केंद्र सरकार ने कल यानी शुक्रवार को ताबड़तोड़ दो बड़े फैसले लिए। पहला दो हजार के नोटों को वापस लेने की आरबीआई की ओर से घोषणा की गयी तथा दूसरा दिल्ली की केजरीवाल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच के फैसले को उसने अध्यादेश के जरिये पलट दिया। ये दोनों ही फैसले जितने बड़े हैं उतने ही सवालों के घेरे में भी हैं। और इससे भी ज्यादा जिस मौके पर लाए गए हैं वह भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।
एक ऐसे दौर में जबकि भारतीय राजनीति का कंपास एक दूसरी दिशा का संकेत करता दिख रहा है। और इसके दायरे में अब बीजेपी कम विपक्ष ज्यादा है। कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद यह बात बिल्कुल ही स्पष्ट हो गयी कि विपक्ष का पलड़ा भारी हो गया है। कम से कम नरेटिव के स्तर पर मोदी सरकार पिछड़ती जा रही है। और आने वाले 2024 की नई तस्वीर में मोदी से ज्यादा विपक्षी नेताओं के चेहरे और उनकी भूमिका दिखने जा रही है। यह सिलसिला हिमाचल प्रदेश के साथ ही शुरू हो गया था।
उसके बाद विपक्षी नेताओं की गतिविधियों ने इसे नई गति दे दी। नीतीश के दौरों से लेकर पवार के बयानों तक और ममता के कांग्रेस तक से हाथ मिलाने की शर्तों और संभावनाओं से लेकर स्टालिन के सामाजिक न्याय की ताकतों की गोलबंदी तक यह बात दिख गयी थी कि विपक्ष किसी भी कीमत पर एकता के लिए तैयार है। और वह इस मौके को किसी तुच्छ निजी राजनीतिक स्वार्थ के चलते छोड़ने नहीं जा रहा है।
ऐसे में आठ सालों तक राजनीति पर नरेटिव की जो कमान आरएसएस-बीजेपी के हाथ में थी वह फिसलती जा रही थी। मोदी का यह आजमाया नुस्खा रहा है कि ऐसे मौकों पर जब भी जरूरत पड़ती तो वह किसी बड़े मुद्दे के सामने उससे भी बड़ा मुद्दा पेश कर देते हैं और फिर इस तरह से नरेटिव की कमान एक बार फिर अपने हाथ में लेने की कोशिश करते हैं। इस मौके पर भी यही हुआ।
कर्नाटक के बाद जो तस्वीर बन रही थी वह किसी भी रूप में मोदी और उनकी सरकार के हित में नहीं थी। जिस तरह से पीएम मोदी ने कर्नाटक के चुनाव प्रचार में सीधे हिस्सा लिया था और सूबे के नेताओं से छीन कर पूरी कमान अपने हाथ में ले ली थी, उससे अभी तक मौजूद उनकी छवि को गहरी चोट पहुंच रही थी। जिसमें यह बात जनता के बीच जा रही थी कि पीएम मोदी की अब अपने बल पर चुनाव जिताने की हैसियत नहीं रही।
क्योंकि अभी तक बीजेपी, उसके नेता और समर्थक इसी बात को आगे कर पूरे विपक्ष और उनके नेताओं को खारिज करते रहे हैं। उनका सवाल ही यही होता था कि मोदी के सामने कौन? ऐसे में अगर राजनीति के बाजार में मोदी नाम का वह सिक्का ही खोटा हो गया तो फिर बीजेपी का क्या होगा? मोदी इसके नतीजे को अच्छी तरह से जानते हैं लिहाजा उनके रणनीतिकार तत्काल सक्रिय हो गए। और उन्होंने कल ही दो बड़े मुद्दों का पासा फेंक दिया।
दो हजार के नोटों को वापस लेने का फैसला शुक्रवार शाम को आया। कोई पूछ सकता है कि इसको तो मोदी जी ने ही शुरू किया था। फिर चार-पांच सालों बाद ही उसे वापस लेने की उन्हें भला क्यों जरूरत पड़ गयी? 500 और 1000 के नोटों को वापस लेने के बाद उससे भी बड़े नोट को जारी करने पर जब लोगों ने सवाल उठाया था तो जवाब देने की जगह उनके समर्थक उसे मास्टर स्ट्रोक करार दे रहे थे। ऊपर से भ्रष्टाचार और आतंकवाद सब कुछ को खत्म करने का दावा कर रहे थे। और मोदी भक्ति में लीन कुछ एंकर-एंकरानियां तो उसमें चिप तक डलवा दिए थे। लेकिन इतने गाजे-बाजे के साथ आए 2000 के इस नोट को अचानक समाधिस्थ करना पड़ा है।
या तो मोदी जी पहले सही थे या फिर अब सही हैं। लेकिन उनके समर्थक इस बात को नहीं मानेंगे। क्योंकि उनकी निगाह में मोदी हमेशा सही होते हैं। क्योंकि भक्ति का चश्मा इतना गहरा है कि वो मोदी को कभी गलत देख ही नहीं पाते हैं। अब इस फैसले के बाद उनके समर्थकों को आईटी सेल द्वारा उत्पादित नये माल को मार्केट में बेचने का मौका मिल जाएगा। और उसके जरिये कुछ दिनों तक नई कहानियां बनायी और सुनायी जाएंगी।
हालांकि पिछली नोटबंदी पूरे देश के लिए तबाही साबित हुई थी और अर्थशास्त्रियों से लेकर विशेषज्ञों तक सब ने उसे खारिज कर दिया था। और उसका नतीजा भी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े नुकसान के तौर पर सामने आया था। जिसकी भविष्यवाणी बहुत पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कर दी थी जब उन्होंने इसे संगठित लूट बताया था, साथ ही कहा था कि देश की अर्थव्यवस्था में दो फीसदी की गिरावट आ जाएगी।
लोगों को लाइन में लगकर जो परेशानियां झेलनी पड़ीं वह तो अलग है। छोटे और मझोले उद्योग तबाह हो गए। शहरों में काम न मिलने के चलते हजारों-हजार लोगों को अपने घरों को लौटना पड़ा। नोटबंदी के दौरान जो व्यक्तिगत परेशानियां झेलनी पड़ीं उनका बयान किया जाए तो एक महाकाव्य तैयार हो जाएगा। अब नोटबंदी-2 किस तरह से लोगों के जीवन को प्रभावित करने जा रही है और अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ेगा यह अर्थशास्त्रियों के लिए एक बड़ा विषय बन जाता है।
बहरहाल इसके अलावा मोदी सरकार का दूसरा फैसला इससे भी ज्यादा घातक है। जिसमें उन्होंने अध्यादेश लाकर सु्प्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया है। यह फैसला पूरे देश, उसके लोकतंत्र, संवैधानिक व्यवस्था के लिए घातक है। इसने अपने तरीके से देश में एक संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है। मसलन एलजी और केजरीवाल सरकार के बीच काम-काज की क्या संवैधानिक व्यवस्था होगी और उस संदर्भ में संविधान में क्या लिखा गया है। इसको तय करने का काम देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने किया।
सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सभी पक्षों की सुनवाई की और उसके बाद एक नतीजे पर पहुंच कर उसने फैसला सुनाया। और यह उसके न्यायिक अधिकार क्षेत्र में आता है। क्योंकि सरकार के फैसलों की समीक्षा का काम संविधान उसे देता है। अभी इस फैसले को आए 10 दिन भी नहीं हुए कि मोदी सरकार ने उसे पलट दिया। उसूलन तो अध्यादेश के जरिये संवैधानिक संशोधन नहीं किए जाते हैं। और अगर सरकार चाहती ही है किसी मामले में कोई संशोधन करना तो उसके लिए उसे संसद में बाकायदा बिल लाना चाहिए और उस पर एक पूरी प्रक्रिया के साथ विचार-विमर्श के जरिये दोनों सदनों से उसे पारित कराने की कोशिश करनी चाहिए।
और मामला जब संविधान के बुनियादी ढांचे से जुड़ जाए तो सरकार को भी उस पर पहल करने से पहले 100 बार सोचना चाहिए। अब इसी मामले में अगर देखा जाए तो संविधान में बुनियादी तौर पर यह बात कही गयी है कि राज्यों का गवर्नर या फिर देश के राष्ट्रपति संबंधित सरकारों की सलाह से चलेंगे/ चलेंगी।
चलिए मान लिया दिल्ली की एक विशेष स्थिति है उसके लिहाज से एलजी और उनके जरिये केंद्र को तीन विभागों के बारे में फैसले का अधिकार है। लेकिन बाकी विभागों के संचालन और नियमन की व्यवस्था प्राथमिक तौर पर सूबे की चुनी हुई सरकार करेगी या फिर केंद्र की ओर से थोपा गया एक उप राज्यपाल इस काम को करेगा? यह एक बड़ा सवाल बन जाता है। यहां लोकतंत्र को ही सिर के बल खड़ा करने की कोशिश है। जनता और उसका फैसला जाए ठेंगे पर। हम अपनी मर्जी से चलाएंगे देश।
अब कोई पूछ सकता है कि सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया है क्या वह न्यायपालिका की अवमानना नहीं है? संवैधानिक पीठ के फैसले को कोई दूसरी उससे बड़ी संवैधानिक पीठ ही बदल सकती है। अगर कल वही अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हो जाता है और सुप्रीम कोर्ट उसे गैरकानूनी करार देता है तब मोदी सरकार क्या करेगी?
यही नहीं अगर यह अध्यादेश संसद से पारित होकर कानून भी बन जाता है तब भी सुप्रीम कोर्ट को उसकी समीक्षा का अधिकार रहेगा। और अगर उसे लगता है कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है तो खारिज करने में उसे एक मिनट भी नहीं लगेगा। जैसा कि उसने एनजेसीए के मामले में किया था। पूरे कानून को ही असंवैधानिक बता कर उसे रद्द कर दिया था।
दो दिन पहले जब किरन रिजिजू की जगह उसने अर्जुन राम मेघवाल को कानून मंत्री बनाया गया तो एकबारगी लगा कि सुप्रीम कोर्ट के साथ खींचतान में उसने अपनी गलती मान ली है और इस पूरे प्रकरण में रेड लाइन पार करने वाले रिजिजू को उसने उसकी सजा दी है। और इस तरह से उसने सुप्रीम कोर्ट के सामने आत्मसमर्पण किया है। लेकिन यह बात किसी को नहीं पता थी कि सरकार इसके जरिये एक कदम पीछे हटकर सुप्रीम कोर्ट पर एक बड़े हमले की पृष्ठभूमि तैयार कर रही है। बहरहाल सरकार ने अपना काम कर दिया है अब बारी सुप्रीम कोर्ट की है। देखना होगा कि वह उस पर किस तरह से प्रतिक्रिया देता है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)