देशभक्ति: जज़्बा या सियासी औज़ार?

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देशभक्ति एक ऐसा लफ़्ज़ है, जिसे सियासतदानों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक़ मनचाहा शेप देने की कोशिश की है। यह एक एहसास, एक जज़्बा और एक अज़ीम जज़्बाती कशिश होनी चाहिए थी, मगर अफ़सोस, इसे महज़ एक सियासी नारा बना दिया गया है। “देशभक्ति” दो लफ़्ज़ों से मिलकर बना है—”देश” और “भक्ति”। इन दोनों के मायने को ग़ौर से समझे बिना इस लफ़्ज़ की हक़ीक़त तक पहुँचना मुश्किल है।  

“देश” की तशरीह को देखें, तो यह कोई सीधी-सादी लकीर नहीं, बल्कि एक गहरा तसव्वुर है। आम तौर पर जब हम “देश” कहते हैं, तो ज़हन में नक़्शा, सरहदें, झंडा और हुकूमत की सूरत उभरती है। मगर क्या वाक़ई देश सिर्फ़ यही है? जब कोई अपने गाँव से शहर जाता है, तो अकसर कहा जाता है कि वह “परदेश” चला गया। जबकि हक़ीक़त में वह उसी मुल्क के एक दूसरे हिस्से में होता है। इससे यह साबित होता है कि हमारे लिए “देश” का तसव्वुर सिर्फ़ एक नक़्शे तक महदूद नहीं, बल्कि इसमें वो तमाम लोग, तहज़ीबें, ज़बानें, और रवायत भी शामिल हैं, जो इसे मुकम्मल बनाती हैं। सिर्फ़ मिट्टी और नक़्शे से मुल्क नहीं बनता, बल्कि इंसानों की मौजूदगी ही उसे एक मुकम्मल शक्ल देती है।  

अब “भक्ति” को समझें। आमतौर पर भक्ति का ताल्लुक़ मज़हबी लगाव से होता है—जहाँ इन्सान किसी ख़ुदाई ताक़त, पीर-ओ-मुरशिद या किसी अज़ीम शख़्सियत से मुहब्बत करता है। भक्ति का मतलब होता है बे-शर्त तस्लीम करना, बग़ैर सवाल किए किसी चीज़ को मान लेना। लेकिन जब यही तसव्वुर समाज और सियासत में घुसता है, तो ये ख़तरनाक शक्ल अख़्तियार कर लेता है। तालीम और तर्बियत का मक़सद होता है इन्सान में तर्क और ग़ौर-ओ-फ़िक्र की सलाहियत पैदा करना, ताकि वह किसी भी नज़रिया या सोच को बग़ैर सोचे-समझे क़ुबूल न करे। यही वजह है कि देशभक्ति को अगर “भक्ति” की मानिंद बग़ैर तर्क के अपनाया जाए, तो यह एक ज़हनी ग़ुलामी में तब्दील हो जाती है।  

हक़ीक़ी मायनों में देशभक्ति महज़ एक शख़्स, हुकूमत, या निशान को सलाम करना नहीं, बल्कि अपने मुल्क और इसके बाशिंदों से मुहब्बत करना है। अगर आपको अपने मुल्क से मुहब्बत है, तो इसका मतलब यह हुआ कि आपको उसके तमाम लोगों, उनकी तहज़ीबों, उनकी ज़बानों और उनके मसाइल से भी मुहब्बत है। मगर अफ़सोस, आज के दौर में देशभक्ति को महज़ एक सियासी नारा बना दिया गया है, जिसका इस्तेमाल मुख़्तलिफ़ मफ़ादात के लिए किया जाता है।  

आज जब कोई हुकूमत से सवाल करता है, तो उसे “देशद्रोही” क़रार दे दिया जाता है। लेकिन क्या हुकूमत ही मुल्क होती है? हक़ीक़त तो यह है कि हुकूमतें आती जाती रहती हैं, मगर मुल्क और उसके लोग हमेशा क़ायम रहते हैं। हुकूमत की तन्क़ीद (आलोचना) करना मुल्क से ग़द्दारी नहीं, बल्कि इसकी बेहतरी के लिए ज़रूरी है। मगर जब देशभक्ति को हुकूमत की वफ़ादारी से जोड़ दिया जाए, तो यह तानाशाही का रास्ता खोल देता है।  

देशभक्ति की सबसे बड़ी बदनसीबी यह है कि इसे एक ख़ास मज़हब, एक ख़ास ज़बान, या एक ख़ास तबक़े तक महदूद कर दिया गया है। आज जो लोग अपने आपको “सच्चा देशभक्त” कहते हैं, वो अकसर मुल्क की एक बड़ी आबादी को शक की निगाह से देखते हैं। वो सिर्फ़ एक ख़ास गिरोह, एक ख़ास सोच, और एक ख़ास नज़रिए को ही “देशभक्ति” का सही पैमाना मानते हैं। लेकिन क्या ऐसा कोई भी जज़्बा सच्चा हो सकता है, जो लोगों को बाँटने पर मजबूर कर दे?  

हक़ीक़त में देशभक्ति की पहचान यह है कि इंसान अपने मुल्क की तरक़्क़ी और भलाई के लिए काम करे, उसके लोगों की भलाई और तरक्क़ी के लिए कोशिश करे, और नफ़रत की दीवारें गिराकर आपसी भाईचारे को बढ़ावा दे। मगर मौजूदा सियासी माहौल में, देशभक्ति को एक ऐसे औज़ार में बदल दिया गया है, जिसका इस्तेमाल लोगों को डराने, दबाने और ख़ामोश करने के लिए किया जाता है।  

अगर हम वाक़ई देशभक्ति की सही मायने में तशरीह करना चाहते हैं, तो हमें इस नारेबाज़ी से आगे निकलकर हक़ीक़त को देखना होगा। हमें उन लोगों पर सवाल उठाना होगा जो इसे अपने सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें ग़ौर करना होगा कि जो लोग दिन-रात देशभक्ति के नारे लगाते हैं, क्या वो वाक़ई मुल्क की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं? क्या वो ग़रीबों, मज़दूरों, किसानों और बेबस लोगों की आवाज़ उठा रहे हैं? या फिर उनकी देशभक्ति महज़ एक मुख़ौटा है, जिससे वो अपनी सियासी दुकान चला रहे हैं?  

असल देशभक्ति सिर्फ़ नारे लगाने या झंडा लहराने में नहीं, बल्कि अपने मुल्क और इसके लोगों के हक़ में आवाज़ उठाने में है। जो शख़्स मुल्क के मज़लूमों के साथ खड़ा होता है, जो बेइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ लड़ता है, जो मुल्क के बाशिंदों की भलाई के लिए काम करता है—वही सच्चा देशभक्त है। मगर अफ़सोस, आज के दौर में यह तसव्वुर ग़ायब होता जा रहा है।  

इसलिए जब भी कोई आपसे कहे कि वो देशभक्त है, तो उससे यह सवाल कीजिए कि उसकी देशभक्ति किसके लिए है? क्या वो वाक़ई मुल्क के तमाम लोगों से मुहब्बत करता है? क्या वो हर एक इंसान को बराबर समझता है? क्या वो ज़ुल्म और बेइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ खड़ा होता है? अगर इन सवालों के जवाब नहीं मिलते, तो शायद उसकी देशभक्ति महज़ एक छलावा है।  

आज हमें देशभक्ति को सियासत के चंगुल से निकालने की ज़रूरत है। हमें इसे मुहब्बत, इंसाफ़ और बराबरी के तसव्वुर से जोड़ने की ज़रूरत है। तभी हम इसकी असल रूह को समझ सकेंगे और सियासी चालों का मुक़ाबला कर सकेंगे।

(डॉ. सलमान अरशद लेखक हैं।)

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