मॉब लिंचिंग की घटनाओं में आपराधिक है खाकीवर्दीधारियों की भूमिका

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इधर कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जबकि किसी न किसी राज्य से मॉब लिंचिंग यानि कि भीड़ द्वारा हिंसा जिसमें काफी मामलों में इसका शिकार हुए व्यक्ति की मृत्यु तक हो जा रही है, की खबर न आ रही हो। यह स्थिति देश के अन्दर अराजकता, कानून के राज्य का अभाव एवं विभिन्न समुदायों में गहरा अविश्वास तथा शत्रुता का प्रतीक है। इसकी एक विशेषता यह है कि मॉब लिंचिंग अधिकतर अल्प संख्यक (मुसलमान), ईसाई, दलित तथा कमज़ोर तबकों के साथ हो रही है। इसमें अधिकतर हिन्दू-मुसलमान, सवर्ण-दलित वैमनस्य तथा विभिन्न समुदाय/धर्म के व्यक्तियों के बीच प्रेम सम्बन्ध आदि कारक पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त राजनीतिक प्रतिद्वंदिता भी इसका कारक पायी जाती है। 

पूर्व में इस प्रकार की घटनाएं बहुत कम होती थीं। यदाकदा आदिवासियों में किसी महिला को डायन करार देकर उस पर हिंसा की जाती थी। कभी-कभार साम्प्रदायिक दंगों में इस प्रकार की हिंसा होना पाया जाता था। परन्तु इधर कुछ वर्षों से भीड़ द्वारा हिंसक हो कर मॉब लिंचिंग की घटनाओं में एक दम वृद्धि हुयी है। डाटा दर्शाता है कि 2012 से 2014 तक 6 मामलों की अपेक्षा 2015 से अब तक 121 घटनाएं हो चुकी हैं। यह वृद्धि भाजपा शासित राज्यों में अधिक पायी गयी है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पाया गया है की 2009 से लेकर अब तक मॉब लिंचिंग के 297 मामले हुए हैं जिनमें से 66% भाजपा शासित राज्यों में हुए हैं। इनमें अभी तक 98 लोग मर चुके हैं तथा 722 घायल हुए हैं। 2009 से 2019 तक मॉब लिंचिंग की घटनाओं में 59% मुसलमान थे। इनमें से 28% घटनाएं पशु चोरी/तस्करी के सम्बन्ध में थीं। काफी घटनाएं गोमांस ले जाने की आशंका को लेकर थीं। कुछ घटनाएं बच्चा चोरी की आशंका को ले कर भी थीं। 

मॉब लिंचिंग की घटनाओं में देखा गया है कि इनमें हिंदुत्व के समर्थकों की अधिक भागीदारी रही है। यह सर्वविदित है कि भाजपा/आरएसएस की हिंदुत्व की राजनीति का मुख्य आधार हिन्दू- मुस्लिम विभाजन एवं ध्रुवीकरण है। माब लिंचिंग के दौरान मुसलमानों से “जय श्रीराम” तथा “भारत माता की जय” के नारे लगवाना समाज के हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के अंग हैं। इधर की काफी घटनाओं में इस प्रकार की हरकत दृष्टिगोचर हुयी है। काफी जगह पर लोगों के पहनावे तथा दाढ़ी-टोपी का भी उपहास उड़ाया गया है। दरअसल ऐसा व्यवहार मुसलमानों का मनोबल गिराने तथा अपमानित करने के इरादे से किया जाता है। वास्तव में मॉब लिंचिंग भाजपा की नफरत की राजनीति का एक महत्वपूरण अंग है। भाजपा शासित राज्यों में माब लिंचिंग के आरोपियों पर प्रभावी कार्रवाई न करना उनको प्रोत्साहन देना है। 

मॉब लिंचिंग की घटनाओं में यह पाया गया है कि पुलिस का व्यवहार अति पक्षपातपूर्ण रहता है। बहुत सी घटनाओं में पाया गया है कि मौके पर पुलिस की उपस्थिति के बावजूद घटना को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जाती। अधिकतर मामलों में पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है जो कि उसकी कर्तव्य की अवहेलना का प्रतीक है और एक सरकारी कर्मचारी का दंडनीय अपराधिक कृत्य है। यह एक दृष्टि से राज्य की अपने नागरिकों की जानमाल की सुरक्षा सुनिश्चित करने के कर्तव्य की अवहेलना है तथा कुछ विशेष समुदायों के प्रति वैमनस्य का भी प्रतीक है। यह राज्य के फासीवादी रुझान का प्रतीक है जो अपने विरोधियों को नुकसान पहुंचाने तथा मनोबल गिराने का उपक्रम है। 

इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि एक समुदाय की हिंसा को उचित ठहराने और अपराध को हल्का करने के इरादे से हिंसा के शिकार हुए लोगों के विरुद्ध झूठे/ सच्चे क्रासकेस दर्ज कर दिए जाते हैं और उनको भी आरोपी बना दिया जाता है। इससे हिंसा के दोषी लोगों को बहुत लाभ पहुंचता है और केस कमज़ोर हो जाता है। इन मामलों की तफ्तीश में पुलिस की भूमिका बहुत पक्षपात पूर्ण रहती है। वह हिंसा के शिकार पक्ष के सुबूत या ब्यान को सही ढंग से दर्ज नहीं करती जिस कारण उनका केस कमज़ोर हो जाता है। कई मामलों में पाया गया कि भीड़ हिंसा के शिकार लोग वैध तरीके से जानवर खरीद कर ले जा रहे थे और उनके पास खरीददारी सम्बन्धी कागजात भी थे जो गोरक्ष्कों द्वारा छीन लिए गये और उन पर पशु तस्करी का आरोप लगा कर मारपीट की गयी। पुलिस ने भी गोरक्षकों की बात मान कर पीड़ित लोगों पर ही पशु तस्करी का आरोप लगा कर चालान कर दिया जबकि पुलिस को उनकी बात का सत्यापन करना चाहिए था। परन्तु ऐसा जानबूझ कर नहीं किया जाता। पहलू खान का मामला इसका ज्वलंत उदहारण है। 

जैसा कि ऊपर अंकित किया गया है कि मॉब लिंचिंग के मामलों में पुलिस का व्यवहार अधिकतर पक्षपातपूर्ण पाया जाता है। यह वास्तव में पीड़ित वर्गों के प्रति राज्य के व्यवहार को ही प्रदर्शित करता है। हाल में झारखण्ड में तबरेज़ की हुई मॉब लिंचिंग इसका ज्वलंत उदाहरण है। 18 जून को तबरेज़ पर चोरी की आशंका में तब हमला किया गया जब वह रात में जमशेदपुर से अपने गांव सरायकेला जा रहा था। उसे रात भर बुरी तरह से पीटा गया। अगले दिन उसे पुलिस के सुपुर्द किया गया परन्तु पुलिस ने उसे कोई डाक्टरी सहायता नहीं दिलवाई जबकि वह बुरी तरह से घायल था। इतना ही नहीं जब उसके घर वाले उससे मिलने थाने पर गए तो उनके अनुरोध पर भी उसे इलाज हेतु नहीं भेजा गया। इसके बाद उसे चोरी के मामले में अदालत में पेश करके जेल भेज दिया गया। जहां पर भी उसे उचित डॉक्टरी सहायता नहीं दिलाई गयी जिसके फलस्वरूप 22 जून को उसकी मौत हो गयी। यह बड़ी चिंता की बात है कि तबरेज़ के मामले में न तो पुलिस, न अदालत और न ही जेल अधिकारियों ने उसे नियमानुसार डॉक्टरी सहायता दिलाने की कार्यवाही की जिसके अभाव में उसकी मौत हो गयी। राज्य/पुलिस का यह व्यवहार राज्य के कानून के शासन को जानबूझ कर लागू न करना बहुत चिंता की बात है। 

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि माब लिंचिंग केवल हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-दलित या हिन्दू-ईसाई समस्या नहीं है बल्कि राज्य द्वारा नागरिकों की जानमाल की सुरक्षा की गारंटी, कानून का राज एवं न्याय व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू होने देने में विफलता है। यह राज्य के जनविरोधी फासिस्ट रुझान का प्रबल प्रतीक है जिसका डट कर मुकाबला किये जाने की ज़रुरत है। इसके साथ ही यह भाजपा/आरएसएस की नफरत की राजनीति का दुष्परिणाम भी है जिसके विरुद्ध सभी धर्मनिरपेक्ष, जनवादी एवं लोकतान्त्रिक ताकतों को गोलबंद होना होगा।

(लेखक एसआर दारापुरी सेवानिवृत्त आईपीएस और सामाजिक-राजनीतिक संगठन जन मंच के संयोजक हैं।) 

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