Friday, April 19, 2024

पी से पीएम, पी से पाइड-पाईपर

कमाल के ‘कम्युनिकेटर’ हैं अपने प्रधानमंत्री। कम से कम 22 मार्च से तो कई बार राष्ट्र के नाम संबोधन कर ही चुके हैं। लेकिन मजदूरों तक बात पहुंची ही नहीं। 40-45 दिन में भी नहीं। 

22 मार्च की सुबह 7.00 बजे से 14 घंटे के जनता कर्फ्यू तक तो कोई बात नहीं थी। वैसे भी रविवार था। पर 21 दिन का रसद, और पैसे किसके पास थे! सो 24 मार्च की रात 12 बजे से लागू लॉकडाउन में चौथा-पांचवां दिन बीतते-बीतते, खासकर दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बेंगलुरु, सूरत, अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में, अफरा-तफरी मच गई। हर तरफ हजारों- हजार लोगों का हुजूम राजमार्गों पर था और हर राजमार्ग जैसे बिहार, यूपी, बंगाल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडीसा को जा रहा था।

हजारों, बल्कि लाखों लोग अब भी सड़कों पर हैं, कई का तो एक या अनेक प्रांतों की सीमाएं पार कर अपने घर पहुंचने की चिंता में और धीरज टूटने लगा है तो कई जगह आक्रामक प्रदर्शन और झड़पें भी हो रही हैं – सूरत में, मुम्बई में, कठुआ में, कोयम्बटूर में, हैदराबाद में, बेंगलुरु में, दिल्ली, हरियाणा, यूपी में। कुछ लोग कह रहे हैं कि रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे-दूसरे राज्यों मे रह रहे और अब रोजगार, रोटी और ठिकाने के संकटों में फंस गये लोगों का सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। मामला उलट है। उनकी अफरा-तफरी बता रही है कि उन्हें भरोसा है कि सरकार उनके लिये कुछ नहीं करेगी। वे जीने के लिये यों ही मरने को नहीं तैयार हो गये हैं। बल्कि मर भी रहे हैं।

दिल्ली से पैदल ही मुरैना के लिये निकल पड़े रणवीर सिंह को 200 किलोमीटर चलने के बाद आगरा में दिल का दौरा पड़ गया। वह 27 मार्च की सुबह की बात थी। उसने दम तोड़ दिया। उसी दिन 62 साल का गंगा राम येलंगे कोई सवारी नहीं मिलने से सूरत में एक अस्पताल से पैदल ही घर लौट पड़ा। घर पहुंचने से पहले ही वह बेहोश होकर गिर पड़ा और वापस अस्पताल पहुंचाये जाने से पहले उसकी मौत हो गयी। विरार में 28 मार्च को तड़के, एक ट्रक की टक्कर में चार लोग मारे गये। वे अपने तीन अन्य परिचितों के साथ पैदल ही राजस्थान में अपने गांव जा रहे थे कि महाराष्ट्र-गुजरात सीमा पर पुलिस ने उन्हें वापस वसई लौटने को मजबूर कर दिया था।

प्रवासी मज़दूर।

और ये तो हाल के हफ्तों की घटनायें हैं कि कर्नाटक में रायचूर लौट रहे 31 प्रवासी मजदूरों की एक खुली ट्रक हैदराबाद के बाहरी इलाके में एक दूसरी ट्रक से टकरा गयी, जिससे 8 मौतें हो गयीं, हैदराबाद से यूपी आ रहा ट्रक मध्यप्रदेश में नरसिंहपुर के पास पलट गया, जिससे उसमें लदी आम की खेप में छिपे 20 कामगारों में से 5 की मौत हो गयी, दिल्ली से करीब 1000 किलोमीटर दूर खगड़िया, बिहार के लिये निकल पड़े मजदूरों के झुंड में एक की सहारनपुर में मौत हो गयी, पैदल ही घर लौटने की जद्दोजहद कर रहे तीन मजदूर और दो बच्चे हरियाणा में एक सड़क दुर्घटना की भेंट चढ़ गये, करीब 750 किलोमीटर दूर बेमेतरा, छत्तीसगढ़ में अपने घर के लिये साइकिल से ही निकल पड़ा एक दिहाड़ी मजदूर अपनी पत्नी के साथ, लखनऊ में एक सड़क दुर्घटना में मारा गया, आठ-साढ़े आठ सौ किलोमीटर दूर, मध्यप्रदेश में उमरिया और शहडोल में अपने घर जा रहे 16 प्रवासी मजदूर जालना के पास मालगाड़ी से कट मरे। ‘द वायर’ ने बेंगलुरु के लोकहित प्रौद्योगिकीविद तेजेश जीएन, जिन्दल ग्लोबल स्कूल के असिस्टेंट प्रोफेसर अमन और शोधार्थी कणिका शर्मा के हवाले से दो-एक दिन पहले ही बताया था कि लॉकडाउन के दौरान पलायन, लाठीचार्ज, आत्महत्या और भूख से ही 378 मौतें हुई हैं।

पीएम ने अपने संबोधनों में प्रवासी मजदूरों-कामगारों के लिये किसी व्यवस्था का रत्ती भर भी जिक्र नहीं किया – केरल, पंजाब, मध्यप्रदेश से कोरोना संक्रमण की पुख्ता खबरें आने लग जाने के करीब महीने भर बाद लाखों लोगों के ‘नमस्ते ट्रम्प’ जैसे हाई वोल्टेज आयोजन या फरवरी के अंत से मार्च के अंत तक, पूरे महीने भर कोरोना वायरस के एपिसेन्टर वुहान से लेकर ईरान तक भारतीयों को लाने के लिये विशेष उड़ानों जैसे इंतजामात नहीं, बल्कि ‘काम- धाम, खाना-पीना, रहना-सहना बंद’ के समय में किसी तरह अपने नाते-रिश्तेदार, अपने घर-दुआर, टीन-टप्पर तक पहुंच जाने की व्यवस्था, विशेष रेलों, बसों की वह व्यवस्था जो महीने भर बाद की गयी या अब आज से की जा रही है।

पीएम ने उन्हें कुछ कहा भी नहीं- कि वे क्या करें, सिवा इसके कि इसी बीच, 29 मार्च को ‘मन की बात’ में उन्होंने खासकर गरीब ‘भाइयों एवं बैनों’ से माफी मांगने की औपचारिकता निभा दी। हमारे समय के महान पत्रकार शेखर गुप्ता का भरोसा कीजिये कि मोदी अपनी गलती कभी नहीं स्वीकारते, ऐसे कि यह सब बेहतर तरीके से भी किया जा सकता था, कि थोड़ा वक्त देकर, थोड़ी तैयारी से यह करना चाहिये था। इस बार भी उन्होंने औचक लॉकडाउन से पैदा हुई अराजकता, मजदूरों, कामगारों, प्रवासियों की तकलीफों, उनके संकटों का जिक्र नहीं किया, बल्कि कोरोना वायरस से देश को बचाने के ‘अपने साहसिक कदम’ से उन्हें हो रही असुविधाओं और परेशानियों के लिये खेद जता दिया।

अभूतपूर्व ‘कम्युनिकेटर’ की बात, लगता है, अधिकारियों और पुलिस तक भी नहीं पहुंची। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के मानदंडों का उल्लंघन करने पर डंडे बरसाने, लाठी चार्ज करने, आंसू गैस के गोले छोड़ने और ऐसे लोगों की सामूहिक ब्लीचिंग जैसे तरीकों के इस्तेमाल का तो निर्देश नहीं ही दिया था। पीएम अपने मुरीदों के अति उत्साह से वाकिफ हैं और अधिकारियों की, पुलिस की तो अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी हैं। तब भी उन्होंने यह सब नहीं करने की हिदायत भी तो नहीं दी। जैसे जनता कर्फ्यू में जब अति-उत्साह में कई जगहों पर लोगों और जिले के उच्च अधिकारियों तक के ताली-थाली बजाते हुये जुलूस और प्रदर्शन कर ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की ही धज्जियां उड़ा देने के वीडियो वायरल हो गये तो 3 अप्रैल की सुबह के अपने संबोधन में पीएम ने लॉकडाउन के 10 वें दिन, रात 9 बजे नौ मिनट तक दीया-बाती और मोबाइल के टॉर्च जलाने की अपील करते हुये खास हिदायत दी कि सड़कों और सार्वजनिक जगहों और बालकनी तक में भी लोग इकट्ठे न खड़े हों।

प्रवासी मजदूरों का एक जत्था घर वापसी की राह में।

लिहाजा पीएम की स्पष्ट निषेध-आज्ञा नहीं थी और ऐसे में कौन सुनता है, चाहे करते रहिये आप जीवन में कभी दिल से माफ नहीं करने की जबां-दराजी। तो सड़कों पर पुलिस की मार का जोखिम बना रहा। दोनों ओर बिछे पत्थरों के कारण पैदल चलना दूभर होने पर भी पटरी-पटरी जाना तय करें तो वहां भी पुलिस की गश्त और क्वारंटीन के नाम पर भूखे-प्यासे जाने कितने दिन, कहां-कहां बंद कर दिये जाने का खतरा अलग।

बात मुख्यमंत्रियों तक भी नहीं पहुंची – विपक्षी शासित राज्यों में नहीं, बल्कि कर्नाटक, हरियाणा जैसे बीजेपी के राज्यों में भी। यह अलग मसला है कि 24 मार्च को कोरोना संक्रमण के पुष्ट मामले 564 थे तो ट्रेनें, बस, सार्वजनिक परिवहन – सब बंद और कोरोना से हुई मौतों की ही संख्या पिछली 1 मई को जब 1500 के पार पहुंच गयी और संक्रमितों का आंकड़ा 37,000 से ऊपर, तब विशेष श्रमिक ट्रेनें चला दी गयीं। यह ‘बरसे कम्बल, भीगे पानी’ था। लॉकडाउन खोलने की रणनीतियों पर पीएम ने कल मुख्यमंत्रियों से चर्चा की और सबसे 15 तक अपने सुझाव देने को भी कहा है। बल्कि यह मुख्यमंत्रियों से पांचवीं बातचीत थी, पर बात तो उन्हें लॉकडाउन की घोषणा करने से पहले भी चाहिये था। लेकिन ‘नमस्ते ट्रम्प’ और मध्यप्रदेश में सत्ता हथियाने में पहले ही इतना समय जाया हो चुका था कि वह भी क्या करते?

बहरहाल, विशेष ट्रेनें चलनी शुरु हुए केवल 6 दिन हुये थे कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा ने प्रवासी मजदूरों को उनके राज्यों तक पहुंचाने के लिये 10 विशेष ट्रेन देने का अपना अनुरोध वापस ले लिया। हरियाणा ने विशेष ट्रेनों की अपनी मांग तो नहीं रद्द की, लेकिन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कामगारों से अपील की कि वे घरों को न लौटें, बल्कि राज्य में ही रुक कर मैम्युफैक्चरिंग यूनिटों मे काम शुरु करें। महाराष्ट्र सरकार ने कर्नाटक के साथ-साथ बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश पर भी अपने मजदूरों-कामगारों को वापस लेने में अड़चनें खड़ी करने का आरोप लगाया।

इस सब के बाद भी मजा देखिये, हमारा जो सत्ता प्रतिष्ठान है, वह इस बात में अहा-अहा है कि वाह क्या ‘कम्युनिकेटर’ है अपना महानायक, बांसुरी की क्या तान और सत्ता के गलियारे में खड़े, बाअदब-बामुलाहिजा कोर्निश बजाते, मीडिया के महाप्रभु महो-महो कि क्या जादू, देखो कितने सारे लोग बेसुध, उफनती नदी की ओर सरपट भागे जा रहे हैं! दोनों इस बात से गाफिल कि उसे तो पीएम होना था। केवल होना नहीं था, प्रधानमंत्री होने की जवाबदेही भी निभानी थी। धूमिल ने इसे ही ‘कानून की भाषा बोलता हुआ, अपराधियों का संयुक्त परिवार’ कहा था, गो तब इसमें वकील, वैज्ञानिक, नेता, दार्शनिक, कलाकार आदि तो थे, पत्रकार नहीं थे। पत्रकारिता का तब यह गोदीकरण भी तो नहीं हुआ था।

घरों की ओर जाते मजदूर।

शेखर गुप्ता को तो नहीं, पर हमको-आपको ‘ताली, थाली, दिया, मोमबत्ती का आप जितना भी मजाक उड़ायें’ वाला उनका ओपिनियन पीस फिर-फिर पढ़ना चाहिये। क्या उनका अंतिम तर्क हमारे समाज में चालू ‘अपनी जगह यह भी ठीक है’ की एक लचर और फालतू दलील का बौद्धिक-सा दिखता भाष्य भर नहीं है? क्या उसका आशय केवल यह नहीं है कि चुनावी राजनीति में लोकप्रिय बने रहने को मजबूर राजनीतिक नेता के नजरिये से नरेन्द्र मोदी का जवाब नहीं। पर चुनाव तो अभी दूर है, शायद चार साल।

इस बीच तो वह पीएम हैं – देश के शासनाध्यक्ष। हमारे लिये तो मूल्य-निर्णय इसी पर निर्भर होना चाहिये कि खास कर कोरोना संकट और आसन्न आर्थिक दुरावस्था के सामने हर आम-ओ-खास के, विशेषकर गणतंत्र के आखिरी आदमी के जीवन के लिये शासन और उसके शिखर का बर्ताव क्या है। वह इस बारे में मौन हैं। बहुत हद तक सच यह जरुर है कि राजीव गांधी से मनमोहन सिंह तक 8 प्रधानमंत्रियों में से कोई भी देश की इतनी बड़ी आबादी से ‘सीधे और आश्वस्तिकारक’ तरीके से बात करने में सक्षम नहीं था कि वे उसकी बात को ‘ब्रह्मवाक्य और ईश्वरीय आदेश’ मान सकें। ‘पाइड-पाईपर’ की भी मेधा तो यही थी। लेकिन इसमें खतरा यह

है कि संभव है, आने वाले वक्त में कभी प्रधानमंत्रियों के बोलने पर वैसे ही पाबंदी लगा दी जाये, जैसे हैम्लिन के बुंगलोसेन्ट्रॉस स्ट्रीट पर नृत्य-संगीत निषिद्ध है। यह वही सड़क है, जिस पर जर्मनी के हैम्लिन कस्बे के 130 बच्चे 26 जून 1284 को आखिरी बार देखे गये थे और जिनके बारे में कथा है कि बांसुरी वादक ने उन्हें बांसुरी की अपनी धुन के जादू में बांधकर, नदी में ले जाकर डुबो दिया था।

(राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और यूएनआई में नौकरी करते पत्रकारों-कर्मचारियों की एक लंबी लड़ाई की अगुआई कर चुके हैं।)

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