भगवा ख़ानदान के लिए संघ ही आत्मा, वही परमात्मा

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‘छल-प्रपंच’ हमेशा से राजनीति का अभिन्न अंग रहा है। ‘साम-दाम-भेद-दंड’ इसी के औज़ार हैं। दुनिया के किसी भी दौर की और किसी भी समाज की राजनीति कभी इससे अछूती नहीं रही। ‘छल-प्रपंच’ की ‘इंटेंसिटी’ यानी तीव्रता में ज़रूर फ़र्क़ रहता है। हालांकि, ये हमेशा सापेक्ष ही रहेगी। यानी, नयी इंटेंसिटी का जायज़ा लेने के लिए इसकी पुरानी इंटेंसिटी से तुलना ज़रूरी है। राजनेताओं का काम है ‘नित नये छल-प्रपंच रचना’ और राजनीतिक विश्लेषकों का काम है इसे बेनक़ाब करते हुए समाज को इसके गुण-दोष बताना।

दुर्भाग्यवश, उत्तर प्रदेश के भगवा ख़ानदान की मौजूदा सियासत को लेकर सामने आ रही तमाम समीक्षाएं भ्रामक हैं। पत्रकारिता की विधा में इसे ‘प्लांटेड’ कहते हैं। ‘प्लांटेड स्टोरी’ में राजनेताओं की ओर से पत्रकारों के ज़रिये ऐसी बातें लिखवायी जाती हैं, जिसे वो फैलाना चाहते हैं। ‘प्लांटेड कंटेंट’ का सच्चाई से परे होना लाज़िमी है, क्योंकि इसका मकसद विरोधियों और समर्थकों, दोनों को ही ग़ुमराह करना होता है। मसलन, बंगाल चुनाव का नतीज़ा आते ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर प्रदेश को लेकर मंथन शुरू कर दिया।

भगवा ख़ानदान का दिमाग़ है संघ

यहां भगवा ख़ानदान की सियासत को समझने या डीकोड करने के लिए इसकी एनाटॉमी या शारीरिक-संरचना को ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है। भगवा ख़ानदान एक ऐसा शरीर है जिसके लिए संघ से जुड़े 350 से ज़्यादा ज्ञात संगठन (अंग) अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हैं। इस शरीर के दिमाग़ का नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। बीजेपी तो इस शरीर का महज एक अंग भर है। संघ इसे अपना राजनीतिक अंग कहता है। आप चाहें तो इसे दिल, फेफड़ा, किडनी या हाथ-पैर जैसे किसी भी मुख्य अंग की तरह देख सकते हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मज़दूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, विश्व हिन्दू परिषद, पाँचजन्य, संस्कार भारती वग़ैरह भी इसी शरीर के अंग हैं तो ‘प्रचंड हिन्दूवाद’ इन सभी की रगों और अस्थि-मज्जाओं में बहने वाला रक्त है।

जैसे हमारा दिमाग़ हमारे पूरे शरीर की हरेक गतिविधि को नियंत्रित करता है, बिल्कुल वैसे ही संघ भी भगवा ख़ानदान रूपी शरीर की हरेक गतिविधि के लिए चिन्तन-मनन या मंथन-समीक्षा करके रणनीतियाँ बनाता रहता है और इसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी शरीर के सम्बन्धित अंगों को सौंपता रहता है। ये निरन्तर और निर्बाध चलने वाली प्रक्रिया है। इसीलिए, बंगाल चुनाव का नतीज़ा आते ही संघ ने अगले साल फरवरी में होने वाले पाँच राज्यों – गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड, पंजाब और उत्तर प्रदेश को अपने रडार पर ले लिया क्योंकि इन राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल क्रमशः 15, 19, 23, 27 मार्च और 14 मई तक है।

बीजेपी तो सिर्फ़ संघ का मुखौटा है

चुनाव के मुहाने पर खड़े पाँच में से चार राज्यों में संघ की सत्ता है। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि चुनावों में संघ की ही जीत या हार होती है। क्योंकि, वास्तव में वही चुनाव लड़ती है। बीजेपी तो सिर्फ़ संघ का राजनीतिक मुखौटा है। संघ को पता है कि पंजाब में वो चुनौती देने की दशा में नहीं है। उत्तराखंड में उसके हाथ के तोते उड़ चुके हैं। तभी तो उसने मुख्यमंत्री बदलकर आख़िरी दाँव खेला है। गोवा और मणिपुर जैसे छोटे राज्यों की सियासत हमेशा से ही बे-पेन्दी के लोटा वाली रही है। वहाँ विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त ही राजनीति का स्थायी भाव रहा है। इसीलिए, इन दोनों राज्यों में असली खेल चुनाव के बाद ही होगा, पहले नहीं। चुनाव से पहले तो वहाँ बस ‘प्रैक्टिस मैच’ वाली दशा ही रहेगी।

संघ है सर्वोपरि

असली ‘खेला होबे’ वाली दशा तो उत्तर प्रदेश में है। ये 23-24 करोड़ की आबादी वाला विशाल और बीमारू राज्य है। 2016 की नोटबन्दी ने विरोधियों की क़मर तोड़ी तो 2017 में उग्र राष्ट्रवाद के रथ पर सवार होकर संघ ने यूपी में धमाकेदार प्रदर्शन करके तीन-चौथाई सीटों पर अपना ऐतिहासिक परचम लहराया। उग्र राष्ट्रवाद पर आधारित हिन्दुत्ववादी चेहरे की तलाश बने कट्टरवादी मुस्लिम विरोधी छवि वाले योगी आदित्यनाथ। बिल्कुल वैसे ही जैसे संघ में हरेक स्तर के नेता-कार्यकर्ता-प्रचारक बनाये जाते हैं। मोदी-शाह-नड्डा-वेंकैया-राजनाथ-गडकरी जैसे हरेक व्यक्ति की भूमिका संघ ही निर्धारित करता है। कोई इसका अपवाद नहीं होता।

मोदी होंगे ‘नाइट वाचमैन’

अब आर्थिक बदहाली और कोरोना के कुप्रबन्धन की वजह से सरकार के ख़िलाफ़ बने माहौल को देखते हुए संघ ने रणनीति बनायी कि सबसे पहले तो नरेन्द्र मोदी को ‘नाइट वाचमैन’ की भूमिका में रखा जाए। ये क्रिकेट का बेहद महत्वपूर्ण नुस्ख़ा है। इसके तहत दिन का खेल ख़त्म के आख़िरी घंटे को नाज़ुक वक़्त माना जाता है। इस वक़्त बल्लेबाज़ी के बड़े चेहरों को मैदान में उतारने से परहेज़ किया जाता है। टेलेंडर यानी पुच्छल बल्लेबाज़ों को क्रीच पर भेजकर नाज़ुक वक़्त को झेला जाता है।

बंगाल में सारी ताक़त झोंकने के बावजूद दाल नहीं गली। इसीलिए अब उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी को सबसे बड़ा चेहरा बनाकर पेश करने से परहेज़ किया जाएगा, क्योंकि यदि वो राज्य की सत्ता विरोधी हवा में ढेर हो गये तो 2024 की उम्मीदों पर दोहरी मार पड़ेगी। इसीलिए रणनीति है कि मोदी जैसे स्टार को कठिन वक़्त में एक्सपोज़ नहीं किया जाए। बाक़ी यदि फिर से उत्तर प्रदेश जीत गये तो मोदी की जयजयकार करने लगेंगे और यदि नहीं जीते तो योगी को कसूरवार ठहराकर बड़े स्टार की ब्रान्डिंग की मिट्टी-पलीद होने की नौबत से बच जाएँगे।

ढोंग है योगी विरोध

दूसरी रणनीति है, योगी को और बड़ा तथा ताक़तवर बनाकर पेश करो। इसके लिए पहले उनके ख़िलाफ़ असन्तोष की ख़बरें ‘प्लांट’ की गयीं। फिर संघ-बीजेपी के नेताओं का लखनऊ दौरा करवाया गया और दिल्ली में तरह-तरह की बैठकों की नौटंकी की पटकथा लिखी गयी। पहले फैलाया गया कि मंत्रिमंडल विस्तार होगा, संगठन में फ़ेरबदल होगा, ढेरों विधायकों के टिकट कटेंगे। फिर फैलाया गया कि अंगद के पैर की तरह योगी अकड़ गये हैं। इतने ताक़तवर हैं कि मोदी-शाह और संघ सभी लाचार हैं। वग़ैरह-वग़ैरह।

मज़ेदार तो ये है कि पटकथा लेखक भी संघ के ही मोहरे हैं और हरेक नाटक का हरेक पात्र या कलाकार भी। सब कुछ बिल्कुल वैसे ही हो रहा है, जैसा संघ ने तय किया है। गोदी मीडिया के ज़रिये वैसे ही धारणाएँ बनायी जा रही हैं, जैसा संघ चाहता है। बिल्कुल बंगाल की तर्ज़ पर, जहाँ मेनस्ट्रीम मीडिया ने महीनों पहले बीजेपी को सत्ता में बिठा दिया था। इसी झाँसे की वजह से तृणमूल में भगदड़ पैदा की गयी। उसी तर्ज़ पर अब संघ चाहता है कि उत्तर प्रदेश में योगी की छवि सबसे बड़े और ताक़तवर नेता की बने। जनता-पार्टी-संघ सभी को योगी के आगे बौना बनाकर पेश किया जाए। जबकि सच्चाई ये है कि संघ के आगे इनकी औक़ात कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।

संघ कभी लाचार नहीं होता

इतिहास भरा पड़ा है कि संघ कभी लाचार या असहाय नहीं होता। उसके लिए चेहरों का बदलना हमेशा चुटकियों का काम रहा है। बलराज मधोक से लेकर आडवाणी, कल्याण, गोविन्दाचार्य, केशुभाई, बाघेला, येदियुरप्पा, उमा भारती, संजय जोशी जैसे सैकड़ों चेहरों को संघ ने जब जहाँ चाहा वहाँ पहुँचा दिया। इसीलिए संघ-बीजेपी को लेकर किसी भी राय को बनाने से पहले हमेशा सिर्फ़ एक ही बात ध्यान में रखें कि वहाँ कभी भी और कुछ भी ऐसा नहीं होता जो ख़ुद संघ की रणनीति के मुताबिक़ नहीं हो।

झाँसे में फँसने की ज़रूरत नहीं

भगवा ख़ानदान के हर क़दम के पीछे संघ की भूमिका दिमाग़ वाली ही रहती है। शरीर का हरेक अंग वही करता है जो दिमाग़ चाहता है। इसका कोई अपवाद कभी नहीं होता। ये भी संघ की जानी-पहचानी रणनीति है कि वो कभी ये स्वीकार नहीं करता सफलता या असफलता उसकी है। जब-जब उसकी रणनीति फेल हुई, तब-तब उसका एक ही राग रहा कि वो अपने संगठनों (अंगों) के रोज़मर्रा के नाम में कोई दख़ल नहीं देता, क्योंकि वो तो महज एक वैचारिक और सांस्कृतिक संगठन है। यही सबसे बड़ा झूठ है। हक़ीक़त तो ये है कि भगवा ख़ानदान के लिए संघ ही आत्मा है और वही परमात्मा। इसीलिए किसी ‘प्लांट’ या झाँसे में फँसने की ज़रूरत नहीं है। संघ-बीजेपी में किसी भी दरार या गुटबाज़ी की गुंज़ाइश कभी नहीं होती।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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