पीएम बन गए ट्रोलों के सरदार

यह अजीब विडंबना है। जिस घटना पर पूरा देश शर्मसार है। लोग अपनी नजरों में खुद को गिरा महसूस कर रहे हैं। क्योंकि मानवता के इतिहास पर लगा मणिपुर का यह दाग लोगों की आत्मा में कील बनकर घुस गया है। पीड़ितों को न्याय दिलाने की जगह प्रधानमंत्री ट्रोलों के सहारे उसे मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। हिमालय से बड़ी इस घटना के असर को कम करने के लिए उन्होंने अपने ट्रोलों रूपी चूहों को उतार दिया है। पीएम मोदी का संसद के बाहर मणिपुर पर दिया गया बयान तो महज एक औपचारिकता थी। मणिपुर पर 36 सेकेंड के इस भाषण ने मलहम कम जलन ज्यादा पैदा की है। इस भाषण की असली मंशा घटना के असर को कम करना और उसके लिए अपने ट्रोलों को रास्ता दिखाना था। और इस तरह से एक प्रधानमंत्री खड़े-खड़े ट्रोलों के सरदार में बदल गया। 

दरअसल किसी की शख्सियत की पहचान ऐसे ही मौकों पर होती है। आप एकबारगी सोचिए अगर इस मौके पर जवाहर लाल नेहरू होते तो वह क्या करते? महात्मा गांधी होते तो उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती? लौह पुरुष सरदार पटेल क्या ऐसे ही बैठे रहते? या फिर घटना के असर को कैसे कम किया जाए इसकी तरकीब जुटाते? इस तरह से सोचना भी उनके लिए अपनी नजरों में गुनाह होता। शायद हम, आप या फिर कोई दूसरा जो आज़ादी की विरासत और उसके मूल्यों से परिचित है, उनके लिए ऐसा सोच भी नहीं सकता। 

इसीलिए उन्हें स्टेट्समैन कहा जाता है। इसी लिए दुनिया भर में गांधी की प्रतिमाएं लगी हैं। और लोग उनसे प्रेरणा लेते हैं। लेकिन देश को ‘विश्व गुरू’ बनाने का ठेका लेने वाले नेतृत्व की शख्सियत इतनी बौनी होगी वह किसी ने सोचा भी नहीं होगा। आरएसएस ने क्या इसी लिलीपुट के सहारे इतना बड़ा ख्वाब पाल रखा है? या फिर मान लिया जाए कि भारतीय समाज को पतन के पाताल में धकेल कर देश को नफरत और घृणा की चोटी पर पहुंचाना ही उसका विश्वगुरीय लक्ष्य है? अभी तक कम से कम 98 सालों के आरएसएस की करतूतों के इतिहास को देखकर इसी तरह का कुछ नतीजा निकाला जा सकता है।

और फिर घटना पर अफसोस जाहिर करने की औपचारिकता के बाद ट्रोलों के सरदार ने अपने सभी चेलों को ह्वाटएबाउटरी के काम में लगा दिया। और फिर शुरू हुआ राजस्थान, छत्तीसगढ़ से लेकर बंगाल तक में महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाओं के जिक्र का सिलसिला। बीजेपी नेताओं और उनके भक्तों समेत ट्रोलों की सोशल मीडिया की टाइम लाइनें इन सूबों की झूठी-सच्ची घटनाओं से भर गयीं। और देखते ही देखते बीजेपी के नेताओं की पूरी जमात ट्रोल में तब्दील हो गयी। और इनकी अगुआई मुख्यमंत्री हेमंत विस्व सर्मा से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद तक ने की।

इतिहास के पर्दे पर बड़े-बड़े काले धब्बों में तब्दील हो चुकी इस घटना के बाद उसको हलका या कम करने का यह जो रास्ता पीएम मोदी ने दिखाया है वह किसी अपराध से कम नहीं है। इससे कई ऐसी चीजें सवालों के घेरे में आ गयी हैं जिनको पूरा करना पीएम मोदी की जिम्मेदारी थी। मसलन इसके जरिये महिलाओं के लिए न्याय की संभावनाओं को कमजोर कर दिया गया। पुलिस-प्रशासन पर वह दबाव नहीं रहा जिसकी इस दौर में दरकार थी। इतने बड़े कांड के सीधे तौर पर जिम्मेदार मुख्यमंत्री जिन्हें तत्काल बगैर किसी देरी के बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए था, वह बिल्कुल सुरक्षित हो गए।

ऐसे मौके पर अगर हम सचमुच में एक जिंदा लोकतंत्र हैं तो पीएम मोदी की पहली जिम्मेदारी थी कि कहीं और बोलने से पहले वह इस मसले पर सदन में बोलते और संसद के जरिये देश की जनता को न्याय दिलाने का भरोसा दिलाते और उसके तहत सबसे पहले इस मामले में नाकाम और नकारा साबित हो चुके अपने मुख्यमंत्री से इस्तीफा लेते और न दिए जाने पर उसे बर्खास्त करते। और पूरे मामले की सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज के नेतृत्व में समयबद्ध कमीशन बैठाकर जांच कराते और फास्ट ट्रैक कोर्ट लगाकर दोषियों को सजा और पीड़ितों को न्याय दिलाते। जैसा कि राजस्थान सरकार ने किया है बलात्कार के एक मामले में जिसकी संघी जमात ट्रोलिंग कर रही है। 

देश की सामूहिक चेतना पर लगी इस चोट को इसी तरह के मलहम की जरूरत थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमेशा की तरह कुटिल राजनीति के इस सौदागर ने एक बार फिर देश की जनता को आपस में लड़वाने का रास्ता अख्तियार किया। और इस तरह उसे राजस्थान बनाम मणिपुर और छत्तीसगढ़ बनाम मणिपुर तथा पश्चिम बंगाल बनाम मणिपुर की बाइनरी में बांट दिया। एकबारगी चलिए यह मान भी लेते हैं कि (वैसे मानने का कोई कारण नहीं है) पीएम मोदी दूसरे सूबों की महिलाओं को लेकर भी चिंतित हैं।

लेकिन फिर इसमें केवल कांग्रेस या विपक्ष शासित राज्य ही उनको क्यों याद आए? क्यों नहीं उत्तराखंड या फिर उत्तर प्रदेश याद आया जहां अंकिता भंडारी जैसे बलात्कार के कांड हुए हैं या फिर सेंगर से जुड़े उन्नाव से लेकर चिन्मयानंद के शाहजहांपुर और हाथरस जैसी वहशी घटनाएं हुई हैं। जिनमें महिलाओं की इज्जत और आबरू का खुलेआम चीरहरण करने के साथ उनकी जघन्य हत्याएं की गयीं। और यह सब कुछ सत्ता के संरक्षण में हुआ। 

यानि यह बिल्कुल पूर्व नियोजित रणनीति के तहत दिया गया बयान था। और अब मणिपुर से मामले को डायलूट कर दूसरे सूबों पर केंद्रित करने की कोशिश की जा रही है। मोदी साहब अपना काम करने के बाद रोजगार मेला में व्यस्त हो गए। जिसमें उन्हीं लोगों को सर्टिफिकेट बांटी जा रही है जो दो-तीन साल पहले से नौकरियां कर रहे हैं। और इस तरह से यह संदेश भी दे रहे हैं कि देश के नौजवानों को किसी दीर्घकालिक स्थायी नौकरी की जगह इसी तरह के मेलों का इंतजार करना होगा जिसमें रोजगार तो नहीं लेकिन हर तरह का झूठ और फरेब ज़रूर बांटा जाएगा। और ठोस लाभ अडानी के लिए सुरक्षित है। तमाम उनके बकायों के बाद एक बार फिर स्टेट बैंक से उनके लिए लोन की व्यवस्था कर दी गयी है। 

मैंने ऊपर प्रधानमंत्री की इस हरकत की अपराध से भला तुलना क्यों की? दरअसल अगर इतनी बड़ी घटना को भी न्यू नॉर्मल बना दिया जाएगा तो फिर देश में बचेगा क्या? यह कुछ उसी तरह की कोशिश है जिसमें शुरुआत में मुसलमानों के लिंचिंग की कुछ घटनाओं की तरफ तो लोगों का ध्यान भी गया लेकिन अब देश में अक्सर लिंचिंग की घटनाएं होती हैं लेकिन उनका कोई जिक्र भी करना जरूरी नहीं समझता। इस तरह से इसको एक न्यू नॉर्मल में तब्दील कर दिया गया।

ठीक उसी तरह से इस घटना को भी अगर इसी तरह से नजरंदाज कर दिया जाता है और उसके जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं मिलती है तो आने वाले दिनों में इस तरह की और घटनाओं के लिए आप तैयार हो जाइए। और वह फिर मणिपुर ही नहीं देश का कोई भी सूबा और वहां की महिलाएं हो सकती हैं। शायद प्रधानमंत्री जी देश से इसी तरह की कुछ अपेक्षा करते हैं।

और मीडिया है कि अपना सुर बदलने के लिए तैयार ही नहीं है। सोशल मीडिया के तमाम एंकर और पत्रकारों की संवेदना इससे जुड़ी खबरों और उनको पढ़ने के दौरान उनकी आंखों में बिल्कुल साफ-साफ दिखी। कहीं वह आंसू बन कर निकली तो कहीं गुस्से के तौर पर सामने आयी। कई एंकर तो फूट-फूट कर रोने लगे। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया की चेतना पर नौ सालों में इतनी मोटी पर्त चढ़ गयी है कि अब उसे बर्बरता की बड़ी से बड़ी घटना भी बेध नहीं सकती है। और गोदी मीडिया कभी सीमा हैदर तो कभी उत्तरी कोरिया और कभी पाकिस्तान के चक्कर लगाता रहा। और जब मोदी ने रास्ता दिखाया तो स्वयंसेवक की तरह सभी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बंगाल की घटनाओं पर स्पेशल शो बनाने में जुट गए। 

और हां आखिरी बात। पीएम तो बहुत मजबूरी में बोले हैं। पूरा देश तस्वीरों को देखकर सन्न रह गया और हर नागरिक शर्म और लज्जा में डूब गया। ऐसे में बोलना उनकी मजबूरी हो गयी थी । वरना तो वह गुजरात के रास्ते पर ही चल रहे थे। अगर गुजरात जैसा देश में भी वैचारिक संतुलन अपने पक्ष में कर लिए होते तो वह कतई नहीं बोलते। बल्कि जैसा कि उन्होंने पहले सोच रखा था वह चुप रह कर अपने भक्तों को मुसलमानों के बाद अब ईसाइयों के खिलाफ खड़ा होने का संदेश दे रहे होते। एक बात किसी को कड़वी लग सकती है लेकिन सत्य है इसलिए कहना जरूरी है। 

जितने लोग इस घटना को डायलूट करने में लगे हैं ये सब उसी भीड़ के हिस्से हैं जो महिलाओं के साथ चल रही थी। मुझे उस भीड़ में उनके चेहरे दिख रहे हैं। पूरी कैबिनेट, बीजेपी के मुख्यमंत्री से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री, प्रवक्ताओं से लेकर भक्तों के उसमें चेहरे दिख रहे हैं। उसमें सुबह से लेकर शाम तक मुसलमानों के खिलाफ विषवमन करने वाले हमारे परिवार के सदस्य और रिश्तेदार दिख रहे हैं। और इन सब की अगुआई पीएम मोदी कर रहे हैं। अगर इन चीजों को लेकर कुछ संदेह और सवाल रहा हो तो मुख्यमंत्री को न हटाने का फैसला लेकर पीएम मोदी ने उसको और साफ कर दिया है। और अपने तरीके से इन सारी आशंकाओं की पुष्टि कर दी है।

हमारा समाज पतन के किस मुकाम पर पहुंच गया है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वियतनाम में नौ वर्षीय एक किशोरी की बगैर कपड़े वाली तस्वीर ने युद्ध का पासा पलट दिया था। पूरा पश्चिमी समाज और खुद अमेरिकी नागरिक तत्कालीन अमेरिकी सरकार के खिलाफ खड़े हो गए और नतीजतन अमेरिका को हार मान कर वियतनाम छोड़ना पड़ा। लेकिन यहां तो भारतीय भक्तों की चेतना के ऊपर चढ़ी चमड़ी की मोटी परत को यह घटना भेद ही नहीं सकी। नतीजतन दुनिया के सभ्य समाज में मणिपुर की महिलाएं नहीं खुद ये नंगे दिख रहे हैं। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments