सुशांत सिंह के एक जरूरी लेख की समीक्षा: “सेना कैसे मोदी की राजनीतिक परियोजना के अनुरूप हो गई”

Estimated read time 1 min read

यह लेख बाबरी विध्वंस की घटना और फैजाबाद छावनी के पास मौजूद भारतीय सुरक्षा बलों की निष्क्रियता के संदर्भ में शुरू होता है, जिसे भारतीय संवैधानिक इतिहास के चेहरे पर एक काले धब्बे के रूप में देखा जाता है।

लेखक ने इस लेख को भारतीय सेना में बढ़ती फासीवादी प्रवृत्ति की खामियों के बीच बड़े ही खूबसूरती से रखा है, जहां सेना अब राजनीतिक रूप से निष्पक्ष नहीं रह गई है।

सिंह ने शुरुआत में अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन समारोह में पूर्व सैन्य प्रमुखों की भागीदारी को उजागर किया है। यह भारत में धार्मिक और राजनीतिक विवाद का एक महत्वपूर्ण स्थल है।

इनकी उपस्थिति, मोदी के साथ, सेना द्वारा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हिंदुत्व परियोजना के समर्थन का प्रतीक है, जिसका उद्देश्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है।

लेख में उल्लेख किया गया है कि उपस्थित अधिकांश पूर्व प्रमुख उत्तर भारतीय उच्च जाति के हिंदू थे, जो मोदी शासन के प्रमुख समर्थन आधार का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भारतीय राजनीतिक इतिहास में यह आम धारणा है कि जिस पार्टी को उच्च जातियों का वोट समर्थन मिलता है, वही चुनावी बढ़त हासिल करती है। कांग्रेस पार्टी ने भी दलितों के तुष्टिकरण और उच्च जाति के जमींदारों के समर्थन से लगभग सभी चुनाव जीते थे।

लेख का तर्क है कि मोदी के नेतृत्व में मीडिया, संसद और न्यायपालिका सहित विभिन्न संस्थानों को हिंदुत्व एजेंडे का समर्थन करने के लिए सह-चयनित किया गया है।

धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में सेना की सार्वजनिक भागीदारी इसकी पारंपरिक रूप से गैर-राजनीतिक भूमिका से एक महत्वपूर्ण विचलन का संकेत देती है, जिससे भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में धर्मनिरपेक्षता के क्षरण को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं।

सुशांत सिंह बताते हैं कि भारत की सेना, जिसे ऐतिहासिक रूप से एक तटस्थ संस्था के रूप में देखा गया था, अब मोदी की हिंदुत्व-प्रेरित राजनीतिक परियोजना के साथ उलझ गई है।

लेख यह स्थापित करता है कि यह alignment जानबूझकर है, जो सत्ता को मजबूत करने और देश के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक नैतिकता को फिर से परिभाषित करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।

सिंह ने इस convergence का एक प्रमुख उदाहरण अयोध्या में राम मंदिर उद्घाटन समारोह का दिया है, जहां सेवानिवृत्त सैन्य नेताओं ने एक अत्यधिक राजनीतिक और धार्मिक कार्यक्रम में भाग लिया।

फैजाबाद छावनी का नाम बदलकर अयोध्या छावनी रखना और डोगरा रेजिमेंटल सेंटर का राम मंदिर के पास होना दर्शाता है कि भाजपा सरकार राज्य और सैन्य संस्थानों में धार्मिक प्रतीकों को शामिल कर रही है।

सिंह का सुझाव है कि यह राष्ट्रीय पहचान को हिंदू सांस्कृतिक और धार्मिक आख्यानों के साथ जोड़ने के एक सुविचारित प्रयास का हिस्सा है, जो सेना की धर्मनिरपेक्ष नींव को कमजोर कर रहा है।

संस्थागत स्वायत्तता का क्षरण

लेख में सेना के भाजपा के साथ जुड़ाव को मोदी के तहत संस्थागत सह-चयन के बड़े पैटर्न के भीतर रखा गया है। इसी तरह की प्रवृत्तियां अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों जैसे कि न्यायपालिका, मीडिया और संसद में देखी गई हैं, जो तेजी से भाजपा के वैचारिक एजेंडे को दर्शाती हैं।

सिंह तर्क देते हैं कि धार्मिक समारोहों और राजनीतिक कार्यक्रमों में सेना की भागीदारी उसकी स्वायत्तता और निष्पक्षता को कमजोर करती है।

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने आरएसएस के एक कार्यक्रम में भाग लेते हुए बहुसंख्यक के नाम पर समान नागरिक संहिता का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि नियम वही है जिसे बहुसंख्यक मानता है। उच्च न्यायालय का यह बयान गलत और संवैधानिक नैतिकता के खिलाफ है।

लेख सेना के राजनीतिकरण के भारत के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर प्रभाव के बारे में चिंताएं उठाता है। किसी राजनीतिक पार्टी के वैचारिक एजेंडे के साथ allignment करके, सेना के पक्षपाती संस्था बनने का जोखिम है, जिसके दीर्घकालिक परिणाम नागरिक-सैन्य संबंधों और लोकतांत्रिक शक्ति संतुलन पर हो सकते हैं।

भाजपा की रणनीति और व्यापक संदर्भ

भाजपा ने सशस्त्र बलों और सेना को खुला हाथ देने की रणनीति बनाई है, जिन्हें बहुत ही राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से प्रशिक्षित किया जाता है, जो मोदी शासन के लिए एक सुरक्षित आधार है।

भारतीय समाज में मुसलमानों, पाकिस्तान और चीन के प्रति ऐतिहासिक पूर्वाग्रह हैं, जिन्हें भाजपा सरकार धार्मिक पहलुओं के प्रचार के माध्यम से भुना रही है। 

सिंह का लेख गहन और आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है कि कैसे भारतीय सेना, जो कभी एक निष्पक्ष संस्था मानी जाती थी, मोदी के हिंदुत्व प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गई है।

लेख यह चेतावनी देता है कि यह प्रवृत्ति भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है।

यह वही प्रतीत होता है जो डोडा, जम्मू और कश्मीर में सेना द्वारा आयोजित एक इफ्तार कार्यक्रम के बारे में रहस्यमय तरीके से डिलीट किए गए ट्वीट के मामले में हुआ। सेना के ट्वीट में ‘खतरनाक’ हैशटैग #secularism (धर्मनिरपेक्षता) का उपयोग किया गया था, जो एक सकारात्मक चीज़ के रूप में दर्शाया गया, जिससे कट्टरपंथी लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ होगा।

जब एक कट्टर हिंदुत्व टेलीविजन चैनल चलाने वाले व्यक्ति ने सेना द्वारा आयोजित इफ्तार पर ट्वीट किया, तो स्थानीय रक्षा पीआरओ ने ट्रोलिंग को नजरअंदाज करने के बजाय अपना ट्वीट हटा दिया। संभवतः उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया गया होगा या उन्हें लगा होगा कि अगर उन्होंने तेजी से आत्मसमर्पण नहीं किया तो वे जोखिम में पड़ सकते हैं।

यह किस प्रकार का आत्मसमर्पण है? वही सेना, जिसे भारतीय राज्य द्वारा मंदिर पर पुष्पवर्षा के लिए तैनात किया जाता है, संविधान के मूलभूत धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को घोषित करने वाले एक वीडियो को पोस्ट करने में भी खुद को चुनौती महसूस करती है।

अगर हम सेवानिवृत्त सेना प्रमुखों और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत व्यक्तियों की सार्वजनिक भागीदारी देखें, तो पता चलता है कि वे वास्तविकता को छिपाने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी के उपकरण के रूप में कार्य कर रहे हैं।

जब भी भारतीय सीमा बलों को चीन से झटका लगता है, तो एक सेवानिवृत्त सेना प्रमुख हमेशा भारतीय राज्य की स्थिति को सही ठहराने के लिए सामने आते हैं। हम हमेशा मानते हैं कि सेना के लोग तटस्थता से कार्य करेंगे, लेकिन उन्हें जनता की चेतना के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

हिंदुत्व राजनीति की आलोचनात्मक जांच

लेख प्रभावी रूप से सेना के राजनीतिकरण को भाजपा की व्यापक वैचारिक परियोजना से जोड़ता है और इन बदलावों की प्रणालीगत प्रकृति को उजागर करता है।

वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक पतन के बारे में बढ़ती चिंताओं के मद्देनज़र, सिंह का विश्लेषण समयानुकूल है, जो यह समझने में मदद करता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों में से एक में संस्थागत तटस्थता कैसे खत्म हो रही है।

यह वही बिंदु है जहां मैं लेखक के निष्कर्ष से असहमत हूं। लेखक भारतीय प्रशासन की तटस्थता को अतीत में मान्यता देते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि ‘जय भवानी’, ‘भारत माता की जय’ जैसे नारे और संस्कृत को बढ़ावा देने वाले नारों का उपयोग भारतीय सैन्य अभ्यास में बहुत प्रचलित रहा है।

भारतीय सेना और सशस्त्र बलों का स्वभाव ब्रिटिश काल से ही जातिवादी और पदानुक्रम आधारित रहा है, जिसे कांग्रेस पार्टी ने भी नहीं बदला।

भारतीय मध्यम वर्ग को इस लेख को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि वे फासीवाद और सेना के संबंध पर अपनी समझ को स्पष्ट कर सकें।

(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author