शिक्षा प्रणाली का पुनरुत्थान: समानता, स्वतंत्र चिंतन और वास्तविक ज्ञान की ओर

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वर्तमान शिक्षा प्रणाली के विकास की कहानी धार्मिक शिक्षा से शुरू होती है। इतिहास के पन्नों में झांकें तो हम पाते हैं कि प्रारंभिक शिक्षा प्रणाली का मुख्य उद्देश्य धार्मिक मान्यताओं और संस्कारों का प्रसार करना था।

इस संदर्भ में, शिक्षा संस्थान, चाहे वे गुरुकुल हों या मध्यकालीन यूरोप के चर्च स्कूल, सभी का मुख्य उद्देश्य धार्मिक शिक्षाओं को समाज में प्रसारित करना और लोगों को धार्मिक नियमों के अनुसार जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित करना था।

धार्मिक शिक्षा से शुरुआत

प्राचीन काल में, शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह से धार्मिक था। भारत में गुरुकुल प्रणाली के माध्यम से वेद, उपनिषद और धर्मग्रंथों का अध्ययन कराया जाता था। इसी प्रकार, मध्यकालीन यूरोप में शिक्षा का पूरा जोर बाइबिल और धार्मिक सिद्धांतों पर था। धार्मिक शिक्षा का उद्देश्य समाज को धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप ढालना और धार्मिक सत्ता को मजबूत करना था। इस प्रणाली में स्वतंत्र चिंतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास सीमित था।

शिक्षा प्रणाली का विकास और आधुनिक चुनौती

समय के साथ, जब समाज में वैज्ञानिक और सामाजिक बदलाव आए, तो शिक्षा प्रणाली में भी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस हुई। औद्योगिक क्रांति के बाद, विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की बढ़ती आवश्यकता ने शिक्षा के उद्देश्य को बदलने के लिए प्रेरित किया।

शिक्षा अब केवल धार्मिक नियमों का पालन कराने का माध्यम नहीं रह गई, बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक कौशल के विकास का साधन बन गई।

लेकिन, आज भी कई जगहों पर शिक्षा प्रणाली पुराने धार्मिक उद्देश्यों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का ढांचा कई मामलों में पारंपरिक धार्मिक शिक्षा की छाया में बना हुआ है, जहां स्वतंत्र चिंतन, आलोचनात्मक विश्लेषण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अभी भी पूर्ण रूप से प्रोत्साहन नहीं मिलता।

शिक्षा का ढांचा समाज की भौतिक परिस्थितियों और वर्गीय संघर्षों के अनुसार बनता है। इस ढांचे में काम करने वाले शिक्षकों को सामाजिक असमानताओं और आर्थिक शक्तियों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। उनका कार्य विद्यार्थियों को ऐसे ज्ञान और कौशल प्रदान करना होता है, जो मौजूदा सामाजिक और आर्थिक ढांचे के अनुरूप हो।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली समाज की वर्गीय संरचनाओं को बनाए रखने का एक उपकरण मात्र है, जो सामाजिक असमानताओं को सुदृढ़ करने के लिए विद्यार्थियों को इस व्यवस्था के अनुरूप ढालने का काम करती है। शिक्षक की भूमिका और उनके सामने आने वाली चुनौतियां भी इस ऐतिहासिक और भौतिक परिप्रेक्ष्य में समझी जानी चाहिए।

शिक्षा प्रणाली में बदलाव की आवश्यकता

आज के तेजी से बदलते और तकनीकी उन्नति के दौर में, यह आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली को इसके वर्तमान उद्देश्यों से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अब एक आधुनिक, तार्किक और वैज्ञानिक समाज का निर्माण होना चाहिए। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में कई बदलाव आवश्यक हैं:

1. आधुनिक पाठ्यक्रम का निर्माण: शिक्षा प्रणाली में ऐसे पाठ्यक्रम को शामिल करना चाहिए जो छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तार्किक सोच, और रचनात्मकता का विकास करें। धार्मिक और परंपरागत विषयों का अध्ययन महत्वपूर्ण है, लेकिन इन्हें इतिहास और सांस्कृतिक अध्ययन के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए, न कि धार्मिक सिद्धांतों के प्रसार के रूप में।

2.स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा: छात्रों को स्वतंत्र रूप से सोचने, प्रश्न पूछने, और अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह उनके आत्म-विश्वास और व्यक्तिगत विकास में सहायक होगा, जो कि आधुनिक समाज के लिए आवश्यक है।

3.शिक्षा को रोजगार से मुक्त करना: शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार के अवसर प्रदान करना नहीं होना चाहिए। जब शिक्षा को रोजगार के साथ जोड़ दिया जाता है, तो इसका मुख्य उद्देश्य सीमित हो जाता है। छात्र केवल एक नौकरी पाने के लिए पढ़ाई करते हैं, न कि ज्ञान की खोज या व्यक्तिगत विकास के लिए। शिक्षा का मकसद एक जागरूक, स्वतंत्र और जिम्मेदार नागरिक बनाना होना चाहिए, जो समाज में सकारात्मक योगदान कर सके। रोजगार एक साधन हो सकता है, लेकिन यह शिक्षा का अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए।

4.शैक्षिक अर्हताओं का पुनर्विचार: शैक्षिक अर्हताओं का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि नौकरी के लिए आवेदन करने वाला व्यक्ति उस पद के लिए आवश्यक न्यूनतम ज्ञान और कौशल रखता हो। लेकिन अब यह प्रणाली निरर्थक हो चुकी है। अधिकांश लोग शिक्षा को केवल नौकरी पाने के साधन के रूप में देखते हैं, न कि ज्ञान अर्जित करने के लिए। इस प्रवृत्ति ने शिक्षा की मूल भावना को विकृत कर दिया है।

अगर हम शैक्षिक अर्हताओं को समाप्त कर दें और नौकरियों के लिए एक खुली प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित करें, तो इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि शिक्षा का उद्देश्य पुनः ज्ञान प्राप्ति बन जाएगा। लोग शिक्षा को सिर्फ नौकरियों के लिए नहीं, बल्कि अपने बौद्धिक विकास और सामाजिक योगदान के लिए अपनाएंगे। इससे शिक्षा का स्तर भी ऊंचा उठेगा, क्योंकि लोग अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए पढ़ाई करेंगे, न कि सिर्फ सर्टिफिकेट के लिए।

दूसरा महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि प्रतियोगिता परीक्षा में सबको समान अवसर मिलेगा। अगर किसी व्यक्ति ने किसी कारणवश औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है, तो भी उसे अपने ज्ञान और कौशल के आधार पर नौकरी पाने का अवसर मिल सकेगा। यह व्यवस्था समाज के उन वर्गों के लिए अत्यधिक लाभकारी होगी जो आर्थिक या सामाजिक कारणों से उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते।

द्रोणाचार्य के गुरुकुल में नहीं पढ़े हुए व्यक्ति को भी अर्जुन बनने का अवसर मिलना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति में वास्तविक योग्यता है, तो उसे मात्र इसलिए दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उसके पास एक कागज़ी सर्टिफिकेट नहीं है।

5.अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना: अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना से भारत में शिक्षा प्रणाली में एक नया अध्याय जोड़ा जा सकता है। यह सेवा न केवल शिक्षक भर्ती में पारदर्शिता और गुणवत्ता सुनिश्चित करेगी, बल्कि शिक्षकों को बेहतर वेतन और सुविधाएं देकर शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। विदेशी उदाहरणों से प्रेरणा लेकर, भारत में भी शिक्षा को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना आवश्यक है, जिससे आने वाली पीढ़ियां बेहतर शिक्षित और अधिक सक्षम बन सकें।

6.शैक्षणिक संस्थानों में समानता की स्थापना: शिक्षा के क्षेत्र में समानता का संदेश केवल पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री में नहीं, बल्कि शैक्षणिक संस्थानों के ढांचे में भी दिखना चाहिए। संस्था के प्रधान, शिक्षकों, छात्रों और समस्त कर्मचारियों के लिए एक जैसी व्यवस्था होनी चाहिए। आखिर प्रिंसिपल का ऑफिस विशेष सुविधाओं से लैस क्यों होना चाहिए? प्रिंसिपल की चेयर और चपरासी की चेयर में अंतर क्यों होता है? क्या हम बच्चों को असमानता की शिक्षा उनके लिए खोले गए शैक्षणिक संस्थानों से ही देना नहीं शुरू कर देते हैं?

इस प्रकार की असमानता संस्थागत रूप से गहरी हो जाती है और छात्रों के मन में यह बैठ जाता है कि समाज में ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा होना स्वाभाविक है। यह मानसिकता समाज में विषमता और अन्याय को बढ़ावा देती है। हमें शिक्षा संस्थानों में इस असमानता को समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जो समानता और न्याय के मूल्यों पर आधारित हो।

7.वैश्विक दृष्टिकोण का समावेश: शिक्षा को सीमित धार्मिक दृष्टिकोण से निकालकर वैश्विक दृष्टिकोण में बदलना चाहिए। इससे छात्रों को विभिन्न संस्कृतियों, विचारधाराओं, और मान्यताओं को समझने का अवसर मिलेगा, जिससे वे अधिक सहिष्णु और समावेशी बनेंगे।

निष्कर्ष

वर्तमान शिक्षा प्रणाली, जो एक समय धार्मिक उद्देश्यों के लिए बनाई गई थी, अब समय की मांग के अनुसार बदलने की आवश्यकता है। आधुनिक समाज के निर्माण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए, हमें एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है, जो स्वतंत्र चिंतन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, और व्यावहारिक कौशल को बढ़ावा दे।

लेकिन यह भी आवश्यक है कि शिक्षा को रोजगार की सीमाओं से मुक्त रखा जाए, ताकि शिक्षा का असली उद्देश्य- ज्ञान, नैतिकता, और व्यक्तित्व विकास- प्रभावित न हो। साथ ही, शैक्षिक अर्हताओं को समाप्त कर, सभी को एक समान अवसर देने की दिशा में कदम बढ़ाए जाने चाहिए।

इसके अतिरिक्त, अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण कदम से भारत में शिक्षा प्रणाली को और मजबूत किया जा सकता है। इसके साथ ही, शिक्षा संस्थानों में समानता की स्थापना भी आवश्यक है, ताकि हम अपने बच्चों को वास्तव में एक समान और न्यायपूर्ण समाज की शिक्षा दे सकें। यही शिक्षा प्रणाली समाज को एक नई दिशा देने में सक्षम होगी।

(मनोज अभिज्ञान साइबर एवं कॉर्पोरेट मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता हैं।)

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