साईबाबा मरते नहीं जन संघर्षों में ज़िंदा रहते हैं

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“अधिकार खैरात में दिये नहीं जाते हैं। ताक़त से इन्हें हासिल किया जाता है।” नोम चोम्स्की।

हैरत होती है जब विराट हजारभुजी राजसत्ता शारीरिक तौर पर  90 प्रतिशत अशक्त इंसान से आतंकित हो जाती है। उसे जेल की सलाखों के पीछे धकेल देती है। सालों साल उसे सड़ाती है। यातनाएं देती है। जरूरी दवाइयां देने में कोताही दिखाती है। उसकी सांसें चलती रहें, इतनी सी सावधानी बरतती है। कभी-कभी वह भी नहीं।

उसे अंडाकार कोठरी के हवाले कर देती है। बरसों सुनवाई नहीं होती है। हो भी जाती है, अदालत से रिहाई हो जाती है, पर फिर उसे दबोच लिया जाता है। उसकी नियति को फिर से एकाकी कोठरी के हवाले कर दिया जाता है, ताकि मौत का शिकंजा उसके और करीब पहुंच जाए।

जब वह इंसान जेल से बाहर आता है, फ़क़त चंद महीने सांसें ले पाता है और अंत में वह मौत का शिकार हो जाता है। क्या इसे स्वाभाविक मृत्यु कहें या व्यवस्थागत हत्या ? 

जी, मुख़्तसर में गोकरकोंडा नागा साईबाबा उर्फ़ अंग्रेजी के  प्रोफ़ेसर जी. एन. साईबाबा के अंतिम दशक की यही उत्सर्ग गाथा है। वे अपने आप मरे नहीं थे, सुनियोजित तरीक़े से उन्हें मौत के पास धकेला गया था। उनके जीवन के पटाक्षेप को ‘शहादत’ की श्रेणी में ही रखा जायेगा।

ठीक वैसे ही जिस प्रकार  फादर स्टैन स्वामी हैं। उनकी मृत्यु तो जेल में ही हो गई थी, जुलाई 2021 में। रोगग्रस्त चौरासी साल के फादर स्वामी से भी राजसत्ता भयभीत थी। उनकी इतनी-सी अंतिम इच्छा थी कि उन्हें मुंबई से रांची जेल में शिफ्ट कर दिया जाए, ताकि उनकी कर्म भूमि में उनके प्राण निकल सकें।

राजसत्ता इस अकिंचित इच्छा से भी घबरा उठी। उन्हें पराई भूमि की जेल में ही अंतिम सांसें लेनी पड़ी। दूसरी ओर हत्यारे, बलात्कारी राम रहीम को बार-बार पेरोल पर छोड़ दिया जाता है। क्योंकि राजसत्ता के स्वामियों को व्यवस्था में बने रहने के लिए मुस्टंडे, अपराधियों, बलात्कारियों, हत्यारों की ज़रुरत होती है;

मानव अधिकारों, लोकतंत्र, आज़ादी, विषमतामुक्त समाज और भातृत्व के लिए संघर्षशील इन्सानों की कतई नहीं। वे  वर्ग समृद्ध समाज-देश के लिए अवांछित हैं, बहिष्कृत हैं। 

कल जवाहर भवन में  लोकतंत्रप्रेमियों, मानवाधिकार एक्टिविस्टों, आज़ाद धर्मनिरपेक्ष भारत तथा समतावादी समाजव्यवस्था के संघर्षशीलों ने दिवंगत कॉमरेड प्रो. जी.एन. साईबाबा को जोशीले स्वरों, भावों और विचारों से श्रद्धांजलि दी। श्रीमती वसंता साईबाबा ने अपने सम्बोधन से स्थापित कर दिया कि कॉमरेड साईबाबा का सिर्फ दैहिक अंत हुआ है।

वे आज भी ज़िंदा हैं हमारे विचारों, आन्दोलनों और संघर्षों में। विचार मरते नहीं हैं, शरीर का अंत होता है। वसंता जी ने भावनाओं और विचारों में साईबाबा की कर्म-यात्रा को पिरोकर इस बात का एहसास करा दिया कि वे कहीं हम लोगों के बीच सभागार में मौज़ूद हैं।

वे फिरसे अगली पांत में खड़े हो कर संघर्ष की अगुवाई करने लगेंगे। प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने अपने सम्बोधन में जहां कार्यपालिका की ज्यादतियों की खासी ख़बर ली, वहीं उन्होंने न्यायपालिका को भी कटघरे में खड़ा किया।

उन्होंने इस बात पर हैरत जताई कि बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा प्रो. साईबाबा को दोषमुक्त करार देने के बावजूद सरकार ने उसमें हस्तक्षेप किया और रिहाई को रुकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को सुनवाई की व रिहाई पर स्टे दिया। यह अपने आप में असाधारण घटना है। 

प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय के निशाने पर देश का मीडिया रहा। उन्होंने  विभिन्न घटनाओं से बताया की मीडिया का व्यवहार लोकतंत्र, मानव अधिकार, आज़ादी, समता जैसे सवालों पर पक्षपातपूर्ण रहता आया है। मीडिया ने प्रो. साईबाबा के साथ न्याय नहीं किया।

वह राजसत्ता की भाषा की बोलता आ रहा है। कभी उसने सच्चाई जानना ज़रूरी नहीं समझा। इस अवसर पर उन्होंने अपने बस्तर के अनुभव भी सुनाये। कुछ वर्ष पहले उन्होंने कुछ दिन बस्तर के भीतरी क्षेत्रों में सशस्त्र माओवादियों के  साथ बिताये थे।उन्होंने 2011 में एक ज़बरदस्त लेख भी लिखा था- ‘walking with the comrades’.  

स्मरण सभा में सरकार द्वारा बस्तर में चलाये गए green hunt, सलवा जुडूम जैसे हिंसक अभियानों की भी कड़ी आलोचना की गई। प्रो. साईबाबा के साथ जेल में रहे हेम मिश्र ने जेल यात्रा के अनुभवों को याद करते हुए बताया कि बस्तर में माओवाद के नाम पर सैंकड़ों निर्दोष आदिवासियों को मारा जा चुका है।

बस्तर  छावनी में बदल गया है। राज प्रायोजित हिंसा अपने चरम पर है। इससे पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रो. नंदिनी सुन्दर ने भी अपने अनुभव सामने रखे थे। वे भी बस्तर में सालों रह चुकी हैं। ज़मीनी अनुभवों के साथ  बस्तर पर पुस्तक भी लिख चुकी हैं।

कई और भी वक्ता थे जिन्होनें मोदी राज के एक दशक को नवफासीवाद के अवतार के रूप में देखा। वक्ताओं के मत में पिछले एक दशक में धुर दक्षिणपंथ का आग़ाज़ हुआ है; मानवाधिकारों का योजनाबद्ध ढंग से हनन किया जा रहा है; समाज का गहराई के साथ ध्रुवीकरण किया गया है।

उदार लोकतंत्र को छीना  जा रहा है; संविधान को हाशिये पर फेंका जा रहा है और विभिन्न सरकारी एजेंसियों के माध्यम से नागरिक स्वतंत्रता को छीना जा रहा है; जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र उमर खालिद अभी तक जेल में हैं; बग़ैर सुनवाई के भीमाकोरागांव केस से जुड़े कई साथी जेलों में सड़ रहे हैं।

कॉर्पोरेट घरानों की गिद्ध दृष्टि आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन पर गड़ी हुई है। 

सभागार में मौज़ूद  श्रोताओं को देख कर उम्मीद की किरण ज़रूर चमकती हुई दिखाई देती है। खचाखच भरे सभागार में अधिकांश उपस्थिति युवाओं की थी। हालांकि, सभी उम्र के लोग वहां थे, लेकिन विद्यार्थियों और युवा समाजकर्मियों की उपस्थिति से यह आशा तो पैदा होती है कि वर्तमान व भविष्य का सारा आसमान मुठियों से फिसला नहीं है।

हिटलर-मुसोलिनी  के बावजूद फासीवाद+नाजीवाद विरोधी और स्वतंत्रता प्रेमी पैदा होते आ रहे हैं। जेलों में भगत सिंह, अंतोनियों ग्राम्शी, साईबाबा, स्टेन स्वामी जैसे इंसान जन्म लेते रहेंगे। 

(वरिष्ठ पत्रकार राम शरण जोशी की रिपो्र्ट।)

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