कर्नाटक के मतदाताओं ने देश को दिखा दिया है कि यदि उनके सामने भाजपा का ठोस विकल्प पेश किया जाता है तो वे जुमलों, सांप्रदायिक उन्माद और हिंदुत्व के नारों के झांसे में नहीं आयेंगे और साफ़-सुथरी राजनीति, भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम एवं जनकल्याणकारी मुद्दों पर विकल्प पेश करने वालों को जनादेश देने में नहीं हिचकेंगे।
पिछले 2 साल से कर्नाटक हिंदुत्व की आंच पर पकाया जा रहा था। देखने में साफ़ लगता था कि गुजरात, यूपी के बाद अब कर्नाटक में भी मुस्लिम विरोधी सोच बड़े हिस्से में गहरे तक पेवश्त हो चुकी है। कर्नाटक में हिंदुत्व की प्रयोगशाला यदि मजबूती से पांव जमा लेती, तो बाकी दक्षिण को साधने की दिशा में बढ़ना तय था। फिलहाल दक्षिण में हिंदुत्व की पताका फहराने की मुहिम को जोरदार झटका लगा है। तेलंगाना में जरूर भाजपा के लिए हाथ-पांव मारने का अवसर मौजूद है, लेकिन लगता नहीं कि इस बार भी वहां वह कोई बड़ा उलटफेर कर पाने में समर्थ हो सकेगी।
पिछले 9 वर्षों के दौरान मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया में मोदी और भाजपा को केंद्र कर इतना कुछ लिखा गया है कि देश में प्रगतिशील हिस्से के भीतर तक उसके प्रभाव को लेकर स्थायी भाव तैयार हो चुका है। “आयेगा तो मोदी ही” का जुमला इस कदर सभी के सिर चढ़कर बोलने लगा है कि वास्तव में जमीनी स्थिति क्या है, के बारे में अखबारों में लिखने वाले टिप्पणीकार इसकी व्याख्या करना बंद का चुके हैं।
आइये एक बार पीछे की ओर मुड़कर जायजा लेते हैं। 2012 में भाजपा शासित राज्यों की संख्या थी 5 और 3 सहयोगी दलों के साथ मिलकर यह संख्या 8 थी। जबकि केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के पास 12 राज्य थे और 2 अन्य राज्यों में यह गठबंधन सरकार चला रही थी। लेफ्ट के पास एक राज्य था। 2017 में भाजपा राष्ट्रीय पटल पर पूर्ण प्रमुखता में नजर आती है, जब इसके पास खुद की 12 राज्य सरकारें थीं, और 7 राज्यों में गठबंधन सरकार के साथ यह संख्या 19 तक पहुंच गई थी। उस समय तो मानचित्र पर भगवा रंग इस कदर हावी था कि बाकी रंग कहां हैं, इसे ढूंढने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता था।
लेकिन 2019 से पहले ही 2018 के अंत तक राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आ गया था। भाजपा राज्य सरकारों की संख्या 12 से घटकर 10 पर आ चुकी थी और गठबंधन सरकार भी 6 पर सिमट चुकी थी। क्षत्रप दलों की राज्य सरकारें 5 से बढ़कर 7 हो गई थीं। कांग्रेस को पंजाब के बाद राजस्थान में भी सफलता प्राप्त हुई थी और मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्य में कई दौर के बाद भाजपा को इसने शिकस्त दी थी।
2018 के अंत तक कई राजनीतिक समीक्षकों द्वारा भाजपा को 225-250 सीटों तक सिमटा दिया गया था। आरएसएस की ओर से बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उड़ीसा में नवीन पटनायक के साथ एक नए किस्म की पींग बढ़ाई जा रही थी। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को आरएसएस मुख्यालय में निमंत्रण इसी कड़ी का एक हिस्सा माना जा रहा था। संघ के नजदीकी भाजपा नेता नितिन गडकरी की ओर से स्वतंत्र बयानबाजी चलने लगी थी। भाजपा की विनाशकारी आर्थिक नीतियों और राफेल सौदे में घोटाले की आंच से खुद को बचाने के लिए मोदी-शाह मुक्त भाजपा के लिए बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र और तमिलनाडु में ठोस आधार खोजने की समानांतर पहल चल रही थी।
लेकिन पुलवामा कांड ने सबकुछ उलट-पुलट दिया और समूचा राष्ट्र जब अगले दो सप्ताह तक शोक में डूबा हुआ था, नरेंद्र मोदी की ओर से राजस्थान सहित देशभर में घूम-घूमकर पाकिस्तान, आतंक और राष्ट्रवाद के नारे को बुलंद किया जाना, सैनिकों की शहादत पर वोट की अपील और बाद में बालाकोट एयर स्ट्राइक ने देश में बहुसंख्यक मतदाताओं को अगले 15 दिनों तक राष्ट्रवाद के ज्वार में पूरी तरह से जकड़कर रख दिया था। विपक्षी दल भी पूरी तरह से छिन्न-भिन्न थे और उनके सामने एक बेहद शक्तिशाली संगठन, जिसके पास अकूत धन और राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं सोशल मीडिया के सभी प्रारूपों में भारी बढ़त थी, से अकेले-अकेले लड़ने का विकल्प बचा था। नतीजा भाजपा अकेले दम पर 303 सीटों पर विजयी हुई।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लड़ाई जैसे बिना अस्त्र-शस्त्र के अकेले विशाल सेना से भिड़ने वाली साबित हुई। कांग्रेस में फूट का जो सिलसिला 2014 में ही शुरू हो गया था, वह 2019 आते-आते अपने चरम पर था, लेकिन दूसरी लगातार हार के बाद तो इंदिरा गांधी के शासन काल से संगठन पर कब्जा जमाये पुराने लोगों ने जैसे राहुल गांधी के खिलाफ युद्ध का बिगुल ही फूंक दिया था। यहां तक कि अपेक्षाकृत नए और राहुल गांधी के खास मित्र मंडली में से भी अधिकांश ने पाला बदलने में ही अपनी भलाई समझी और भाजपा में मंत्री या पदाधिकारी बन गये। मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा एक हकीकत बनता जा रहा था।
लेकिन जमीन पर लगातार किसान, मजदूर, आदिवासी, महिला, दलित और युवा रोजगार विरोधी नीतियां देश को मजबूर कर रही थीं कि एक समावेशी भारत की परिकल्पना पर चलने वाले दल की जरूरत आज हर दौर से अधिक है। कांग्रेस में असंतुष्टों की बहस लगातार तेज होती जा रही थी, और पंजाब चुनाव केंद्रीय नेतृत्व की अक्षमता की भेंट चढ़ गया। हालांकि कांग्रेस की विफलता का फायदा आप पार्टी ने हाथों-हाथ लेकर इस शून्य को भरा, और इसे भाजपा-अकाली जो पहले ही अलग हो चुके थे, को नहीं लेने दिया।
यह एक निर्णायक घड़ी थी। इस संकट की घड़ी में राहुल गांधी ने कुछ युवाओं के साथ कन्याकुमारी से कश्मीर तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की शुरुआत कर अपने घेरे को तोड़ने की पहल की। इसके नतीजे शानदार रहे। सिर्फ जनाधार ही नहीं बढ़ा, बल्कि देश की विविधता, बुनियादी मांगों, लोग वास्तव में क्या चाहते हैं, वे बुनियादी सवाल कौन से हैं और लोगों से कनेक्ट बनाने की समझ कांग्रेस के नेतृत्वकारी हिस्से में बनी। इस बीच भाजपा को गुजरात में जबर्दस्त जीत भी मिली, लेकिन बेहद सीमित संसाधनों में भी कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश में जनता द्वारा जीत की भेंट ने खोया आत्मविश्वास अवश्य लौटाया।
कर्नाटक में पंजाब के स्यापे और हिमाचल में जीत के मायने से प्राप्त अनुभवों का सहारा लेकर कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों को आधार बनाकर चुनावी मैदान में कूदने की रणनीति तैयार की। पूर्व मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की दावेदारी को इस बार राहुल गांधी के नेतृत्व ने सुलझाया और कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कर्नाटक के ही दिग्गज मल्लिकार्जुन खड़गे का मार्गदर्शन पूरे चुनाव अभियान में एकताबद्ध अभियान के रूप में सामने आया। नतीजा भाजपा का 40% कमीशनखोरी का मुद्दा 6 महीने पहले से ही कांग्रेस ने राज्य में सेट कर दिया था।
भाजपा अपने अंतर्कलह को अंत तक सलटा नहीं सकी। भाजपा के दिग्गज लिंगायत नेता बीएस येद्दुरप्पा और उनके बेटे को किनारे करने की मुहिम को नए उभर रहे नेताओं ने हवा दी। भाजपा के लिए चाणक्य कहे जाने वाले गृहमंत्री की सीधी दखल और इस बार गैर-लिंगायत नेता को मुख्यमंत्री बनाये जाने की संभावनाओं, मुख्यमंत्री बोम्मई की प्रशासनिक विफलता, बेंगलुरु महानगर में भयानक जाम और थोड़ी बारिश में भी बाढ़ की स्थिति के साथ-साथ भाजपा और संघ समर्थित संगठनों के द्वारा साल भर हिंदू-मुस्लिम भावनाओं को भड़काने की कवायद ने शहरी मतदाताओं और मध्यवर्ग के एक हिस्से को निराश ही किया।
कांग्रेस ने इस बार संभवतः पहली बार अपने कोर वोटर को पहचाना। दलित, पिछड़े, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के मुद्दों को प्रमुखता से जगह दी। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस को इस बार करीब-करीब हर समुदाय से वोट हासिल हुए हैं। यहां तक कि यदि चुनाव के अंतिम चरण पर गौर करें तो लग रहा था मोदी कर्नाटक में जीतने के लिए नहीं बल्कि 2024 के चुनावों में अपनी अपरिहार्यता के लिए रोड शो कर रहे हैं। जबकि राहुल गांधी ने अपने रोड शो को कैंसिल कर गिग वर्कर्स की समस्याओं को सुनने, गिग वर्कर्स के स्कूटर पर बैठकर सवारी करने या सार्वजनिक परिवहन का सफर कर महिला मतदाताओं के लिए मुफ्त परिवहन के चुनावी मुद्दे को हाईलाइट करने पर जोर दिया। यह छवि गरीब और मध्य वर्ग के एक हिस्से में निश्चित रूप से घर कर रही है।
कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के बाद से ही अब सभी का ध्यान सीधे 2024 की ओर चला गया है। आज देखें तो राहुल गांधी अपने नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी की विरासत और शाही खानदान की स्थापित छवि से दूर मोदी सरकार द्वारा जबरन संसद सदस्यता और लुटियन जोन के सांसद आवास से मुक्त एक आम नागरिक बन गये हैं। वहीं दूसरी तरफ एक चाय बेचने वाले की गढ़ी गई छवि से कोसों दूर नरेंद्र मोदी की छवि भारी लाव-लश्कर के साथ सरकारी खर्च पर अंगरक्षकों की सेना के साथ रोड-शो करने वाले की होती जा रही है। 2024 तक टैक्स पेयर्स के पैसे से हजारों करोड़ रूपये का संसद और पीएम आवास भी बनकर तैयार हो जाने वाला है। भव्य राम मंदिर, नए संसद और धारा 370 को खत्म करने जैसे मुद्दों के अलावा भाजपा के पास देने के लिए जो है, वह इतना निरर्थक और बौना है कि वह भाजपा बनाम संयुक्त विपक्ष का मुकाबला करने के लिए नाकाफी होगा।
543 सीटों में से 500 सीटों पर विपक्षी एकता की मुहिम की शुरुआत को कर्नाटक चुनाव से बड़ा आवेग मिला है। नीतीश कुमार की अगुआई में विपक्षी राज्यों और कांग्रेस के साथ बातचीत का सिलसिला अब तेजी से जोर पकड़ेगा। कम से कम 475 सीटों तक इसे सीधी टक्कर की लड़ाई बनाने का लक्ष्य विपक्ष की ओर से लिया गया है। 2019 से पहले तक इसे इतनी शिद्दत से नहीं लिया गया था, क्योंकि तबतक सांप्रदायिक शक्तियों को उभारकर गाय के नाम पर माब लिंचिंग की घटनाएं हो रही थीं, लेकिन दुबारा सत्ता में आने के बाद संवैधानिक संस्थाओं का गला घोंटकर जिस प्रकार कश्मीर को अपने कब्जे में लिया गया, देशभर में विपक्ष की स्थिर सरकारों के खिलाफ ईडी, सीबीआई का दुरूपयोग किया गया, कई राज्यों में धन-बल और ईडी का डर दिखाकर सत्ता हथियाई गई और कई राज्यों में यह प्रयास अधूरा छूटा है, उसने सभी को एकजुट रहने के लिए मजबूर कर दिया है।
आज महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और झारखंड से ही कम से कम 50-60 सीटों का भाजपा को सीधे नुकसान होता दिख रहा है। यदि इसमें तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा, बिहार को भी जोड़ लें और एमपी, राजस्थान में पुलवामा पृष्ठभूमि को हटा दें तो कम से कम 2 दर्जन और सीटों का नुकसान उसे एक बार फिर से 230-250 की रेंज में डाल देता है। इसके ऊपर पूर्वी भारत से पश्चिम की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अभी होनी शेष है। यूपी का रणक्षेत्र पूरी तरह से भाजपा के लिए खाली छोड़ दिया गया है। यदि कांग्रेस पार्टी की ओर से यूपी के लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाली शक्तियों को समेटकर एक मजबूत चुनौती देने की इच्छा शक्ति दिखाई जाती है तो मजबूरन सपा (अखिलेश यादव) को अपने सुरक्षा कवच से बाहर आने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
यह अखिलेश यादव और सपा के लिए कर्नाटक की जेडीएस होने या ममता बनर्जी की तरह मजबूत क्षत्रप बनने का विकल्प है। मायावती का मतदाता आधार लगातार खत्म होता जा रहा है, यूपी में प्रगतिशील ताकतें किसी ईमानदार पार्टी की तलाश में पिछले कई दशक से बाट जोह रही हैं। यदि ऐसा संभव हुआ तो मुस्लिम और दलित वर्ग का एक हिस्सा उसके साथ मजबूती से जुड़ेगा। हालांकि यूपी के बिना भी विपक्ष भाजपा और संघ को पटखनी दे सकता है, इसकी एक बानगी कर्नाटक की जनता ने दिखा दी है, जहां लिंगायत और वोक्कालिगा की ऐतिहासिक पकड़ आज धूल चाट रही है।
उड़ीसा, तेलंगाना, जम्मू-कश्मीर और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारों के मुखिया अंदर ही अंदर इस नए विकल्प के स्वागत में ही खड़े नजर आने वाले हैं। सभी राज्य सरकारों को आज केंद्र की असीमित ताकत और जीएसटी की मार से मुक्ति चाहिए। ऐसा होगा या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन चंद क्रोनी पूंजीपतियों और शेयर इंडेक्स की धड़कनों के साथ उभने-चूभने वालों के आधार पर कोई कैसे 140 करोड़ लोगों को बरगला सकता है, इसका जीता-जागता उदाहरण तो फिलहाल देश भुगत रहा है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)