Saturday, April 27, 2024

अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने राज्यों के अधिकारों को खतरे में डाल दिया

अनुच्छेद 370 के तहत मिले जम्मू-कश्मीर विशेष दर्जे को खत्म किए जाने को सही ठहराते हुए सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय न केवल न्यायिक टाल-मटोल को दर्शाता है बल्कि न्यायालय के संघवाद, लोकतांत्रिक मूल्यों और कानूनी प्रक्रियाओं की पवित्रता के प्रति अब तक की ज्ञात स्थिति से पीछे हटने को भी दर्शाता है।

बेशक यह निर्णय भाजपा के लिए राजनीतिक मनोबल बढ़ाने वाला और अगस्त 2019 में कश्मीर के विशेष दर्जे को छीन कर उसे अन्य राज्यों के साथ बराबरी पर लाने के दुस्सासिक फैसले का समर्थन करता है। हालांकि, यह एक ऐसा फैसला भी है जो संघीय राजनीति के विध्वंस को कानूनी मान्यता देता है, ऐतिहासिक परिपेक्ष को समझने में असफल रहता है और संवैधानिक प्रक्रियाओं को कमजोर करता है।

संघीय सिद्धांत पर सबसे बड़ा कुठाराघात न्यायालय का यह अनुचित निष्कर्ष है कि संसद एक राज्य में जहां राष्ट्रपति शासन लागू हो उस राज्य विधानसभा की ओर से कोई भी कार्य कर सकता है, चाहे वह कार्य विधाई हो या न हो, भले ही वह राज्य विधायिका के लिए एक अपरिवर्तनीय परिणाम साबित हो।

यह चिंताजनक व्याख्या स्वयं न्यायालय द्वारा स्थापित संविधान के बुनियादी विशेषताओं को खतरे में डालने का काम करती है जो कि निर्वाचित सरकार की अनुपस्थिति में विभिन्न प्रकार के प्रतिकूल और अपवर्तनीय कारवाइयों के लिए छूट देते हुए राज्य के अधिकारों के लिए घातक साबित हो सकती है।

सरकार और उसके समर्थकों के पास इस वक्त अपनी पीठ थप-थापने के लिए बहुत कुछ है क्योंकि संविधान पीठ ने ही उनके राजनीतिक रुख का समर्थन करते हुए याचिकाकर्ताओं के मजबूत तर्कों को खारिज कर दिया है, विशेषकर इस बात को कि सरकार ने जम्मू-कश्मीर के किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि को शामिल किए बिना विशेष दर्जे को समाप्त करने की तैयारी के लिए राष्ट्रपति शासन लगाकर दुर्भावनापूर्ण तरीके से काम किया था।

मौजूदा सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर भाजपा के महत्वाकांक्षी सपने को पूरा करने के लिए एक जटिल प्रक्रिया अपनाई थी। सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर उसका दर्जा कम कर दिया था।

इसकी शुरुवात 5 अगस्त, 2019 के एक संवैधानिक आदेश के द्वारा इस देश के पूरे संविधान को जम्मू-कश्मीर पर लागू करते हुए और कुछ परिभाषाओं को बदलने के साथ हुई ताकि अब भंग की जा चुकी संविधान सभा के बजाए, जैसा की मूल रूप से अनुच्छेद 370(3) में परिकल्पित था, राज्य की विधानसभा के विशेष दर्जे को खत्म करने की सिफारिश कर सके।

अंत में, न्यायालय ने अपने फैसले में यह कहा कि 5 अगस्त का आदेश गैर संवैधानिक था क्योंकि वह निर्णायक रूप से अनुच्छेद 370 में संशोधन करने के जैसा था, जो की अस्वीकार्य है।

लेकिन सुनवाई में एक विचित्र मोड़ लेते हुए न्यायालय ने 6 अगस्त की उस अधिसूचना को वैध माना जिसके तहत अनुच्छेद 370 को समाप्त किया गया और कहा कि राष्ट्रपति को पिछले दिन, 5 अगस्त, की अधिसूचना के कानूनी आधार के बिना भी ऐसा करने का अधिकार था जिसके तहत कार्रवाई को वैधानिक मजबूती देने का प्रयास किया गया था। राष्ट्रपति बिना किसी सिफारिश के राज्य के विशेष दर्जे को समाप्त कर सकते हैं। 

अदालत ने तर्क देते हुए कहा कि 1957 में संविधान सभा भंग होने के बाद भी भारत का संविधान समय-समय पर क्रमिक रूप से राज्य में लागू किया गया है और यह कि विशेष दर्जा हटाना इसके एकीकरण की प्रक्रिया की परिणति के अलावा और कुछ नहीं है।

अगर हम तर्क के इस आधार को निर्विवाद रूप से भी देखें, ये समझते हुए कि संविधान सभा की अनुपस्थिति में और इस राय से कि जम्मू-कश्मीर भारतीय संप्रभुता के अधीनस्थ है, सरकार की मंशा पर रोक लगाने वाली ऐसी कोई भी बाधा नहीं है जिसके चलते वह राज्य की बची हुई स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश न करे और यह पूर्णता संघवाद और लोकतंत्र के सभी सिद्धांतों के विपरीत है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के पास कोई संप्रभुता नहीं है। न्यायालय का कहना है कि अनुच्छेद 370 असममित संघवाद के एक रूप से ज्यादा कुछ और नहीं है और इसकी अतिरिक्त विशेषताएं- जैसे कि एक अलग संविधान होना, विधि निर्माण की अवशिष्ट शक्तियां, और संसद द्वारा कानून बनाने के पहले कुछ विधायी विषय पर राज्य की सहमति की आवश्यकता- इसे संप्रभुता नहीं देते हैं।

यह सब ठीक है। पर इसका यह मतलब कैसे हो सकता है कि राज्य के प्रति ऐतिहासिक दायित्व और संवैधानिक पदाधिकारी द्वारा किए गए वायदे सत्ताधारी व्यवस्था की सनक के चलते हवा में उड़ा दिए जाएं, यह एक एकदम समझ के परे है।

इन सभी बातों कि कैसे एकीकरण की प्रक्रिया कमोबेश कश्मीरी नेताओं व केंद्र सरकार के बीच निरंतर संवाद की बुनियाद पर विकसित हुई थी, परिस्थितियों व परिपेक्ष जिसमें उसे भारत में मिलाया गया था, वर्षों से राज्य सरकार की सहमति के साथ विलय पत्र की शर्तों और संवैधानिक प्रावधानों का प्रगतिशील विस्तार को भुला दिया गया है।

क्या संविधान जम्मू कश्मीर राज्य को पुनर्गठन कर दो केंद्र शासित राज्यों में परिवर्तित करने की इजाजत देता है या नहीं, इस सवाल पर फैसला देने में न्यायालय की विफलता न्यायिक टाल-मटोल की एक आश्चर्यजनक मिसाल है।

यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 3 के पहली बार एक राज्य के दर्जे को कम करने के लिए इस्तेमाल करने पर उठे सवाल पर निर्णय न लेकर बचने का प्रयास किया है।

न्यायालय के इस रुख की एकमात्र वजह यह बताई गई कि सॉलिसिटर-जनरल ने यह आश्वासन दिया है कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा फिर से बहाल किया जाएगा। यह संदेहास्पद है कि क्या मात्र उपचारात्मक उपाय के आश्वासन देने से किसी कार्यवाई को वैध करार दिया जा सकता है? इसी के साथ न्यायालय ने लद्दाख को अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बनाने के निर्णय को भी सही ठहराया है।

इस लिहाज से न्यायालय का यह फैसला केंद्र के लिए एक आमंत्रण है कि अब वह किसी भी राज्य के हिस्से को अलग करके नए केंद्र शासित प्रदेश बनाने पर विचार कर सके। न्यायालय का ये मानना के राष्ट्रपति की शक्तियों पर कोई सीमा नहीं है या राज्य सरकारों और उनके लिए कानून बनाने की क्षमता संसद के पास है यह निर्णय अपने आप में काफी खतरों को समेटे हुए है।

खास तौर पर, राज्य विधानसभा के “गैर-विधायी” ताकतों का संदर्भ राज्य को दी गई शक्तियों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करता है। भविष्य में केंद्र की सत्ता अपने संसदीय बहुमत का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाकर ऐसे अप्रत्याशित कार्यों को अंजाम दे सकती है जिसे राज्य की चुनी हुई सरकार शायद कभी नहीं कर सकती है।

इसके कुछ उदाहरण संविधान संशोधन का अनुसमर्थन, अंतर राज्य करारों को समाप्त करना, महत्वपूर्ण मुकदमों को वापस लेना व बड़े नीतिगत बदलाव करने के रूप में हो सकते हैं। ये नज़रिया कि इन बदलावों को बाद की चुनी हुई सरकार या सदन द्वारा वापस किया जा सकता है शायद ही कुछ संतोष दे अगर राष्ट्रपति शासन की आड़ में की गई कार्यवाइयों से राज्य के हितों को बड़ी हानि पहुंचती है।

यह एक ऐसा निर्णय है जो सत्ता के ऊपर संस्थागत सीमाओं को कमजोर करता है, और जायज ही रूप से जम्मू-कश्मीर के ऊपर भारतीय संप्रभुता को सही मानने के साथ, यह संघवाद और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भयावह हद तक कमजोर करता है। 

(द हिन्दू से साभार)

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