछड़ी तकनीक के बल पर भारतीय उद्यमियों के लिए प्रतिस्पर्धी बने रहना कठिन हो रहा है।”

यह बात समझ में आती है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि भारतीय आईटी कॉर्पोरेट पिछले 3 दशकों से कर क्या रहे थे? 2022 तक देश की जीडीपी का 7.4% हिस्से पर काबिज आईटी-बीपीओ सेक्टर के पास 245 बिलियन डॉलर का कारोबार था। 194 बिलियन डॉलर सालाना निर्यात एवं 54 लाख आईटी कर्मचारियों की फ़ौज के साथ लंबे समय तक एकछत्र राज करने के बावजूद भारतीय उद्योगपतियों ने हमेशा खुद को सर्विस इंडस्ट्री तक ही सीमित रखा। यूरोप और अमेरिकी क्लाइंट्स के लिए सस्ती सेवाओं और बीपीओ की उपलब्धता में ही अपने लिए मुनाफे से जो शुरुआत इन कंपनियों ने की, वह आज भी जारी है।

रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर खर्च को फिजूलखर्ची समझने का परिणाम

1980 के दशक तक भारत और चीन की जीडीपी बराबर थी, जो 2000 तक भी कमोबेश थोड़े अंतर के साथ समान बनी हुई थी। लेकिन आज चीन और भारत की तुलना खुद भारतीय विदेश मंत्री तक नहीं करना चाहते। चीन और भारत दोनों ने अपने-अपने देशों में आर्थिक सुधार को अंजाम दिया, लेकिन दोनों देशों में इसके परिणाम अलग-अलग देखने को मिल रहे हैं। दोनों देशों की केंद्रीय सरकार की नीतियों के अलावा एक और चीज है, जिसके चलते एक दिशा में आगे बढ़ने के बावजूद दो अलग-अलग परिणाम निकले हैं, जिसमें R&D पर खर्च एक महत्वपूर्ण कारक है।

द इकॉनोमिक टाइम्स के 21 जुलाई 2022 अंक में नीति आयोग एंड इंस्टिट्यूट फॉर कम्पटीटिवनेस की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि भारत में शोध पर खर्च बढ़ने के बजाय और ज्यादा घटा दिया गया है। 2008-9 में जीडीपी के 0.8% खर्च के स्थान पर 2017-18 में यह घटकर 0.7% हो गया था। भारत की तुलना में ब्रिक्स देशों में ब्राजील 1.2%, रूस में .।1%, चीन में 2% से अधिक और दक्षिण अफ्रीका द्वारा अपनी जीडीपी का 0.8% खर्च किया जा रहा है।

विकसित देशों की बात करें तो अमेरिका अपनी जीडीपी का 2.9%, स्वीडन 3.2% और स्विट्ज़रलैंड 3.4% तक खर्च कर रहे हैं। इजराइल तो 4.5% के साथ दुनिया में शोध पर खर्च के मामले में अव्वल स्थान पर काबिज है। निष्कर्ष के तौर पर कहा गया है कि भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यस्था बनने के लिए तत्काल शोध के मद में जीडीपी के कम से कम 2% खर्च करना ही चाहिए।

इसी लेख में इंफ़ोसिस के सह-संस्थापक क्रिस गोपालकृष्णन के हवाले से जो बात निकलकर आई है, वह काफी चौंकाने वाली है। उनके अनुसार भारत को अपनी जीडीपी के करीब 3% हस्से को रिसर्च पर खर्च करना चाहिए, जो अभी 0.7% पर अटकी हुई है। लेकिन प्राइवेट कॉर्पोरेट की भागीदारी तो बेहद खराब है। कॉर्पोरेट द्वारा फ़िलहाल 0.1% बजट ही रिसर्च पर खर्च किया जा रहा है, जिसे कम से कम 1.5% तक खर्च किया जाना होगा।

सोचिए, 90 के दशक से देश में सार्वजनिक संस्थाओं की कब्र पर कॉर्पोरेट को तरजीह देने की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन आज 30 वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय कॉर्पोरेट को सिर्फ सस्ते मजदूर और प्राकृतिक संसाधनों का ही आसरा बचा है। असल में हम और अफ्रीकी मुल्कों में कोई खास फर्क नहीं है। बस एक फर्क यह है कि अफ्रीका के प्राक्रतिक संसाधनों और सस्ते श्रम की लूट के लिए आज भी विकसित देशों के कॉर्पोरेट आते हैं, वहीं भारत में इसके लिए खुद भारतीय कॉर्पोरेट घराने भी मौजूद हैं।

हमारे आईटी सेक्टर में भी विकसित देशों की सेवा के लिए सस्ता मानव श्रम की उपलब्धता को सुलभ बनाया जाता है। अरबों डॉलर के मुनाफे से दूसरे शहरों, 2-3 टियर शहरों में और सस्ते श्रम की तलाश और आपस में प्रतिद्वंदिता जारी है। लेकिन गूगल, माइक्रोसॉफ्ट की सेवा के बजाय खुद में प्रोडूसर (क्लाइंट) बनने की चाहत, हिम्मत हमारे देश के कॉर्पोरेट में कभी रही नहीं। वह तो भारतीय श्रम को ज्यादा से ज्यादा कैसे चूसकर खुद मोटे जोंक के रूप में ताकतवर हो सके, इसी की चिंता में घुलता रहता है।

इसकी तुलना में पड़ोसी देश चीन यदि आज एआई, रोबोटिक्स, सेमीकंडक्टर, चिप्स, 5जी से 6जी, इलेक्ट्रिक कार, अपना सर्च इंजन, बैटरी सहित रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों की नाक में दम किये हुए है, तो इसके पीछे वहां की सरकार और कॉर्पोरेट के द्वारा रिसर्च एंड डेवलपमेंट के क्षेत्र में नियोजित विकास ही वह कड़ी है, जिसने उसे इस मुकाम पर ला खड़ा किया है।

पिछले तीन दशकों से आईटी सेक्टर नित नई बुलंदियों को छू रहा था। इंफोसिस को तो नैस्डेक स्टॉक एक्सचेंज में शामिल होने वाली पहली भारतीय कंपनी तक का ख़िताब हासिल है। 250 डॉलर से खड़ी की गई कंपनी आज भारत की दूसरी सबसे बड़ी आईटी क्षेत्र की कंपनी है। लेकिन मोटे मुनाफे में से शोध प्रबंध कर भारत को नवोन्मेष का केंद्र बना दिया जाए, इस बारे में भारतीय कॉर्पोरेट को शायद सोचते हुए भी डर लगता है।

नई खोज और पेटेंट के नाम पर सन्नाटा

मूर्ति को कर्मचारियों का समय चाहिए, ताकि सीईओ को करोड़ों रूपये की तनख्वाह दी जा सके। सोशल मीडिया प्लेटफार्म X पर सेवानिवृत्त आईएस अधिकारी, अशोक खेमका ने टिप्पणी करते हुए मनी कंट्रोल की कटिंग साझा करते हुए लिखा है, “इंफोसिस के सीईओ की कमाई कंपनी के नए कर्मचारी की तुलना में 2,200 गुना ज्यादा है। कंपनी का सीईओ और कोई नौसिखिये द्वारा सप्ताह में कुल कितने घंटे कार्यस्थल पर काम किया जाता है? एक सप्ताह में तो सिर्फ 168 घंटे होते हैं।”

अशोक खेमका ने तीखे सवाल पूछे हैं, जिसका जवाब देना कॉर्पोरेट के लिए काफी कठिन है। इंफोसिस के आंकड़े तो हैरत में डालने वाले हैं। 2012 में कंपनी के सीईओ का सालाना पैकेज 80 लाख रुपये, जबकि फ्रेशर्स का 2.75 लाख रुपये था। यह करीब तीस गुना था, जो काफी ज्यादा था। लेकिन फिर भी सहनीय स्तर पर बना हुआ था।

लेकिन 10 वर्ष बाद मनी कण्ट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 2022 में सीईओ का पैकेज जहां कंपनी ने 100 गुना बढ़ाकर करीब 80 करोड़ सालाना कर दिया है, वहीं नए रंगरूट के लिए 3.6 लाख रुपये की धनराशि उसकी कम्पूटर साइंस की डिग्री हासिल करने के लिए माता-पिता द्वारा चुकाई गई सालाना फीस से भी काफी कम है।

हालत यह है कि ये तनख्वाह भी अधिकांश को नहीं दी जा रही है, और कईयों को तो अपनी नौकरी को बनाये रखने के लिए घर से अभी भी पैसे की दरकार बनी हुई है। इंफोसिस में ही हजारों फ्रेशर्स बिना प्रोजेक्ट के खाली हाथ बैठे हैं, और उनमें से कुछ को तो हाल ही पिंक स्लिप भी थमा दी गई है। हाथ में काम न होने की स्थिति में वे अपने लिए उचित वेतन की मांग भी नहीं कर सकते, वहीं अनुत्पादक बने रहने की स्थिति में कई कर्मचारी मनोवैज्ञानिक तनाव से गुजर रहे हैं। यह दशा आज सभी प्रमुख आईटी इंडस्ट्री के साथ बनी हुई है।

ऊपर से नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने पति के बयान पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा है कि उन्हें तो सप्ताह में 80 से लेकर 90 घंटे काम करने की आदत रही है, इसलिए वे इससे कम क्या होता है के बारे में जानते ही नहीं हैं। वे हमेशा से खूब मेहनत करने पर विश्वास करते आये हैं, और उन्हें यही पसंद रहा है।

लेकिन मैडम बड़ी खूबसूरती से यह बताना भूल जाती हैं कि उनकी बेटी (ब्रिटेन के पीएम ऋषि सुनक की पत्नी) को बिना काम किये ही अरबों रुपये की दौलत मिल जाती है। कंपनी के सीईओ के लिए हर साल और भी मोटे पैकेज की घोषणा यह बताकर की जाती है कि कंपनी का नया बिजनेस उनके द्वारा ही अमेरिका से लाया गया है। लेकिन अपने फ्रेशर के लिए कंपनी के पास पिछले 12 वर्षों से देने के लिए कुछ नहीं है। है तो सिर्फ काम के घंटे में रिकॉर्ड इजाफा करने की सलाह।

इंफोसिस में कार्यरत कर्मचारियों और अलुमिनी अब अपनी आपबीती बताने से नहीं घबरा रहे हैं। नाम बड़े और दर्शन छोटे की तर्ज पर इंफोसिस भी चल रहा है, इसका अहसास बाहर अभी तक नहीं था। सभी फ्रेशर्स को सबसे पहले मैसूर में ट्रेनिंग के लिए बुलाया जाता है, और उस दौरान करार की जगह stipend दिया जाता है। उसके बाद कंपनी के देश में मौजूद क्षेत्रीय केन्द्रों पर 3-3.5 लाख सालाना पॅकेज की बजाय हाथ में काफी कम मिलता है।

यहां पर कर्मचारियों की असली अग्नि परीक्षा होती है। पहला यह कि आईटी इंडस्ट्री के देश के सारे अप-मार्केट रियल एस्टेट में स्थापित होने की वजह से महंगे किराये के मकान, यातायात और हर किसी के दिमाग में आईटी इंडस्ट्री की चमचमाती बिल्डिंग्स और सजे-धजे लड़के-लडकियों से प्रीमियम वसूलने की उम्मीद होती है। आज से कुछ वर्षों पहले तक एक-दो वर्ष की साधना के बाद बेहतर पगार और पदोन्नति इन बाधाओं को पार करा देती थी, लेकिन हाल में आईटी सेक्टर में उछाल की बजाय नौकरी बचाए रखने में घुलते लाखों नौसिखिये स्टाफ को भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।

असल में भारतीय कामगार अभी भी खुमारी से बाहर नहीं आ सका है। अभी भी उसे लगता है कि अच्छे दिन बस अगले मोड़ पर है। जिसे थोडा सा मौका मिला, उसने समझ लिया है कि उसकी तो लाटरी लग गई है। लेकिन हाल के दिनों में, विशेषकर कोविड-19 महामारी के बाद से अचानक आईटी और ऑटो इंडस्ट्री में भारी हलचल जारी है भारत में नवउदारवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए कहा गया था कि ट्रिकल-डाउन सिद्धांत के तहत उपर से विकास का अमृत रिसकर नीचे ही पहुंचेगा।

भारतीय आईटी इंडस्ट्री और ऑटो सेक्टर ही वे क्षेत्र थे, जिसके लाखों कर्मचारियों को हाल के दशकों में इसका स्वाद चखने का मौका मिला था। इन्हीं को ध्यान में रखकर रियल एस्टेट, ऑटो सेक्टर में बूम था। आज इन दोनों सेक्टर में जबर्दस्त मंदी है। जो तेजी दिख रही है या दिखाई जा रही है, वह महंगी गाड़ियों और मकानों या कोठियों की है। लेकिन इससे देश का भला तो नहीं होने वाला है।

विकसित देशों का अनुभव भी मूर्ति के विचारों से मेल नहीं खाता

सोशल मीडिया ही नहीं विभिन्न समाचारपत्रों तक में नारायण मूर्ति की नई सैद्धांतिकी का खंडन किया जा रहा है। एक शोध से पता चलता है कि प्रति सप्ताह एक निश्चित घंटों तक काम करने के बाद व्यक्ति की उत्पादकता में गिरावट आने लगती है।

अक्सर यही सुझाव दिया जाता है कि कामकाज और जीवन में उचित संतुलन बनाए रखते हुए उत्पादकता के उच्च स्तर को प्राप्त करने का मंत्र कड़ी मेहनत नहीं बल्कि ज्यादा स्मार्ट तरीके से काम करने में छिपा होता है। जब कभी कोई व्यक्ति अपनी क्षमता से अधिक मेहनत करता है तो अक्सर काम की गुणवत्ता पर असर पड़ने लगता है। गलतियों की संभावना बढ़ जाती है, और सटीक फैसले लेने की क्षमता कमजोर पड़ सकती है।

पिछले वर्ष ही सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे थे कि देश में लाखों लोगों ने रोजगार बाजार में लंबे समय तक खुद के लिए उचित नौकरी की तलाश में गुजारकर, आख़िरकार अपनी उम्मीद ही छोड़ दी थी। लाखों भारतीयों ने नई नौकरी की तलाश किए बिना ही 2022 में नौकरी बाजार को विदा कह दिया है, जिससे पता चलता है कि 2017 और 2022 के बीच, समग्र श्रम भागीदारी दर 46% से गिरकर 40% हो गई थी।

ऐसे में जब देश में न उचित तनख्वाह दी जा रही हो, शोध के नाम पर जेब से दमड़ी न निकलती हो, पहले से सस्ते श्रम बाजार में हमेशा निगाह और सस्ते श्रम बाजार पर लगी हो, रियल एस्टेट में अंधाधुंध विस्तार के लिए पैसे हों और सीईओ एवं निदेशकों, शेयरहोल्डर्स की चिंता ही सर्वोपरि हो तो नारायण मूर्ति की बात गलत नहीं लगती। इतने लोगों की उम्मीदों को पूरा करने के लिए भारतीय युवाओं को निश्चित ही सप्ताह में 40 घंटे के बजाय 70 घंटे खटने के लिए खुद को तैयार करना ही होगा। उनके लिए यह संकेत है।

भारत सरकार, भारतीय कॉर्पोरेट और श्रम कानून सभी कुछ काफी बदल चुका है। यह लड़ाई असल में इंसान के इंसान बने रहने की है, उसे पहले ही उपभोक्तावाद की लत लगाकर अर्ध-गुलाम बनाया जा चुका है। देखना है मिलेनियम युवा आजादी के बाद की इस सबसे बड़ी चुनौती से निपटने के लिए कितने तैयार हैं?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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