इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश द्वारा हाल ही में की गई यह टिप्पणी कि एक व्यक्ति द्वारा कथित रूप से 11 वर्षीय लड़की के स्तनों को पकड़ना, उसकी पायजामे की डोरियां तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे घसीटना ‘बलात्कार के प्रयास’ का आरोप लगाने के लिए पर्याप्त नहीं है, ने व्यापक आक्रोश और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग को जन्म दिया है। समाज के सभी वर्गों और राजनीतिक दलों के लोगों ने न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा के इस फैसले की कड़ी आलोचना की है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सदस्य प्रियंका कानूनगो ने इस निर्णय को न केवल बेहद निराशाजनक बताया अपितु इसे अन्यायपूर्ण भी बताया है। सूचना के अनुसार पीड़िता की उम्र 11 साल बताई जा रही है जो नाबालिग की श्रेणी में है। इसलिए पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 और 30 के तहत कानून यह प्रतिवादी पक्ष से आशा करता है कि वह अपने पर लगे आरोपों को गलत साबित करे और यही किसी लोकहितकारी कानून का न्यायिक विश्लेषण भी होना चाहिए जो बच्चों को यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए बना है। वहीं दूसरी तरफ कानून यह भी सीधे रूप से इंगित करता है कि यह कोर्ट में सिद्ध करना कि आरोपी ने गलती की है या नहीं यह आरोपी के ऊपर है न कि पीड़ित के ऊपर।
कुछ दिनों पहले इलाहाबाद हाइ कोर्ट के ही एक न्यायाधीश शेखर कुमार यादव ने यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक कोड को लेकर काफी आपत्तिजनक बयान दिया था जिसके बाद एक बड़ा बवाल मच गया था। अगर हम इन घटनाओं को मिला कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन जजों की मानसिकता और कानून को देखने का नजरिया क्या है जहां लोकतांत्रिक पक्ष का लोप होता हुआ साफ नजर आता है।
इससे पहले जस्टिस एन वी रामन्ना और जस्टिस अजय रस्तोगी ने एक मामले में सुनवाई करते हुए यह बात स्पष्ट की थी कि “अटेम्प्ट टू रेप” के लिए पुरुष को अपने कपड़े उतारने की जरूरत नहीं है। अटेम्प्ट को परिभाषित करते हुए दोनों जजों ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी अपराध के लिए अटेम्प्ट उसी वक्त शुरू हो जाता है जब कोई अपराधी किसी खास मंशा (intention) से किसी अपराध हेतु प्रथम प्रयास करता है।
अगर हम कानूनी व्याख्या के तौर पर इसे समझें तो सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में ’बलात्कार के प्रयास’ को काफी बारीकी से समझने का प्रयास किया है जिसके आधार पर कुछ मुख मानक हैं जिसके द्वारा यह समझा जा सकता है कि अपराध को ’बलात्कार के प्रयास’ के अंतर्गत समझा जा सकता है या नहीं। इसमें प्रमुख मानक हैं:
- बलात्कार करने की इच्छा
- अपराधी का किसी भी रूप में अपने जुनून को प्रदर्शित करना
- अपराधी द्वारा अपनी मंशा को अंजाम देने हेतु कोई ऐसी कार्यवाही करना जो रेप को अंजाम दे सकती है।
- अगर पीड़ित ने उस पर विरोध दर्ज किया है तो।
- यह भी देखे जाने की जरूरत है कि अपराधी अपने कार्य को अंजाम देने में कितना करीब था।
- पेनीट्रेशन के मानकों के आधार पर अगर इस कृत्य को देखा जाए तो वर्तमान केस के तथ्य सीधे रूप से “बलात्कार के प्रयास की तरफ इशारा करते हैं। अर्थात कानूनी व्याख्या के आधार पर न्यायाधीश ने न कानून की मंशा को समझने का प्रयास किया और न ही तथ्यों का सही रूप से मूल्यांकन किया। फिर बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या ऊपरी न्यायालय के न्यायाधीश से भी देश “सही न्यायिक समीक्षा” की उम्मीद छोड़ दे।
किसी भी लोकहितकारी नीति के न्यायशास्त्र का पहला मापदंड ही यही होता है कि वह एक किसी खास समूह को सहूलियत और जीवन को सरल बनाने हेतु बनाया गया है जिसका फायदा उस समूह को अवश्य मिलना चाहिए। यह व्याख्या केवल किसी खास कानून तक न सीमित होकर संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत भी समझी जानी चाहिए जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि गैर बराबर के साथ बराबरी का गणित नहीं लगाया जा सकता है। जिसका सीधा और स्पष्ट कारण है कि ”इक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ” के साथ ”विधि की सम्यक प्रक्रिया” और उसके अनुरूप निष्पादन पर भी विशेष बल होना चाहिए।
जहां न्यायाधीश से पॉक्सो एक्ट की गंभीरता को समझने की उम्मीद की जा रही है और पीड़िता के साथ नरमी से व्यवहार की उम्मीद की जा रही है वहीं विधायिका की मंशा को विफल करते हुए यह निर्णय एक स्थापित पितृसत्ता की ओर इशारा करता है जहां सवाल महिला और पुरुष का आता है वहां पूरे समाज में एक “पॉपुलर डिफेंस अगेंस्ट विक्टिम” पहले से ही व्याप्त है, वह फैल जाता है।
परन्तु यहां यह समझने की जरूरत है कि न्यायाधीश जो निचले कोर्टों में बेहद “कॉपी बुक” स्टाइल में निर्णय देते आ रहे हैं वहीं अपनी उसी मानसिकता को उच्च न्यायालय में भी दोहराने का प्रयास करते हैं जिसका एक व्यापक बुरा प्रभाव आम जनता के अंदर बैठी मानसिकता के ऊपर पड़ता है। क्योंकि देश के उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय केवल महज एक निर्णय नहीं होता बल्कि समस्त संविधान के दर्शन के निचोड़ से निकला हुआ होता है जिसे लोग उसी रूप में देखते हैं।
वहीं यह गरिमा ऐसे निर्णयों से व्यापक स्तर पर धूमिल होती है। परन्तु यह निर्णय बहुत निराशाजनक होने का नहीं बल्कि उम्मीदों पर खरा निर्णय है क्योंकि वर्तमान में हम जिस समाज में जी रहे हैं वहां फासीवाद ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं जिसमें लोग पिछली सभ्यताओं को ज्यादा मान्यता देंगे, इतिहास में वापस जाने की बात जोर पकड़ती जाएगी। इसलिए न केवल इस निर्णय को अपितु न्यायपालिका को हमें एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है।
(निशांत आनंद कानून के विद्यार्थी हैं।)
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