राजकिशोर की तरह के एक स्वातन्त्र्य चेता और पत्रकारिता के जगत में अपने एक अलग ही छंद के रचयिता पत्रकार की स्मृति में इस व्याख्यानमाला के लिये आयोजकों को आंतरिक धन्यवाद ।
आइये, हम सबसे पहले इस बुनियादी सवाल से ही अपनी बात शुरू करते हैं कि राजकिशोर हिंदी पत्रकारिता में किस खास चीज के सूचक थे ? उनके संपूर्ण व्यक्तित्व की वे कौन सी मौलिक विशेषताएं थीं जो उन्हें अन्यों में एक विशिष्ट स्थान पर रखती थी ?
राजकिशोर कोलकाता में एसपी सिंह के नेतृत्व में मुख्यधारा की पत्रकारिता के बीच से उभरे थे, लेकिन जीवन के अंत तक जाते-जाते वे मुख्यधारा से तो लगभग पूरी तरह से अलग हो ही गये थे, और सोशल मीडिया के नये परिवेश में प्रवेश करने के बावजूद उसमें अपने को पूरी तरह से उतार नहीं पाए थे । अंतिम दिनों में जैसे थक कर ही अपने कुछ संपर्कों के सहयोग से वे एक छोटी सी समाचार पत्रिका का संपादन करने लगे थे । लेखक के रूप में उन्होंने कई सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर किताबें लिखीं, संपादित भी की और यहां तक कि वर्धा में कुछ दिन रह कर अपनी बुद्धिवादी, कॉमनसेंस पर आधारित तर्कवादी यशपाल की शैली की तर्ज पर एक तथाकथित उपन्यास ‘सुनंदा की डायरी’ भी लिख डाला जिसमें धर्म, नैतिकता, प्रेम, विवाह, परिवार, राज्य, से लेकर स्त्री, जाति, दलित नक्सलवाद, सेक्स, साहित्य आदि तमाम विषयों पर वे अपने नजरिये को लगभग निष्कर्षवादी शैली में निर्द्वंद्व भाव से रखते चले गये । कहने का तात्पर्य यह है कि कोरी पत्रकारिता के वृत्त के बाहर एक लेखक-विचारक और कुछ हद तक एक्टिविस्ट बनने की मरीचिका में, सामान्य ज्ञान के दायरे से ही कुछ विशेष कह जाने के मोह में वे जीवन भर फंसे रहे ।
हमारे सामने सवाल है कि कैसे आप एक मुख्यधारा के पत्रकार के ऐसे, स्वतंत्र विचारक व्यक्तित्व की मरीचिका के पीछे भागने की परिघटना की व्याख्या करेंगे ? पत्रकारिता के सीधे-सपाटपन में किसी भी विषय के उस अन्तरप्रवाह में जाने का कोई आग्रह नहीं होता जिसमें विचारक किसी वस्तु सत्य के बजाय वस्तु रूप लेने के लिये प्रतीक्षारत लक्षणों के रहस्य में भटका करते हैं । जो अब तक सामने नहीं आया है, उसे यथार्थ की दरारों से जाहिर होने वाले लक्षणों से समझने की कोशिश किया करते हैं ।
हम राजकिशोर जी से व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं जुड़े जैसा महेश जी, शंभुनाथ जी जुड़े रहे, लेकिन उनकी गतिविधियों से, उनके खास प्रकार के समाजवादी नैतिकतावादी लेखन और परवर्ती दिनों में एक गांधीवादी एक्टिविस्ट बनने की कामनाओं और गतिविधियों पर नजर जरूर रखते थे । उनकी लेखनी की सफाई और तर्कों की पारदर्शिता खास तौर पर आकर्षित करती थी । लेकिन कई ऐसे मौके आए जब हमने लिख कर उनकी दृष्टि की सीमाओं पर सवाल भी उठाए थे ।
जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उनके लेखकीय जीवन का प्रारंभ मुख्यधारा की पत्रकारिता से हुआ था । अर्थात वे अपने समय के एक प्रमुख मीडिया व्यक्ति थे । और मीडिया, जिसे जनतंत्र के चौथे स्तंभ की फैंटेसी के पर्दे के पीछे छिपा कर रखा जाता है, उसका सत्य कुछ इतना रहस्यमय है कि उसे मंच की रोशनी में लाने की कोई भी कोशिश सिर्फ किसी कॉमेडी का, कोरे प्रहसन का ही रूप ले सकती है । ऐसे मीडिया की अपनी नैतिकता पर किसी भी प्रकार के अटूट भरोसे की कैसी कारुणिक परिणतियां होती है, इसे मीडिया जगत के तमाम दिग्गजों की सच्चाई से जाना जा सकता है । आज सभी अखबारों और तमाम प्रकार के मीडिया में संपादक और मैनेजिंग डायरेक्टर के पदों का विलय इसी करुण सचाई का प्रकृत रूप है । अगर आपको इस यथार्थ को देखना है तो वह आपको उस फैंटेसी से, मीडिया की नैतिकता के सपने से निकल कर ही दिखाई दे सकता है । इस सपने से जाग कर ही हमारा उपस्थित यथार्थ की वास्तविकता से सामना हो सकता है ।
मीडिया जनतंत्र का चौथा स्तंभ है —
यह बात शुद्ध रूप में एक क्लीषे है, कोरा पिष्टपेषण और किसी भी क्लिषे में फंसे रहना किसी भी विमर्श को निष्प्रयोजन बनाने के लिये काफी होता है । सच यही है कि मीडिया राजसत्ता का हिस्सा है । राजसत्ता के चरित्र की संगति में उसका चरित्र भी बदलता है । आज का मीडिया इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है । मीडिया का प्रयोग किसी को स्वतंत्र बनाने के लिये नहीं, उसे नाना बंधनों से बांधने के लिये होता है । मीडिया के जगत में जब कोई खुद स्वतंत्र रहना चाहता है, उसके जाति-च्युत कर दिये जाने का खतरा हमेशा बना रहता है । और कहने की बात नहीं है, जात-बाहर कर दिये जाने के बोध के जन्म से ही आदमी के सामने हमेशा एक नई चुनौती का वह क्षण पैदा होता है, जिसे स्वीकार कर आदमी खुद की स्वीकृति के एक नये बिंदु पर खड़े होने की कोशिश में लग जाता है, अथवा उस चुनौती से मुंह मोड़ कर वह एक मशीन का पुर्जा, वेतन का गुलाम बन कर जीता है ।
अभिनवगुप्त का एक प्रसिद्ध कथन है कि जो साधक जिस भुवन आदि की स्वरूपता के प्रति निष्ठा रखता है वह उसी रूप में सिद्धि प्राप्त करता है । पर जिसे शिवमय होना कहते हैं, जो विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण, स्वातंत्र्य शक्ति से युक्त है, वह अलग है ।
बहरहाल, राजकिशोर के संदर्भ में, खास तौर पर हमें याद आती है वर्धा के अनुभवों पर उनके ब्लाग की एक टिप्पणी जिसमें वे लिखते हैं — “किसी पुस्तकालय में जाकर मैं अभिभूत हो जाता हूं । समझ में नहीं आता इस टुच्ची दुनिया में इतनी सुंदर चीज कैसे टिकी हुई है ।”
हमने उनकी इसी ‘टुच्ची दुनिया’ का सूत्र पकड़ कर तब अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ में एक पोस्ट लगाई थी — स्वप्न और यथार्थ ।
राजकिशोर के कथन पर हमारी पहली पंक्ति थी — ‘टुच्ची दुनिया’ के बीच ‘इतनी सुंदर चीज’, अर्थात् हमारे सपनों की दुनिया !
और, हमने सपनों के बारे में औपनिषदकार शंकर की सपनों, स्वप्नानुभवों, स्वप्नों के मिथ्यात्व से लेकर समस्त जगत के मिथ्यात्व की तत्वमीमांसा और झूठ की ताकत के संदर्भ में अंबर्तो इको की इस बात का उल्लेख किया कि ‘इतिहास मुख्यत: भ्रमों का रंगमंच है । मार्क्स के ‘माल की अंधभक्ति’ (COMMODITY FETISHISM) से होते हुए तकनीक की स्वायत्तता के राज्य ‘टैक्नोपौली’ की चर्चा की ओर बढ़ गये जिसमें सामाजिक संस्थाओं और राष्ट्रीय जीवन के बजाय तकनीक का प्रभुत्व हुआ करता है — स्वायत्त, स्वयंसिद्ध, स्वयंसाध्य और सर्वव्याप्त तकनीक का प्रभुत्व । एक ऐसा काल जब आदमी की एक-एक हरकत, होठों की हर जुम्बिस, आंखों की हर झपकी, और सर्वोपरि दिमाग में उभरने वाली हर छवि का हिसाब रखने वाला एक विशालकाय उद्योग वाणिज्य के हित में आदमी को पूरी तरह से निचोड़ कर उसका पूरा सत निकाल लेने में लगा हुआ है । एक ऐसा समय, जब आपको लाखों प्रकार के ऐसे परस्पर गुंथे हुए एप्स से बांध दिया जा रहा है जब आपकी कोई भी गतिविधि सिर्फ आपके लाभार्थ नहीं रहेगी, वह इस विशाल टैक्नोपौली के महाकाय उद्योग के मुनाफे में निश्चित तौर पर योगदान करेगी ।
यह है आज के जीवन के सभी क्षेत्रों का वह एक सामान्य सत्य जिसके संदर्भ में हम यहां पुस्तकालय को देख कर विभोर हो उठने वाले राजकिशोर का स्मरण करते हुए अभी के मीडिया को, पत्रकारिता को पहचानना चाहते हैं । फेसबुक का मार्क जुकरबर्ग कहता है कि वह लोगों को ऐसी शक्ति प्रदान करना चाहता है जिससे वे अपनी इच्छानुसार जिसे चाहे और जो चाहे उसके साथ जुड़ सकते हैं । स्थिति यह है कि आज हर आदमी की पसंद को चिन्हित करके उसका अपना इंटरनेट का संसार बना दिया जा रहा है । हर एक की पसंदीदा चीजों की अपनी दुकानें तैयार कर दी जा रही हैं । लेकिन, कुल मिला कर हर किसी को शक्ति प्रदान करने के इस उपक्रम में उसे किसी एक विश्वकेंद्र से बांध दिया जा रहा है ।
निराला जी की पंक्तियां हैं —
विश्व सीमाहीन;
बांधती जाती मुझे कर-कर
व्यथा से दीन
…
कह रही हो हँस – पियो, प्रिय
पियो, प्रिय निरुपाय !
मुक्ति हूं मैं, मृत्यु में
आई हुई , न डरो ।
एक ऐसे समय में , राजकिशोर के बारे में हमारी टिप्पणी थी कि “आप पर लद कर न बोलने वाली पुस्तकों के पुस्तकालयों का निःशब्द निजी संसार अविश्वसनीय सुख और सुकून की जगह जान पड़े तो यह राजकिशोर या किसी भी पुस्तक प्रेमी की आत्म-केंद्रिकता या पलायनवाद नहीं, किसी भी बहाने व्यापार के चंगुल में न पड़ने का सत्याग्रह है । एक टुच्ची दुनिया में सुंदरता की तलाश, ‘सक्रिय पूंजीविहीनों’ की विजय का राग है ।”
हमें लगता है, आज का समय और उसमें राजकिशोर के क्रमशः खुद को अलग-थलग करते चले जाने के जीवन के लंबे सफर को अगर आप देखें, तो उपरोक्त बातों के ढांचे में सब चीजों को अच्छी तरह से पहचाना जा सकता है । यह आग्रह, अपनी स्वतंत्रता का अदम्य आग्रह ही है, जो अपने विकास के क्रम में उस परम स्थिति तक चला जाता है जहां व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द की दुनिया के अस्तित्व से ही इंकार करने लगता है, मौन के एक निःशब्द संसार में सिमट जाता है । यही आदमी की विक्षिप्तता भी कहलाती है जिसमें हम दुनिया के अनेक बुद्धिजीवियों, लेखकों को जीवन के एक काल में फंसा हुआ देखते हैं । पागल आदमी ही दुनिया के सारे बंधनों को अस्वीकारने के साहस का परम प्रतीक होता है, कह सकते हैं, नाउम्मीदी के साहस की एक विरूपित तस्वीर ।
लेकिन यही वह साहस होता है जो किसी भी नये विमर्श के मूल में होता है । यथार्थ से मुठभेड़ का क्षण । जैसा कि कहते हैं, फ्रायड के यहां वासना (desire) की समस्या कोई मनोवैज्ञानिक विषय नहीं थी, वह सुकरात की असमाधित कामना की तरह थी । सुकरात के लिये प्रश्न करना स्वयं में एक स्वतंत्र सत्य था, यह किसी का निजी सवाल नहीं था । ज्ञान की मान्य बातों को चुनौती देने वाली विद्रोही आलोचना का सुकरात हमेशा स्वागत करते थे । नाउम्मीदी का साहस ही जब प्रश्न उठाने के स्वतंत्र सत्य के रूप में सामने आता है, वह विचार की द्वांद्विक प्रक्रिया से जिंदगी की चुनौतियों के नये पथ का संधान देता है, आधुनिक विश्व में जिसके प्रतीक पुरुष हैं — कार्ल मार्क्स ।
अभिनवगुप्त के शब्दों में, अपने अंदर अपने द्वारा अपना क्षेप ही विसर्ग है । (स्वत्मनः स्वात्मनि स्वात्मक्षेपो वैसर्गिकी स्थितिः) । स्वयं को स्वयं में पाना ही सृजन है, अर्थात् अन्तर-वाह्य दबावों से मुक्त एक स्वतंत्र गति को हासिल करना ही रचना कर्म है ।
आज का भारतीय मीडिया तो व्यवसाय जगत के गुलामों का सबसे भौंड़ा रूप है । उसे जब एक नेता प्रेस्टीट्यूट कहता है, तो उसका आशय कुछ भी क्यों न हो, वह इस मीडिया की वास्तविकता को ही जाहिर कर रहा है । अभी तो यह मीडिया फासिस्ट शासक दल के भाड़े के गुंडों की भूमिका अदा कर रहा है । प्रश्न उठाना तो बहुत दूर की बात, मीडिया का मूल धर्म मानी जाने वाली तथ्यमूलक रिपोर्टिंग की बात तक को वह भूल चुका है । खास तौर पर हिंदी का मीडिया तो एक लिंचर्स मीडिया की भूमिका में हैं । सिर्फ एक समुदाय को नहीं, भारत के वैविध्यपूर्ण सत्य को भी वह आरएसएस के हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के एकात्मवादी तत्व की कालिख से पोतने में लगा हुआ है । हिटलर के विश्व विजय के सहयोगी की तरह ।
ऐसे समय में राजकिशोर की पत्रकारिता, उनका पूरा व्यक्तित्व मीडिया के वर्तमान परिदृश्य का सचमुच एक विलोम प्रस्तुत करता है । राजकिशोर ने बिल्कुल सही इस काल के संकेतों को पहचान कर अपने को एक छोटी सी पत्रिका के संपादन तक सीमित कर लिया था । लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि यहां तक आते-आते वे शायद अपनी उर्जा कहीं खो चुके थे, कहा जाए, थक से गए थे । इसीलिये वे अपनी पत्रिका को किसी नए गंभीर राजनीतिक विमर्श का मंच नहीं बना सके थे, बल्कि ऐसी पत्रिकाओं के कामचलाऊ प्रकार के मिश्रित ढांचे में ही अटक गए थे । उसे उनके पत्रकार जीवन का आखिरी, एक बुझ गये दीपक की बाती से निकल रहे घुएं का दौर कहा जा सकता है ।
बहरहाल, हमारी नजर में, राजकिशोर की स्वतंत्र लेखन की कामना का पहलू ही वह पहलू है जो किसी भी लेखक और पत्रकार के सार्थक कर्म का एक जरूरी आधार होता है । आज के समय की मुख्यधारा के मीडिया में भले इसकी कोई खास गुंजाइश न हो, लेकिन सोशल मीडिया ने वे अवसर पैदा किये हैं जहां से कोई भी अपने समय में अपनी लेखनी से हस्तक्षेप कर सकता है । राजकिशोर की सच्ची विमर्शकारी विरासत के लिये सोशल मीडिया की जमीन अब भारत में भी तैयार हो चुकी है ।
राजकिशोर का स्मरण करते हुए अंत में फिर एक बार मैं अभिनवगुप्त के कथन को दोहराते हुए अपनी बात खत्म करूंगा कि “स्वतंत्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । मोक्ष कोई दूसरी वस्तु नहीं है । वह स्वरूप का विस्तार मात्र है । और स्वातंत्र्य ही विमर्श कहलाता है, वह इसका मुख्य स्वभाव है । विमर्श को छोड़ कर प्रकाश न संभव है न सिद्ध होता है ।”
“यो यदात्मकतानिष्ठस्तद्भावं स प्रपद्यते ।
व्योमादिशब्दविज्ञानात् परो मोक्षो न संशयः ।।
एक एवास्य धर्मोऽसौ सर्वाक्षेपेण वर्तते ।।
तेन स्वतन्त्र्यशक्त्यैव युक्त इत्याञ्जसो विधिः ।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)