Thursday, March 28, 2024

खाद्यान्न की कमी नहीं बल्कि पूंजीवादी मुनाफा है बढ़ती भुखमरी का कारण

प्रकृति की गोद में आदि मानव के रूप में अपना जीवन शुरू कर आधुनिक इंसान ने अथाह प्रगति कर ली है। प्रकृति से संघर्ष की प्रक्रिया में संसाधनों को अपने जीवन को सुरक्षित करने के लिए उपयोग करने में महारत हासिल कर ली है। एक समय था जब इंसान का अधिकतर समय भोजन की खोज में गुजरता था। कृषि की खोज के साथ भोजन के लिए संघर्ष कुछ आसान हो गया। लेकिन आबादी की बढ़ोत्तरी के साथ खाद्यान्न की आपूर्ति चुनौती ही बनी रही। कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास ने इस समस्या का भी बड़े स्तर पर हल कर दिया लेकिन कृषि में अथाह प्रगति, खाद्यान्न के कुल उत्पादन में बढ़़ोत्तरी और उत्पादकता में वृद्धि के बावजूद वर्तमान समय में अरबों लोग भुखमरी और कुपोषण का सामना कर रहे हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार लगभग 82.8 करोड़ लोग हर रात भूखे सोते हैं। 2019 के बाद से गंभीर खाद्य असुरक्षा में जीने वाले लोगों की संख्या 3.5 करोड़ से बढ़कर 34.5 करोड़ हो गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक, दुनिया में करीब एक अरब व्यक्ति कुपोषित हैं।

पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद है व्यापक भुखमरी 

भुखमरी के लिए मज़बूर लोगों की इतनी बड़ी तादाद हमें सोचने पर मज़बूर करती है कि शायद भूख का मुख्य कारण अब भी अनाज की कमी है। अगर हम अपने देश का ही उदाहरण लें तो एक ऐसा समय था जब देश में अनाज के पैदावार की कमी थी। हमारे देश के वैज्ञानिकों और किसानों ने इस स्थिति को बदलने के लिए जी तोड़ मेहनत की। हरित क्रान्ति के बाद हमारा देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। वर्तमान में हमारे देश में इतनी क्षमता है कि हम विश्व के दूसरे देशों की सहायता करने का भी दम भरते हैं। लेकिन फिर भी हमारे देश के नागरिकों को भरपेट खाना नसीब नहीं हो रहा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की हालिया रिपोर्ट में हमारे देश का रैंक वर्ष 2021 में 101 स्थान से और नीचे गिरकर 107 पर आ गया है।

यह बेहद ही शर्मनाक है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार वर्ष 2020 में हमारे देश में 22 करोड़ से अधिक लोग गंभीर (क्रोनिक) भूख और 62 करोड़ लोग मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा में जी रहे थे। वैश्विक संदर्भ में देखें तो क्रोनिक भूख से पीड़ित लगभग एक तिहाई लोग और खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे एक चौथाई लोग भारत में रहते हैं। विडम्बना यह है कि हमारे देश के नागरिकों की यह स्थिति तब है जब भारतीय खाद्य निगम के भंडार में बफर स्टॉक जमा है। देश में खाद्यान्न प्रचुर मात्रा में होने के बावजूद देश के नागरिकों में कुपोषण अभी भी व्यापक है। पर्याप्त खाद्य आपूर्ति होने पर भी व्यापक कुपोषण और भूख का मुख्य कारण भोजन को मुनाफा कमाने के लिए किसी सामान्य वस्तु (कमोडिटी) की तरह देखना है। पूंजीवादी व्यवस्था में देश के नागरिकों के जीवन से इतर अधिकतम मुनाफा कमाने का सिद्धांत सरकार की नीति का निर्धारण कर रहा है।

कृषि की पूरी व्यवस्था मुनाफा कमाने के व्यवसाय में बदल गई है

इस पूंजीवादी दुनिया में भोजन को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में नहीं बल्कि मुनाफा कमाने की वस्तु के रूप में देखा जाता है। बिजाई से कटाई और मूल्यवर्धन तक की प्रक्रिया एक व्यापार श्रृंखला में बदल दी गई है। खेती की सभी प्रक्रियाओं का वस्तु की प्रकृति में बदलने का मतलब है कि कृषि लागत की तमाम वस्तुएं (बीज, खाद, खरपतवार, कीटनाशक आदि), उत्पाद का प्रसंस्करण के लिए ज़रूरी सभी वस्तुओं को मुनाफे के लिए बनाया और बेचा जाता है। कृषि उत्पादन की खरीद और विक्री भी केवल मुनाफे को ध्यान में रखकर होती है।  

असल खेती तो एक बड़े कृषि व्यवसाय का एक छोटा सा हिस्सा बन कर रह गया है। अभी हाल ही तक इस पूरी प्रक्रिया में सरकारों की निर्णायक भूमिका थी और सरकार के हस्तक्षेप के चलते प्राथमिकता भुखमरी से लड़ाई थी इसलिए मुनाफा कमाने के अवसर कमतर थे। लेकिन जब बात मुनाफे और व्यवसाय की आती है तो बड़ी कॉर्पोरेट कम्पनियां पूरे बाजार पर नियंत्रण करना चाहती हैं। पूँजी का चरित्र (अधिकतम मुनाफा कमाना) तो सभी तरह के बाजार में एक जैसा रहता है फिर चाहे यह बाजार लोगों की मूलभूत ज़रूरत अनाज का ही क्यों न हो। कृषि में भी बड़ा मुनाफा देख कॉर्पोरेट हस्तक्षेप बड़े स्तर पर बढ़ा है। एकाधिकार पूंजी के दौर में बड़ी कॉर्पोरेट कम्पनियां ही बाजार को नियंत्रित करती हैं। उदाहरण के लिए वैश्विक खाद्यान्न व्यापार के 70-90% हिस्से को महज चार कंपनियां- आर्चर-डेनियल्स-मिडलैंड कंपनी, बुंगे, कारगिल और लुइस ड्रेफस (जिन्हें सामूहिक रूप से एबीसीडी के रूप में जाना जाता है)  नियंत्रित करती हैं। ऐसे समय में जब अरबों लोग भूखे सोने को मजबूर हैं, दुनिया के इन चार शीर्ष अनाज व्यापारियों ने रिकॉर्ड  मुनाफा कमाया है।

भारत में खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भूमिका 

नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के दिशा-निर्देश में आर्थिक खर्चे कम करने के मकसद से सरकारों की नीतियों में बड़ा वदलाव आया है। हमारे देश में भी खाद्य असुरक्षा और भुखमरी की गंभीर स्थिति इन नीतियों के कार्यान्वयन का परिणाम है। सब्सिडी कम करने के नाम पर भारत सरकार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और भारतीय खाद्य निगम को कमजोर कर रही है। 

हालांकि देश में पहली राशनिंग प्रणाली की शुरुआत ब्रिटिश हुकूमत के समय हुई थी जो 1954 तक अस्तित्व में रही। उल्लेखनीय है कि हमारे देश में 1943 में भुखमरी की एक बड़ी त्रासदी हुई थी जिसमें लगभग तीस लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई। सामान्यतया लोग बंगाल के अकाल का प्रमुख कारण केवल खाद्यान्न की कमी मानते हैं परन्तु असल में अंग्रेजी हुकूमत की औपनिवेशिक नीतियां भी इसके लिए जिम्मेवार थीं। प्रसिद्ध प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने भी यही तर्क दिया है कि ‘विश्व युद्ध के दौरान भोजन की कमी की तुलना में औपनिवेशिक नीतियां मुख्य रूप से बंगाल के अकाल के लिए जिम्मेदार थीं’। आज़ादी के बाद देश के सामने प्रमुख चुनौती अपने नागरिकों के लिए भोजन उपलब्ध करवाना ही थी।

आने वाले कुछ वर्ष देश में अन्न की कमी लिए हुए आये और हम अनाज के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका पर सहायता के लिए निर्भर करते थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है हरित क्रांति से हमने न केवल सभी नागरिकों के लिए पर्याप्त अनाज पैदा किया बल्कि ज़रूरत से अतिरिक्त पैदावार होने लगी। हालांकि अनाज के उत्पादन में क्षेत्रीय विभिन्नतायें भी बड़े स्तर पर बनी रहीं। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से अनाज खरीदने और इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से घाटे वाले राज्यों में वितरित करने के उद्देश्य से भारतीय खाद्य निगम और लागत और कृषि मूल्य आयोग (CACP) की स्थापना 1963 में की गई थी। आने वाले समय में पीडीएस की भूमिका खाद्य कीमतों को स्थिर करने की व्यवस्था से आगे बढ़ कर सार्वभौमिक आधार पर कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए अनाज वितरित करने के लिए बफर स्टॉक बनाए रखने की भी बन गई।

लेकिन नव उदारवादी नीतियों के कार्यान्वयन के साथ, संरचनात्मक समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) की नीतियों के दौर में पीडीएस के लिए सरकार के दृष्टिकोण को भी बदल दिया है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर सरकारी खर्च में भारी कमी की गई और सार्वभौमिक पीडीएस को लक्षित प्रणाली में बदल दिया गया। हालांकि 2013 में ‘खाद्य के अधिकार आंदोलन’ के दबाव में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू किया गया। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के साथ ही 75% ग्रामीण और 50% शहरी आबादी पीडीएस के अंतर्गत आ गई।

मोदी शासन में देश की खाद्य सुरक्षा पर नए हमले

वर्तमान समय में उसी सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर नए सिरे से हमले हो रहे हैं, जिसने कोविड-19 महामारी के मुश्किल समय में देश के नागरिकों के पेट भरने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। हालांकि मोदी सरकार ने अपने शुरूआती वर्षों में ही भारतीय खाद्य निगम का रख-रखाव की लागत के लिए धन देने से मना कर दिया था। केवल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और और अन्य योजनाओं के लिए अनाज का भुगतान ही किया जा रहा था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय खाद्य निगम पर 3.81 लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज हो गया। कोविड संकट के दौरान भारत की खाद्य आत्मनिर्भरता के लिए एफसीआई का रणनीतिक महत्व स्पष्ट होने के बाद अब जाकर वर्ष 2021-22 में ही सरकार ने एफसीआई के कर्जे का भुगतान किया है। बीजेपी के नेतृत्व वाली NDA सरकार किसानों से अनाज खरीदने और उसे भंडार में रखने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रही है। दूसरी तरह यही सरकार देश के अलग-अलग हिस्सों में जनता के संसाधनों का प्रयोग करते हुए निजी क्षेत्र में कई भूमिगत स्टोर (साइलो) खोलने को प्रोत्साहन दे रही है। इसी प्रोत्साहन का परिणाम है कि अडानी एग्री लॉजिस्टिक्स लिमिटेड (एएएलएल) ने लगभग 9 लाख मीट्रिक टन भंडारण क्षमता वाले भूमिगत स्टोर (साइलो) देश के अलग-अलग राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में बना लिए हैं और 4 लाख मीट्रिक टन की क्षमता वाले सीलोन पश्चिम बंगाल और बिहार, यूपी, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात में बनाने जा रहा है।  

दरअसल हाल ही में सफल किसान आंदोलन के चलते वापस लिए गए तीन कृषि कानून भी देश की खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत घातक सिद्ध होने वाले थे। इनका मकसद ही था कृषि उत्पाद की सरकारी खरीद को कम करना और प्राइवेट मंडियों के जरिये निजी खरीद को बढ़ावा देना। जाहिर सी बात है जब सरकारी खरीद ही नहीं होगी तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अनाज कहां से आएगा। अगर इस योजना को लागू करना है तो आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत प्राइवेट गोदामों में खाद्यान्न को रखने की निश्चित सीमा एक बड़ी बाधा थी इसलिए ही इसे बदलने का प्रयास था। सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि पर प्रतिबन्ध को हटाने का भी प्रयास था। किसानों ने न केवल अपनी ज़मीन और कृषि को कॉर्पोरेट पंजों से बचाया है बल्कि देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी सुरक्षित किया है।

वर्तमान गेहूं संकट

हाल ही में हमारे देश में पैदा हुए गेहू संकट बाजार उन्मुख खाद्य नीति का एक बेहतरीन उदाहरण है जिसके चलते देश में खाद्यान्न की उपलब्धता अनिश्चितता में पड़ गई है। मौजूदा संकट की पृष्ठभूमि चाहे रूस-यूक्रेन संघर्ष बताया जा रहा हो लेकिन असली कारण भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार की नीतियां हैं। देश में वर्ष 2022 में 113.5 मिलियन टन गेहूं की बंपर फसल होने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन मई में, अपेक्षित फसल 105 मिलियन टन तक कम हो गई थी। इसे और घटाकर 98-100 मिलियन टन कर दिया गया। इतने में रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ गया और भारत सरकार युद्ध के कारण वैश्विक आपूर्ति व्यवधानों के बीच अपने गेहूं निर्यात के लिए बाजारों का विस्तार करने का अवसर खोजने में लग गई। इसी समझ के साथ भारत सरकार ने वर्ष 2022-23 में 10 मिलियन टन गेहूं निर्यात करने का लक्ष्य रखा था। निजी व्यापारी भी इस मौके को नहीं छोड़ना चाहते थे क्योंकि उनको गेहूं के निर्यात के बड़े अवसर और डॉलरों में मुनाफा दिख रहा था।  उन्होंने सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से अधिक कीमत देकर गेहूं खरीदना शुरू कर दिया ।

सरकार भी मूक दर्शक बनी रही। इस स्थिति का फायदा किसानों को पहुंचाने और PDS के लिए गेहूं की ज़रूरी मात्रा खरीदने के लिए न तो सरकार ने एमएसपी को बढ़ाया और न ही सरकारी खरीद तेज़ की। नतीजन देश में गेहूं के सरकारी भंडार में भारी कमी दर्ज की गई। सरकार को मज़बूरन सितंबर महीने में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा। इस निर्णय के चौतरफा विरोध के चलते सरकार को पहले से बुक किये गए आर्डर के अनुसार गेहूं को निर्यात करने की स्वीकृति देनी पड़ी। इन सब का यह फल हुआ कि वर्ष 2022 में सरकार द्वारा कुल गेहूँ की खरीद 187.92 लाख मीट्रिक टन रह गई जो कि पिछले वर्ष की खरीद 592.13 लाख मीट्रिक टन से बहुत कम है।  हालांकि, सार्वजनिक स्टॉक अभी भी प्रारंभिक स्तर से कुछ ही ऊपर थे लेकिन इसने देश में संभावित खाद्य सुरक्षा संकट की स्थिति पैदा कर दी। अप्रैल 2022 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास गेहूं का प्रारंभिक भण्डार 18.99 मिलियन टन था, जबकि इस महीने के लिए सामान्यतया बफर मानदंड 21.04 मिलियन टन था। यह सरकार की नीति का परिणाम है जो भोजन को अपने नागरिकों की मूलभूत आवश्यकता के रूप में नहीं देखती है।

वर्तमान संकट का जनता पर प्रभाव

इस स्थिति ने देश की खाद्य सुरक्षा के बारे में चिंता पैदा कर दी जिसके दो घटक हैं। पहला वास्तव में लोगों तक खाद्यान्न पहुँचाने का सबसे स्पष्ट उद्देश्य है और दूसरा खाद्यान्नों की कीमतों को नियंत्रण में रखना। एक मजबूत कार्यशील सार्वजनिक वितरण प्रणाली जो लोगों के एक बड़े वर्ग को अनाज पहुंचाती है, खुले बाजार में भी अनाज की कीमतों को भी प्रभावित करती है । हमारे देश में इसका उदाहरण मिलता है केरल और तमिलनाडु में जहाँ ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक द्वारा मापी गई ग्रामीण मुद्रास्फीति की दरें बाकी देश से काफी कम हैं। इसका प्रमुख कारण है इन दोनों राज्यों में मज़बूत और प्रभावशाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली। सामान्यतया महंगाई के दौर में भी सरकारी स्टॉक से खाद्यान्न जारी करने से खुले बाजार में अनाज की कीमतों में कमी आती है।

इसलिए गेहूं की कमी पैदा होने के साथ-साथ इस संकट का तत्काल प्रभाव गेहूं और गेहूं के आटे की खुदरा लागत में मूल्य वृद्धि हुआ। पिछले वर्ष की तुलना में, अगस्त, 2022 तक गेहूं के घरेलू खुदरा मूल्य में 22% और गेहूं के आटे की कीमत में 17% की वृद्धि हुई थी। इसके अतिरिक्त गेहूं की कमी का सामना करने के लिए सरकार ने कोविड-19 महामारी में अनाज वितरण पैकेज में 5.5 मिलियन मीट्रिक टन चावल शामिल करने करने का निर्णय लिया। इसका मतलब है कि सरकार ने कई राज्यों में राशन डिपो में लोगों को गेहूं के स्थान पर चावल वितरित किये। सरकार से ही प्रोत्साहन पाकर पिछले कई वर्षों में प्रयोग में रहने से गेहू ज्यादातर परिवारों के खाने का अहम हिस्सा बन गया है।

मीडिया की कई खबरों के अनुसार राज्यों में लोगों द्वारा राशन में मिले चावल को बाजार में बेचकर ऊंची कीमत पर गेहू या गेहूं का आटा खरीदने के मामले सामने आएं हैं। इसके चलते लोगों के लिए भोजन की उपलब्धता में कमी हुई है और वह कुपोषण की खाई में धकेले जा रहे हैं। इस दौरान महंगाई की दर लगातार ऊँची बनी हुई है जो चिंता पैदा करती है।  वर्ष 2022 के अधिकांश महीनों में, खाद्यान्न की कीमतें 2021 में इसी समय के प्रचलित कीमतों की तुलना में 7-9 प्रतिशत अधिक रही हैं। खाद्यान्न की उच्च मुद्रास्फीति आम लोगों की खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस वर्ष खाद्य कीमतों में 20% से अधिक की वृद्धि हुई है।

आगे का रास्ता

कोविड-19 काल के दौरान भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने भूख से लड़ने में अपनी-अपनी योग्यता साबित की है। इससे पहले भी वर्ष 2007-08 के वित्तीय संकट के बाद पिछले वैश्विक खाद्य मूल्य संकट के प्रभावों को कम करने में भी हमारे देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । उस समय का आकलन करें तो भारतीय बाजार की तुलना में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेहूं और चावल की कीमतें कई गुना बढ़ गईं थीं। हमारे यहां भी गेहूँ और चावल के दाम ज़रूर बढ़े, लेकिन वे अंतर्राष्ट्रीय कीमतों की तुलना में कुछ भी नहीं थे। 2005-2008 के बीच की अवधि में गेहूं की कीमतें वैश्विक स्तर पर 170% की वृद्धि हुई परन्तु इसकी तुलना में भारत में केवल 21% बढ़ीं थी । इसी अवधि में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चावल की कीमत में 230% बढ़ोत्तरी की तुलना में भारत में  केवल 16% की वृद्धि दर्ज की गई थी। यह इसलिए संभव हो पाया था क्योंकि भारत सरकार की नीति खाद्य बाजार को नियमित करने की थी।       

अपने नागरिकों का पेट भरना सभी देशों की सरकारों की जिम्मेदारी है और सबके लिए भोजन की उपलब्धता पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। भारत में भी सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए बाध्य है। यह तभी संभव है जब कृषि को एक सामान्य व्यवसाय की तरह नहीं समझा जाए। कृषि की पूरी प्रक्रिया में सरकारी सहायता बहुत महत्वपूर्ण है। कृषि उपज की खरीद में भी सरकार जिम्मेदारी ले। देश की खाद्य सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए कृषि और अनाज के व्यवसाय को प्राइवेट क्षेत्र के हवाले नहीं किया जा सकता। किसानों की उपयुक्त आमदनी, खेत मज़दूरों की न्यूनतम दिहाड़ी और नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए न कि कॉर्पोरेट के मुनाफे बढ़ाना। इसके लिए हमें अपनी पीडीएस को मजबूत करने की आवश्यकता है, जिसके लिए सबसे कमजोर वर्गों को खाद्य मुद्रास्फीति से बचाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत खाद्यान्नों के आवंटन में वृद्धि की आवश्यकता है।

(विक्रम सिंह ऑल इंडिया एग्रिकल्चर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)

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