Tuesday, April 16, 2024

मोदी के आत्ममुग्धता की अंतरिक्षीय उड़ान!

28 फरवरी को इसरो के प्रक्षेपण केंद्र से जो उपग्रह लांच किया गया है, उसमें नरेंद्र मोदी की तस्वीर भी भेजने का नमूना पेश करके इस बार तो प्रधानमंत्री की आत्ममुग्धता ने ‘आकाश ही सीमा है’ के मुहावरे को भी पीछे छोड़ दिया। सारी सीमाओं को लांघ कर उसे सीधे अंतरिक्ष में पहुँचा दिया। अब वहां कोई मानव उनकी छवि निहारेगा इसकी संभावनाएं तो हैं नहीं, अलबत्ता यह आशंका जरूर है कि देर-सबेर दूर किसी आकाशगंगा के पृथ्वी जैसे ग्रह में बसे किसी एलियन को यह फोटो मिल जाए। वह उसका क्या करेगा इसके कयास सहित बाकी संभावनाओं और आशंकाओं को भविष्य के लिए छोड़ दें तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऐसा चमत्कारिक करतब दिखाकर भक्तों के ब्रह्मा मोदी इस दुनिया के ऐसे पहले मनुष्य बन गए हैं, जिनकी छवि किसी दूसरे लोक के प्राणियों तक पहुँच सकती है। इसे कहते हैं ख्याति का दिगदिगंत तक जा पहुँचना!!

हाल के दिनों में आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता के मामले में यह उनका पहला कारनामा नहीं है। ठीक इसी बीच अहमदाबाद के मोटेरा में स्थित दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम के अब तक के नाम  सरदार पटेल स्टेडियम को बदलकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम किया गया है। लौहपुरुष के नाम को जंग लगने से उनकी विराटाकार मूर्ति भी नहीं बचा पायी। ताज़ी ताज़ी बात यह है कि अब कोरोना का टीका लगाने के बाद दिए जाने वाले सर्टिफिकेट में भी राजचिन्ह अशोक स्तम्भ के चार शेरों के अलावा सिर्फ मोदी का फोटो है। इसके पहले मध्य प्रदेश और कुछ अन्य प्रदेशों में बनाये गए शौचालयों की टॉयलेट सीट्स पर ऐसे ही फोटो लगाने के दिलचस्प प्रयोग किये जा चुके हैं।

ज्ञात इतिहास में हिटलर से लेकर ईदी अमीन तक इस तरह के ख़ुदख़ुश नेता कई हुए ,हैं लेकिन मानना पड़ेगा कि इतना ज्यादा बड़े वाला कोई और नहीं हुआ। दिक़्क़त की बात यह है कि अंतरिक्ष में फोटो और स्टेडियम पर नाम और फोटो दोनों चिपकाने के अजूबे कारनामे न पहले हैं न आख़िरी। भाँति-भाँति की मुद्राएं-भंगिमाएँ बनाकर फोटो खिंचाने की इनकी बीमारी पुरानी है। नया सिर्फ यह है कि अब यह नित रोज नए आयाम में दिख रही है, नयी नयी नीचाईयाँ छू रही हैं।

बाढ़ में डूबे किसी प्रदेश का हवाई मुआयना करते हुए नीचे दिख रही जनता का अभिवादन स्वीकार करने के लिए हवाई जहाज की खिड़की में से ही हाथ हिलाने की तस्वीर खुद केंद्र सरकार का सूचना एवं प्रकाशन विभाग जारी कर चुका है। सुभाष चंद्र बोस की जयन्ती पर ठीक उनके जैसी वर्दी धारकर एक समारोह में फोटोशूट स्वयं मोदी करा चुके हैं। बंगाल चुनाव से एकदम पहले गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर जैसा दिखने के लिये दाढ़ी लम्बी करने के जतन में तो वे पूरी तल्लीनता और मनोयोग से लगे हैं, हालांकि कईयों का मानना है कि ऐसी छवियों में वे गुरुदेव कम बापू आसाराम जैसे अधिक लगते हैं। खैर नजर-नजर का फेर है।

वे सिर्फ भारत के ही नहीं दुनिया के ऐसे इकलौते प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा ड्रेस बदली और पहनी हैं। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि 2014 में प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद उन्होंने जो भी ड्रेस पहनी वह दुबारा कभी नहीं पहनी, इसमें थोड़ी बहुत हर्र फिटकरी भी हो सकती है, किन्तु इसमें नैनो मिलीमीटर की भी अतिरंजना नहीं है कि अपनी इस अतीव वस्त्राधारणता के चलते वे प्रधानमंत्री के बजाय परिधानमंत्री कहलाये जाने लगे हैं।

पिछले दिनों उनके द्वारा तब पहनी गयी टोपियों सहित उनका एक फोटो कोलाज भी वायरल हुआ है। टोपी पहनाने के मुहावरे की तर्ज पर कहें तो यह निर्विवाद है कि जितनी टोपियां इन्होंने खुद पहनी हैं उनसे ज्यादा टोपियां इन्होंने देश और उसके नागरिकों के अलग-अलग तबकों को पहनाई भी हैं। उतनी ही टोपियां, पगड़ियां उतारी भी हैं। 

खुद के प्रति इतना अधिक प्रेम विलक्षण हैं, अनहोना है, असाधारण है। हिन्दी भाषा में इसके लिए सबसे उपयुक्त शब्द आत्मरति  है। मनोविज्ञान इसे असामान्य स्वभाव मानता है। अपनी तरह के मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ने ‘आत्मरति’ का काफी विस्तार से विवेचन भी किया है। उन्होंने कहा है, “जिस व्यक्ति के आकर्षण की वस्तु बाहरी जगत में नहीं होती, वह अपने से प्रेम करने लगता है और ऐसा ही व्यक्ति आत्मप्रेमी कहलाता है।” 

सहज मनुष्य होने के लिए सामाजिक तथा संवेदनशील होना प्राथमिक शर्त है। सहजता और संवेदनशीलता का अभाव उसे असामाजिक बना देता है। स्वयं उसे भी जटिल तनाव में जकड़ देता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि तनाव से मुक्त होने के लिए बाहरी वस्तुओं के प्रति रुचि अथवा आकर्षण का होना आवश्यक है। जब व्यक्ति बाकी वस्तुओं अथवा व्यक्तियों में रुचि नहीं ले पाता तो उसकी फिक्र, चिंता और दिलचस्पी का केंद्रीकरण वह खुद हो जाता है। मोदी ठीक इसी स्थिति में पहुंच गए लगते हैं।  

इस दशा को बयान करने वाली एक कहानी यूनानी मिथकों में मिलती है, जिसमें अपनी सुंदरता पर आत्ममुग्ध नार्सिसस नाम के  देवता की रोगग्रस्तता का विवरण है।  भारतीय मिथकों में नारद स्वयंवर की कथा है। दोनों ही अपने-अपने पात्रों के लिए दुःखान्त हैं। एक व्यक्ति के साथ ऐसा होना उसके परिवार और मित्रों की गहरी चिंता का कारण होता है मगर जब यह किसी राष्ट्र, सो भी भारत जैसे बड़े राष्ट्र के मुखिया के साथ हो तो यह पूरे देश की फ़िक्र बन जाता है। इसमें अगर उनकी संघनिष्ठ वैचारिकता में निहित अन्यों से अलगाव की हिंसक समझ को भी जोड़ लिया जाए तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है।

मोदी इस दशा की उच्चतर स्थिति में पहुँच गए हैं, इसके उदाहरण भी वे स्वयं ही देते रहते हैं। 28 फरवरी को प्रसारित मन की बात इसी तरह का एक ताजा प्रसंग है।  इसमें उन्होंने एकादशी स्नान का माहात्म्य बताया, इस दिन नहाते श्रद्दालुओं पर हेलीकॉप्टरों से फूल बरसाने के योगी सरकार के पुण्य काम गिनाये, अनेक त्योहारों की धार्मिकता बखानी।

यह सब उन्होंने उस समय की मन की बात में किया जिस वक़्त लाखों किसानों का दिल्ली बॉर्डर पड़ाव 100वां दिन पूरा करने की ओर था, युवाओं की बेरोजगारी भारत सहित दुनिया के खराब से खराब रिकॉर्ड तोड़ चुकी थी, सरकारी दमन और अलोकतान्त्रिकता के नए-नए मामले सामने आ रहे थे।

अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ी थी, कर्ज जीडीपी के 90 प्रतिशत से ज्यादा हो चुका था। इन सब पर बोलने या इससे उपजी पीड़ाओं और वेदनाओं को समझने-सुलझाने के बजाय प्रधानमंत्री मोदी हिन्दू धर्म की नयी-नयी गढ़ी कथित महानताओं को गिना रहे थे। जाहिर है खाली जगह को भरने और काफिला क्यों लुटा के जवाब से बचने के लिए खुद रहजन बने रहबर को कुछ न कुछ इधर-उधर की बातें तो करनी ही पड़ेंगी।

इधर-उधर करने से असल में कुछ भी इधर का उधर नहीं होता। उसके लिए ठोस और व्यावहारिक कदम उठाने होते हैं। अपने फोटो और अपने ही नाम चहुंओर देखने के सिंड्रोम से बाहर निकलना होता है। यदि वे खुद निकलने को तैयार नहीं हों तो जनता उनकी आत्मरत तंद्रा तोड़ती है, जैसा इन दिनों करने के लिए जुटान बढ़ा रहे हैं देश के मेहनती अवाम- दिल्ली की सीमाओं को गाँव-गाँव जिलों-जिलों की सीमाओं में बदलते हुए। एकता को विराट बनाते हुए।

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