दुनिया में बहु-ध्रुवीयता की संभावना पर चल रही चर्चा के सिलसिले में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ रशियन फेडरेशन (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तराधिकारी) ने हाल में एक विश्लेषण प्रकाशित किया। उसमें ब्रिक्स प्लस समूह में शामिल विभिन्न देशों की सरकारों के वर्गीय चरित्र का जायजा लिया गया।
उसी क्रम में कहा गया- “भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी 2024 में लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में आई। उसकी ‘राष्ट्रवादी’ घोषणाओं के भीतर पूंजी को लाभ पहुंचाने का उसका काम छिपा हुआ है। नरेंद्र मोदी के दशक भर के शासनकाल में अरबपतियों की संख्या तीन गुना बढ़ी है।
उनके दमकते धन की कीमत करोड़ों भारतीय नागरिकों के भूख और गरीबी के जरिए चुकाई गई है। अध्ययन आधारित गणनाओं के मुताबिक आज भारत में धन की गैर-बराबरी औपनिवेशिक काल से भी ज्यादा है।”
(https://msk.kprf.ru/2024/12/28/261672/) दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भारत की मुख्यधारा की राजनीति में शायद ही समूह मौजूद है, जो आज के भारत की असल कथा को इस रूप में व्यक्त करता हो।
भारत में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी का जिक्र आज वैश्विक चर्चा में एक मिसाल के तौर पर किया जाता है। इसी तरह भूख तथा गरीबी की और विकराल हुई स्थिति एक जाना-पहचाना तथ्य है। उतना ही जाना-पहचाना तथ्य, जितना भारतीय अर्थव्यवस्था पर मोनोपॉली घरानों का शिकंजा कसना है।
मोनोपॉली घरानों की जब कभी चर्चा होती हैं, उनमें एक नाम का अक्सर उल्लेख होता है। वे हैं-उद्योगपति गौतम अडानी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी निकटता ने उन्हें और उनके उद्योग समूह को देश में एक राजनीतिक मुद्दा बना रखा है।
खास कर 24 जनवरी 2023 को अडानी समूह के बारे में जारी हिंडनबर्ग रिपोर्ट और गौतम अडानी तथा उनकी कंपनी के अन्य अधिकारियों के खिलाफ अमेरिकी अदालत में दायर मुकदमे ने इस मुद्दे को गरमाए रखा है।
शॉर्ट सेलिंग का कारोबार करने वाली अमेरिकी कंपनी हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया था कि अडानी समूह ने विदेशों में फर्जी कंपनियां बनाईं और उनके माध्यम से अवैध धन को सफेद बनाते हुए भारत में अडानी ग्रुप के शेयरों के भाव को कृत्रिम रूप से बढ़ाया।
अमेरिकी अदालत में दायर मुकदमे में इल्जाम लगाया गया है कि अडानी ग्रुप ने अमेरिका में ठेके हासिल करने की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए भारत में सैकड़ों करोड़ रुपए की रिश्वत दी।
इन दोनों मामलों में ना सिर्फ भारत सरकार, बल्कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के समर्थक समूहों का पूरा इकोसिस्टम अडानी के बचाव में खड़ा होता दिखा है। भारत सरकार ने संसद में इन मामलों पर बहस नहीं होने दी है, जबकि सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल के इकोसिस्टम ने अडानी समूह पर आरोपों को भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने की कोशिश के रूप में पेश किया है।
इस मुद्दे को उठाने वाले विपक्षी नेताओं या मीडिया समूहों पर यहां तक आरोप लगाए गए हैं कि वे विदेशी ताकतों के इशारे पर काम करते हुए भारत को कमजोर करने की साजिश का हिस्सा बन गए हैं।
गौतम अडानी के साथ नरेंद्र मोदी का रिश्ता एक ज्ञात तथ्य है। ये रिश्ता कैसे बना और किस तरह अपने-अपने क्षेत्रों में दोनों का साथ-साथ उदय हुआ, यह कथा गुजरे दशकों के दौरान देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में विस्तार से बताई गई है। मई 2023 में लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में इस कथा को लेखक पंकज मिश्र ने कुछ इस तरह संक्षेप में समेटा-
‘ये तथ्य लंबे समय से ज्ञात रहे हैं। दो दशक से भारतीय पत्रकारों ने मोदी और अडानी के अंतर्संबंधित उदय पर से परदा हटाने की कोशिश में कानूनी धमकियों का सामना किया है’।
‘जब 2002 में गुजरात में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा में कथित भागीदारी के आरोप में मोदी के अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की यात्रा करने पर पाबंदी लगी हुई थी, और अनेक भारतीय कारोबारी उनसे संबंध रखने में हिचक रहे थे, अडानी ने अपने सहयोगी (मोदी) का पुनर्वास कराने के लिए कड़ी मेहनत की’।
‘2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी ने उस समर्थन को वापस लौटाया है। उन्होंने अडानी को निजी हवाई अड्डों और बंदरगाहों का सबसे बड़ा संचालक बना दिया है। साथ ही उन्होंने अडानी को कोयला संचालित बिजली संयंत्रों का अग्रणी उत्पादक बना दिया है’।
‘उनके नेतृत्व काल में भारत पर्यावरणीय संकट में फंसा है। भारत जहरीले स्मॉग, गर्म हवाओं, सूखती नदियों, भू-जल के गिरते स्तर और भू-स्खलन जैसी समस्याएं झेल रहा है। फिर भी जीवाश्म ईंधन (fossil fuel) के कारोबारी अडानी को उन्होंने कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए कार्यरत उद्योगपति की भूमिका सौंपी है।’ (https://www.lrb.co.uk/the-paper/v45/n09/pankaj-mishra/the-big-con)
बहरहाल, अडानी इस पूरी कथा का सिर्फ एक अध्याय ही हैं। बेशक, मोदी के शासनकाल में अडानी का उदय चकाचौंध कर देने वाली घटना रही है। लेकिन उससे चकमाई आंखों से पूरी कथा को ओझल हो जाने देना हमें किसी निष्कर्ष या समाधान की तरफ नहीं ले जा सकता।
गौरतलब है कि आज भारत में अडानी ग्रुप का ही अकेला मोनोपॉली घराना नहीं है। बल्कि अनेक उद्योग समूहों ने अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों पर अपनी मोनोपॉली कायम कर ली है। उन क्षेत्रों में वे समूह मनमाने ढंग से निवेश संबंधी फैसले ले रहे हैं और उत्पादों का मूल्य निर्धारण कर रहे हैं।
इस सारी प्रक्रिया को इस मुकाम तक पहुंचाने में उन नीतियों का योगदान है, जिन पर नरेंद्र मोदी सरकार पहले की सरकारों की तुलना में अधिक आक्रामक ढंग से आगे बढ़ी है। मगर वे नीतियां मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने के पहले अस्तित्व में आ चुकी थीं।
भारत में कितने उद्योग समूहों का एकाधिकार (monopoly) या द्वि-अधिकार (duo-poly) स्थापित हुआ है, इस बारे में अब हमारे पास ठोस जानकारियां हैं। मसलन, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने डेढ़-पौने दो साल पहले मोनोपॉली कायम होने की परिघटना और उसके परिणामों का अपने शोध-पत्र (https://www.brookings.edu/wp-content/uploads/2023/02/3a_Acharya-BEPA-presentation-March-30-2023-v2.pdf) में विस्तार से जिक्र किया था।
आचार्य ने निम्नलिशित समूहों की पहचान मोनोपॉली घरानों के रूप में कीः
- रिलायंस समूह
- टाटा ग्रुप
- आदित्य बिड़ला ग्रुप,
- अडानी ग्रुप
- भारती एयरटेल
हालांकि कुछ विश्लेषकों के मुताबिक जिंदल समूह भी लगभग मोनोपॉली घराने की हैसियत में पहुंच गया है। बहरहाल, उसे छोड़ कर फिलहाल हम अपने को विरल आचार्य के अध्ययन तक सीमित रखते हैं। उनकी कुछ टिप्पणियों पर ध्यान देना उचित होगा। जाहिर है, ये टिप्पणियां उन्हीं समूहों के बारे में हैं, जिनकी पहचान उन्होंने मोनोपॉली घरानों के रूप में की है। आचार्य के प्रमुख निष्कर्ष हैः
- ‘बड़े पांच कंपनी समूहों’ की मूल्य निर्धारण की ताकत संभवतः भारत में जारी ऊंची मुद्रास्फीति दर यानी महंगाई के लिए जिम्मेदार है
- अपने हाथों में औद्योगिक संकेंद्रण के कारण ये पांच बड़े समूह अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनियों की तुलना में अपने उत्पादों की अधिक कीमत वसूलने की स्थिति में आए हैं
- इन कंपनियों ने अपने उत्पादों की कीमत सामान्य कंपनियों की तुलना में अधिक तय की है। देश में ऊंची महंगाई के संदर्भ यह पहलू महत्त्वपूर्ण पहलू है।
- एक परिचर्चा में आचार्य ने कहा- हमने देखा है कि जब इनपुट लागत बढ़े, और बाजार में किसी उद्योग समूह की ताकत ज्यादा हो, तो थोक भाव मूल्य सूचकांक अधिक ऊंची दर से बढ़ता है। इसका असर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर भी पड़ता है। (https://thewire.in/economy/big-five-inflation-india-viral-acharya)
इसके पहले मशहूर अर्थशास्त्री इसाबेला बेवर अपने सहयोगी अर्थशास्त्रियों के साथ यूरोपीय बाजारों के बारे में किए गए अपने अध्ययन से बता चुकी थीं कि यूरोप में कोरोना काल के बाद बढ़ी महंगाई असल में कंपनियों के बीच अधिक मुनाफा बढ़ाने की होड़ का परिणाम थी।
उस दौर में सप्लाई शृंखला टूटने से इनपुट उपलब्धता में हुई दिक्कतों के बीच बड़ी कंपनियों ने मुनाफा बढ़ाने का मौका देखा। उन्होंने उत्पादों की कीमत मनमाने ढंग से बढ़ाई। जो कंपनी जितनी बड़ी थी, वह ऐसा करने की बेहतर स्थिति में थी। (https://peri.umass.edu/?view=article&id=1858:implicit-coordination-in-sellers-inflation-how-cost-shocks-facilitate-price-hikes&catid=2)
इस अध्ययन से प्रेरित होकर अमेरिका में भी ऐसे विश्लेषण किए गए। वहां भी यही पहलू उभर कर सामने आया। उसी क्रम में विरल आचार्य का शोध-पत्र भी प्रकाशित हुआ। यह नहीं कहा जा सकता कि मोनोपॉली उद्योग घरानों की मूल्य-निर्धारण संबंधी ताकत के दुष्परिणाम पहले मालूम नहीं थे।
मगर इससे यह जरूर जाहिर हुआ कि संकट काल में एकाधिकार या द्वि-अधिकार वाली कंपनियां “आपदा में अवसर” देखती हैं- वे लोगों की मुसीबत का लाभ अपनी तिजोरी भरने के लिए करती हैं।
मोनोपॉली के अन्य दुष्परिणाम भी हैं। मसलन, वे घराने किसी प्रतिस्पर्धी कंपनी को अपने क्षेत्र में नहीं उभरने देते। एक तो वे प्रतिस्पर्धा का धरातल इतना प्रतिकूल बना कर रखते हैं कि किसी नई कंपनी के लिए उभरना कठिन होता है। फिर भी कोई कंपनी अपनी आविष्कारक प्रतिभा के बल पर उभरने लगे, तो जल्द ही मोनोपॉली घराने उसे खरीद लेते हैं।
वित्तीय पूंजीवाद के इस दौर में ऐसा करने के विभिन्न माध्यम उनके पास हैं। इसका परिणाम प्रतिस्पर्धा रुकने के रूप में तो सामने आता ही है, साथ ही अर्थव्यवस्था में कुछ नया सोचने-आविष्कार करने आदि की प्रेरणा भी कुंद हो जाती है।
चूंकि बाजार में प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है, इसलिए मोनोपॉली घराने मनमाने ढंग से कीमतें बढ़ा कर महंगाई की स्थिति स्थायी रूप से बनाए रखते हैं। इसका नतीजा आम मेहनतकश वर्ग की वास्तविक आय में लगातार गिरावट के रूप में सामने आता है।
इससे उपभोग और मांग घटते हैं। उसका खराब असर अंततः उत्पादक अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। आज भारत इस अवस्था में पहुंच गया दिखता है। (https://pages.stern.nyu.edu/~sternfin/vacharya/public_html/pdfs/Brookings%20India%20piece%20Acharya%20March%202023%20ABRIDGED%20v2.pdf)
यह अवस्था अपने-आप आई हो, यह नहीं कहा जा सकता। बल्कि 1991 के बाद से अपनाई गई नव-उदारवादी नीतियों ने इसका मार्ग प्रशस्त किया है। दरअसल, यह केवल भारत का ही अनुभव नहीं है। दुनिया के जिन देशों ने इन नीतियों को अपनाया, वे आज अपने को आज मोनोपॉली घरानों के शिकंजे में पा रहे हैं। बहरहाल, भारत में क्या हुआ, इस पर गौर करना जरूरी है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1969 में भारत में एकाधिकार एवं प्रतिबंधित व्यवहार (MRTP- Monopoly and Restricted Practices ACT) अधिनियम बनाया गया था। इसका मकसद उद्योग समूहों की तरफ से मोनोपॉली कायम करने या इसके लिए अपनाए जाने वाले प्रतिबंधित तौर-तरीकों पर रोक लगाना था।
1991 में नई आर्थिक नीतियां अपनाए जाने के बाद इस कानून के खिलाफ माहौल बनाया जाने लगा था। आखिरकार 2002 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसे रद्द कर दिया। इस तरह मोनोपॉली कायम करने की कोशिशों पर कोई रोक नहीं रह गई।
उसके बाद दस साल तक यूपीए सरकार सत्ता में रही। उसकी तरफ से भी इस कानून को वापस लाने की किसी सुगबुगाहट के संकेत नहीं मिले। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि तब तक नव-उदारवादी नीतियों पर राजनीतिक दलों के बीच व्यापक आम सहमति तैयार हो चुकी थी।
नतीजतन, उद्योगपति और वित्तीय बाजारों के कारोबारी नए ‘देवता’ बन चुके थे। ‘निवेशक’ और ‘धन सृजक’ के रूप में उन्हें किसी नियम-कानून से ऊपर समझा जाने लगा था।
यूपीए सरकार ने इन नीतियों की मार से आहत आम जन के जख्मों पर मरहम लगाने के कई कानून जरूर बनाए। वन अधिकार कानून, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, प्राथमिक शिक्षा का अधिकार कानून आदि इनमें खास थे।
इन कानूनों का अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक नीतियों की तत्कालीन मुख्य दिशा से अंतर्विरोध उभरना लाजिमी था। तो नए ‘देवताओं’ ने इनके खिलाफ एक तरह से विद्रोह कर दिया। उनकी ताकत का मुकाबला करना तत्कालीन सत्ता जमात के वश में नहीं था।
जब आर्थिक क्षेत्र मोनोपॉलीज कायम हो जाती हैं, तो वे राजनीति पर भी अपना एकाधिकार जमाने की दिशा में बढ़ती हैं-यह विश्वव्यापी अनुभव है। भारत इसका अपवाद नहीं हो सकता था, और ना ही ऐसा हुआ। (https://www.epw.in/journal/2014/35/special-articles/latter-day-fascism.html)
राजनीतिक सत्ता पर अपना अधिकार जमाने की आर्थिक एकाधिकार समूहों की कोशिश 2014 के चुनाव में साकार हो गई। तब से अर्थव्यवस्था पर उनका निर्बाध नियंत्रण होता गया है।
अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि नोटबंदी, जीएसटी, insolvency and bankruptcy code अधिनियम, बैंकों से ऋण माफी, पीएलआई स्कीम, सार्वजनिक उद्यमों एवं सेवाओं का लगातार निजीकरण आदि इसी प्रक्रिया को बल प्रदान करने वाले उपाय रहे हैं।
अडानी इस परिघटना के सबसे चर्चित नाम हैं। उन्हें इसका प्रतीक भी कहा जा सकता है। लेकिन वे इस कथा में अकेले लाभान्वित पात्र नहीं हैं। ये दीगर बात है कि विपक्षी नेता और पार्टियां अपनी सियासी सुविधा के कारण सिर्फ उनका नाम लेती हैं।
संभवतः इसलिए कि मोनोपॉली परिघटना के साथ जो राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) अस्तित्व में आई है, वे भी इसका ही हिस्सा हैं, या वे इसे चुनौती देने की इच्छाशक्ति नहीं रखतीं।
बहरहाल, इस पूरी परिघटना को बिना समझे और उसके बरक्स बिना कारगर सियासी रणनीति बनाए इस परिस्थिति से देश बाहर नहीं निकल सकता। सीधा-सा खेल है, इस political economy के मालिकों ने, जो अपने हितों के मुताबिक उन्हें सबसे ज्यादा कारगर लगा है, वह राजनीतिक औजार चुन लिया है।
उसके पीछे उन्होंने धन और प्रचार तंत्र की अपनी ताकत लगा रखी है। वह राजनीतिक पार्टी उनके हितों को उनके मन-माफिक पूरा करती है। यह प्रक्रिया फिलहाल बेरोक आगे बढ़ रही है। इससे इतर बाकी सारी चर्चाएं ध्यान भटकाने का ज़रिया भर हैं।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
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