Friday, April 26, 2024

सामाजिक न्याय की कब्र पर खड़े भाई-भतीजावाद के पेड़ पर तैयार की गयी है पटना हाईकोर्ट के नये जजों की सूची

क्या हितों का टकराव न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियों में कोई मायने नहीं रखता। अभी पिछले ही दिनों उच्चतम न्यायालय के कई माननीय न्यायाधीश हितों के टकराव के नाम पर या अन्य अज्ञात कारणों से सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा के मामले की सुनवाई से अलग हो गये लेकिन यह कभी देखने सुनने में नहीं आता कि कॉलेजियम में शामिल कोई माननीय हितों के टकराव के कारण कॉलेजियम की ऐसी किसी बैठक से अलग हुए हों जिसमें उनके किसी रिश्तेदार या करीबी के नाम पर जज बनने के लिए विचार हो रहा हो। अब यह महज संयोग नहीं हो सकता की न्यायपालिका में तीन-तीन पीढ़ी के जज हैं। भाई भतीजावाद कहें या जातिवाद कहें न्यायपालिका में नासूर की तरह पक रहे इस फोड़े का कुछ मवाद पटना हाईकोर्ट के वकील दिनेश द्वारा दाखिल याचिका से सतह पर आ गया है, जिसमें कॉलेजियम के द्वारा सिफारिश किये गये कई नामों को लेकर खुलासे हैं और उन्हें रद्द करने की मांग की गयी है।   

पटना उच्च न्यायालय की जस्टिस शिवाजी पांडे और पार्थ सारथी की खंडपीठ ने हाईकोर्ट कोलेजियम द्वारा पिछली जुलाई में 15 अधिवक्ताओं के नामों की सिफारिश को चुनौती देने वाली याचिका पर यूनियन ऑफ इंडिया और पटना उच्च न्यायालय को नोटिस जारी किया है।

पटना उच्च न्यायालय के एक वकील दिनेश सिंह द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि कॉलेजियम की सिफारिशों में जातिवाद, भाई भतीजावाद किया गया है और सामाजिक न्याय की अनदेखी की गयी है। याचिका में आरोप लगाया  गया है कि अनुशंसित उम्मीदवारों की लागू सूची में ओबीसी, एससी और एसटी को पूरी तरह से छोड़कर मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर की अवहेलना की गयी है । सूची में दर्ज नाम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए अयोग्य हैं क्योंकि उनके पास कानूनी काम का पर्याप्त अनुभव नहीं है ।

याचिका में नाम लेकर खुलासे किये गये हैं या आरोप लगाये गये हैं। सूची में शामिल अर्चना पालकर खोपड़े एक ऐसा नाम है, जिससे  पटना उच्च न्यायालय का बार काफी हद तक अपरिचित है। इसके बावजूद कोई भी अधिवक्ता या हाईकोर्ट का न्यायाधीश इस बात की गवाही देगा कि सुश्री खोपड़े को बार में खड़े होकर बेंच को संबोधित करते देखा गया है। यह उसकी विशेषता रही है। हाईकोर्ट के कॉलेजियम की नजर में जो खास है, वह यह है कि वह बॉम्बे हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज की बेटी हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि पटना उच्च न्यायालय के गलियारों में एक ज़ोरदार और निरंतर चर्चा है कि माननीय न्यायमूर्ति एसए बोबडे, सीजेआई-इन वेटिंग, सुश्री खोपड़े के परिवार को जानते हैं।

याचिका में कहा गया है की इसी तरह शिल्पा सिंह एक घोषित आउटसाइडर हैं, जो 17 वर्षों से दिल्ली में वकालत करती हैं और मुख्य न्यायाधीश की जाति की हैं। उन्होंने जुलाई 2016 से दिल्ली और पटना में वकालत  किया है। वर्ष 2017, 2018 और 2019 में अधिकांश कार्यदिवसों के दौरान दिल्ली में रहने के बावजूद पटना उच्च न्यायालय में एक सरकारी  वकील के रूप में पैसा कमाया है, जिस पर गम्भीर सवाल हैं। सूची में अमित पवन एक और नाम है जो पटना उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश और वकील के लिए अपरिचित हैं। उनकी विशेषता यह है कि न्यायमूर्ति राकेशकुमार की बेटी, जो कॉलेजियम सदस्य हैं, पवन के कार्यालय में कार्यरत थीं। पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अमित पवन को “जज” बनाने के लिए कौन सा मानक मिला ?

याचिका में कहा गया है कि कुमार मनीष सबसे विशेष सिफारिशी हैं। पटना हाईकोर्ट के बार और बेंच के बहुमत ने उन्हें शायद ही कभी बार में खड़े होकर पांच मिनट के लिए अदालत को संबोधित करते देखा हो। वह काउंटर एफिडेविट दायर करने के लिए समय की प्रार्थना के लिए जाने जाते हैं और एमओपी के अनुसार न्यायाधीश के लिए उनमें क्षमता का अभाव है। उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा इस औसत से कम क्षमता के उम्मीदवार के नाम की सिफारिश करने में पूरी तरह बेईमानी की गंध आ रही है।

संदीप कुमार का चयन किया गया है जबकि तथ्य यह है कि पिछले मुख्य न्यायाधीश (माननीय न्यायमूर्ति रेखा एम दोषी) ने 29 साल पहले उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी पाया था। इसी तरह चीफ जस्टिस की जाति से जुड़े भूमिहार मनीष कुमार ने कुछ साल पहले उच्च न्यायालय में एक वकील श्री एसके वर्मा पर जानलेवा हमला किया था। लेकिन मुख्य न्यायाधीश के करीबी माने जाने वाले महाधिवक्ता के साथ उनकी जाति और उनके संबंध ने उन्हें न्यायाधीश बनने में मदद की है। राज कुमार पटना उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के पुत्र हैं और वह भारत के कानून मंत्री के करीबी भी जाने जाते हैं। कितने पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस तथ्य की गवाही देंगे कि उन्होंने उनके समक्ष मामले दायर किए हैं या बहस की है?

संजय कुमार गिरि एक अन्य उम्मीदवार हैं जिन्हें अदालतों के सामने बहस करते हुए शायद ही कभी देखा गया हो। माननीय न्यायमूर्ति ज्योति सरन के साथ उनके संबंध से वे चयनित हुए हैं। यदि गिरि एक अच्छे उम्मीदवार हैं, तो हाईकोर्ट बार में कम से कम 500 नाम हैं, जो उनसे बेहतर और बहुत बेहतर हैं। राशिद इज़हार एक आपराधिक मामले में अभियुक्त रहा है। अमित श्रीवास्तव 55 से ऊपर के उम्मीदवार हैं और इसलिए उनके नाम की सिफारिश करने में कॉलेजियम का औचित्य नहीं था। इसके अलावा, पांच साल पहले उसका नाम रद्द कर दिया गया था।

याचिका में कहा गया है कि ऊपर दिए गए अधिकांश नाम उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए अयोग्य हैं क्योंकि उनके पास कानूनी काम का पर्याप्त अनुभव नहीं है, उन्हें कानूनी मसौदा तैयार करने का कोई अनुभव नहीं है, वे जज के रूप में कार्य करने की बुद्धिमत्ता और आवश्यक समझ नहीं रखते। जस्टिस भगवती द्वारा परिभाषित अर्हता में उनमें से किसी में भी योग्यता नहीं है। कॉलेजियम ने मनमाने तरीके से उनके नाम चुने हैं। यदि इनके कानूनी कौशल का मूल्यांकन निष्पक्ष रूप से किया जाय तो इनमें से अधिकांश परीक्षण में खरे नहीं उतरेंगे।

याचिका में आरोप लगाया गया है  कि पूरी प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से हितों का टकराव था और बताया कि कोलेजियम ने 15 में से 9 नाम अपनी ही जाति / समुदायों, यानी भूमिहार और कायस्थ समुदायों से चयनित किये गये हैं , जबकि 50 फीसद बेंच स्ट्रेंथ सिफारिश की तारीख में इन्हीं समुदायों से थे। याचिका में कहा गया है कि 30 में से केवल 3 ओबीसी जज थे और कोई भी दलित जज नहीं था।

कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित कुल 15 नामों में से, कोई भी दलित, ईबीसी, ओबीसी या समाज के आदिवासी तबके से नहीं था। कॉलेजियम जाति के आधार पर इस हद तक अंधी हो गयी थी कि इसने एमओपी और उन संवैधानिक प्रावधानों की पूरी तरह अवहेलना की जो समान अवसर और सामाजिक न्याय को अनिवार्य करती है । याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की है कि हाईकोर्ट केंद्र को निर्देश दे कि इन  सिफारिशों को रद्द कर दिया जाए।

इसके पहले पटना हाईकोर्ट में बिहार के अधिवक्ताओं ने सोमवार को कोलेजियम द्वारा जातिगत आधार पर जजों के नामों की सिफारिश के विरोध में प्रदर्शन भी किया था। विरोध प्रदर्शन करने वाले अधिवक्ताओं ने पटना हाईकोर्ट कोलेजियम पर आरोप लगाया कि जातिगत भेदभाव के आधार पर कोलेजियम द्वारा जजों के नाम प्रेषित किए गए हैं। उनका कहना था कि यह समाजिक न्याय का अपमान और समानता के अधिकार की अवहेलना है।

(लेखक जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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