सनातन धर्म के संबंध में कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे और भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महासचिव बी एल संतोष के बीच ट्विटर पर एक दिलचस्प बहस चल पड़ी। उदयनिधि स्तालिन द्वारा सनातन धर्म को डेंगू-मलेरिया की तरह एक बीमारी बताये जाने के मामले पर एक सवाल के जवाब में प्रियांक खड़गे ने कहा कि,
“कोई भी धर्म जो समानता को बढ़ावा नहीं देता हो, कोई भी धर्म जो यह न सुनिश्चित करे कि आप में मनुष्य होने की गरिमा है, वह मेरे हिसाब से तो धर्म है ही नहीं। कोई भी धर्म, जो आपको बराबरी का अधिकार न दे, आपके साथ मनुष्य जैसा व्यवहार न करे, तो वह धर्म नहीं है, वह बीमारी ही है।”
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए बी एल संतोष ने लिखा कि,
“अगर किसी के पेट में संक्रमण हो जाए तो क्या आप उसका सिर काट देंगे…?”
इसके जवाब में खड़गे ने लिखा कि,
“संतोष जी, आपकी प्रतिक्रिया पाकर बहुत ख़ुशी हुई। आप कम से कम इस बात से तो सहमत हैं कि यह धर्म एक संक्रमण है जिसके उपचार की आवश्यकता है। हज़ारों वर्षों से ऐसे कई संक्रमण हैं जो आज भी प्रचलित हैं, जो मनुष्यों के बीच भेदभाव करते हैं और उन्हें मनुष्य होने की गरिमा से वंचित करते हैं। मैं आपके जितना बुद्धिमान नहीं हूं, लेकिन कृपया आप मेरा ज्ञानवर्धन करें कि-
- समाज में ये नियम किसने बनाये?
- वह कौन सी चीज़ है जो एक आदमी को दूसरे से ऊंचा दर्जा दे देती है?
- हमें जाति के आधार पर किसने बांटा?
- कुछ लोग अछूत क्यों हैं?
- वे अब भी मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं कर सकते?
- महिलाओं की स्थिति निम्न करने वाली इन प्रथाओं को किसने शुरू किया?
- जाति आधारित असमानतापूर्ण और दमनकारी सामाजिक ढांचा किसने तैयार किया?
किसी का सिर काटने का इरादा किसी का नहीं है, लेकिन संक्रमण का इलाज करना जरूरी है ताकि सभी को समान अधिकार और सम्मान सुनिश्चित किया जा सके। इन सभी संक्रमणों का एकमात्र इलाज संविधान है, लेकिन आपका संगठन और आप उसी के खिलाफ हैं। आप कर्नाटक से हैं, कृपया गुरु बसवन्ना के उपदेशों का प्रसार करें, इससे हमें एक अधिक समतापूर्ण समाज बनाने में मदद मिलेगी।”
इसके जवाब में बी एल संतोष ने लिखा कि,
“आप चर्चा में शामिल हैं, अच्छी बात है। सुधार करना और कमियां गिनाना किसी समस्या को देखने के दो तरीके हैं। बुद्ध से लेकर अन्ना बसवन्ना से लेकर डॉ. बी आर अंबेडकर तक ने समाज को सुधारने का प्रयास किया। वे इसमें सफल भी रहे।”
इस पर खड़गे लिखते हैं कि, “अच्छी बात है कि आप जवाब दे रहे हैं। पहले ही बता चुका हूं कि मैं आपकी तरह प्रबुद्ध नहीं हूं।
लेकिन मुझे बताइए कि, वे कौन लोग थे जिन्होंने उन सुधारों को बेकार कर दिया जो बुद्ध या बसवन्ना लाना चाहते थे?
वे कौन लोग थे जिन्होंने रामलीला मैदान में संविधान जलाया था, जब बाबा साहब इसके लिए संघर्ष कर रहे थे?
कृपया अपनी पत्रिका ‘ऑर्गेनाइज़र’ के पुराने लेख पढ़ें। 30 नवंबर, 1949 को एक संपादकीय प्रकाशित हुआ था। इसमें संविधान को खारिज कर दिया गया था और मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाने की मांग की गयी थी।
इसमें लिखा गया था- ‘लेकिन इस संविधान में प्राचीन भारत में हुए अद्वितीय संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु के नियम स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज तक मनुस्मृति में प्रतिपादित उनके कानून दुनिया की प्रशंसा पाते हैं और लोगों में सहज आज्ञाकारिता और अनुसरण का भाव पैदा करते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है’।”
इस पर संतोष फिर सवाल उठाते हैं, “बस कुछ संदेह हैं प्रियांक सर… (ज्ञानोदय तो कांग्रेसियों को जन्म से ही प्राप्त है)
1. अगर कांग्रेसी डॉ. बी आर अंबेडकर का इतना सम्मान करते थे तो उनको क्यों निर्वाचित नहीं होने दिया..?
2. क्या आप जानते हैं कि संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने ही डॉ. बी आर अंबेडकर की सहायता की थी..?”
खड़गे लिखते हैं कि, “आपके संदेह दूर करने में सदैव प्रसन्नता होगी, सर। यदि आपने बाबासाहेब के लेखन को पर्याप्त रूप से पढ़ा है, तो आप इस तरह के मूर्खतापूर्ण प्रश्न नहीं पूछेंगे और न ही हमेशा की तरह वास्तविक विषय से दूर भागेंगे, क्योंकि अपने ‘अनुकूल’ पिच पर बल्लेबाजी करने की कोशिश करने से भी आपको कोई मदद नहीं मिलने वाली।
मैं कुछ ऐतिहासिक तथ्य साझा करना चाहता हूं (ये आपको आपके व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के अभिलेखागार में नहीं मिलेंगे।)-
बाबासाहेब और कांग्रेस के बीच में काफी बहसें हुई थीं और कई मतभेद भी थे, इस विषय पर उन्होंने खुद एक किताब भी लिखी है। इसे पढ़ें।
जब वे अनुसूचित जाति फेडरेशन पार्टी से बॉम्बे नॉर्थ सेंट्रल निर्वाचन क्षेत्र से खड़े हुए, तो हिंदू महासभा ने भी उनके खिलाफ चुनाव लड़ा।
बाद में, बंगाल के विभाजन के कारण डॉ. अम्बेडकर की विधानसभा सीट खत्म हो गयी, जिससे पश्चिम बंगाल में संविधान सभा के लिए नए सिरे से चुनाव की आवश्यकता हुई और जब यह स्पष्ट हो गया कि बाबासाहेब विधानसभा सदस्य नहीं रह सकते, तो कांग्रेस ने उनके मूल्य को पहचानते हुए उन्हें सहयोग देने का फैसला किया। 30 जून, 1947 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने बम्बई के प्रधानमंत्री बी.जी. खेर को पत्र लिखा। उनसे डॉ. अम्बेडकर को कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा के लिए निर्वाचित कराने का अनुरोध किया।
उन्होंने लिखा- ‘अन्य सभी तर्कों के अलावा हम इस पर गौर करें कि हमने संविधान सभा और जिन विभिन्न समितियों में उन्हें नियुक्त किया था, उन सबमें डॉ. अम्बेडकर का काम ऐसा रहा है कि हमें खुद को उनकी सेवाओं से वंचित नहीं रखना चाहिए। जैसा कि आप जानते हैं, वह बंगाल से चुने गए थे और प्रांत के विभाजन के बाद 14 जुलाई 1947 से वह संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे और इसलिए यह आवश्यक है कि उन्हें तुरंत चुना जाना चाहिए’। इस तरह, हमने यह सुनिश्चित किया कि देश बाबा साहेब की मेधा से वंचित न रहे।”
खड़गे आगे लिखते हैं कि “आपके वैचारिक गुरुओं ने न केवल बाबा साहब का विरोध किया बल्कि पहले भी बंगाल और सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकारें चलायीं।
दत्तोपंत ठेंगड़ी और बाबासाहेब का रिश्ता आरएसएस की कल्पना और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की उपज है, इसलिए उस बात को रहने ही दीजिए।
बाबा साहब के धर्म परिवर्तन पर आते हैं। क्या आप जानते हैं, सावरकर और आरएसएस ने बाबा साहब के बौद्ध धर्म में परिवर्तन का विरोध किया था और उनके धर्म परिवर्तन को एक बेकार काम कहा था?
क्या आप जानते हैं कि बाबा साहब के बौद्ध धर्म अपनाने के बाद सावरकर ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि ‘सनातन हिंदू बहुसंख्यक गांवों से आने वाले ये महार ‘अछूत’ लोग नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाने के बाद जब अपने गांवों में वापस जाएंगे तो क्या उन्हें केवल इसलिए ‘स्पृश्य’ मान लिया जाएगा क्योंकि उन्होंने अब बौद्ध धर्म अपना लिया है? यह असंभव है’।”
खड़गे लिखते हैं कि “बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म इसलिए अपनाया क्योंकि यह ‘सबसे वैज्ञानिक धर्म’ था। उन्होंने कहा- ‘ऋग्वेद के भजनों में, हम मनुष्य के विचारों को खुद से दूर, देवताओं की दुनिया की ओर उन्मुख होते हुए देखते हैं’।
जबकि ‘बौद्ध धर्म, मनुष्य की खोज को उसके भीतर छिपी संभावनाओं की ओर उन्मुख करता है… वेद देवताओं की ‘प्रार्थना, स्तुति और पूजा’ से भरे हुए हैं, जबकि बौद्ध धर्म का उद्देश्य मन को सही ढंग से कार्य करने के लिए प्रशिक्षित करना है’।
आपकी विचारधारा गुरु नारायण, बसवन्ना, बाबासाहेब, सबका विरोध करती रही है, और अब भी कर रही है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
अगर कर सकें तो हमारी बात को गलत साबित करें और बताएं कि आरएसएस किस तरह से अब बदल चुका है और एक समतामूलक समाज में विश्वास करने लगा है। मुझे बताएं कि आरएसएस में सरसंचालक के रूप में कोई दलित या महिला कब होगी?”
(प्रस्तुति : शैलेश)
किया सच बात कही