पिछले कुछ सालों से जून का महीना आते-आते योग की इतनी चर्चा होने लगती है कि जो नियमित योगाभ्यास नहीं करता उसके भीतर एक अपराध बोध पैदा होने लगता है! कोविड काल में तो महामारी ने चर्चाओं का बड़ा हिस्सा झटक लिया, पर देश विदेश में फलती-फूलती तथाकथित योग गुरुओं की पलटनें ‘आपदा को अवसर’ में बदलने के नाम पर योग को भी भुनवाने का मौक़ा नहीं चूकीं।ऑनलाइन योग इतना अधिक हो गया कि अब ऑफलाइन योग कुछ असामान्य ही दिखने लगा!
दीर्घजीवी होना पर्याप्त नहीं
योग को लेकर सबसे बड़े आपत्ति उन लोगों से है होनी चाहिए जो इसे आध्यात्मिक प्रगति का एक माध्यम बता कर प्रचारित करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने बड़ी ही तार्किक बातें करते थे। उनका कहना था कि योग का दैहिकता का पक्ष हमें एक स्वस्थ पशु भर बना सकता है, उससे आध्यात्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं। विवेकानंद ने इस बात की ओर भी इशारा किया था कि योगाभ्यास के कारण लोगों का अपनी देह के प्रति मोह बढ़ता है और ऐसे में यह आध्यात्मिकता से ठीक विपरीत दिशा में ले जाता है। सिर्फ देह के व्याधिग्रस्त न होने की चिंता करना और इस उद्येश्य से तरह तरह के आसन वगैरह करना कोई ख़ास महत्त्व का नहीं। उनका कहना था कि बरगद का वृक्ष कभी-कभी 5000 साल तक जीता है पर वह सिर्फ बरगद का एक वृक्ष ही होता है, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। इसलिए कोई व्यक्ति दीर्घजीवी तो हो सकता है, पर वह एक स्वस्थ पशु भर बना रहेगा।
स्वास्थ्य की अधिक चिंता भी एक रोग है
गौरतलब है कि शारीरिक स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता भी एक रोग ही है। एनोरेक्सिया नर्वोसा और बुलिमिया ऐसे दो गम्भीर रोग हैं जिन्हे लोग अक्सर सुन्दर और स्वस्थ दिखने के चक्कर में आमंत्रित कर लेते हैं। यदि हम योग को कोई सरल नाम दे सकते, मसलन कसरत या व्यायाम, और इसका उपयोग स्पष्ट और शुद्ध रूप से अपनी शारीरिक सेहत बनाने या सुधारने के लिए करते, तो बेहतर होता। योग शब्द ही एक समस्या पैदा करता है, इससे कहीं न कहीं धार्मिकता का भान होता है और वह भी एक विशेष धर्म की परंपरा से जुडी धार्मिकता। यह एक धंधा भी बन गया है और इसने कई गुरुओं को जन्म दे डाला है। योग की दुनिया कई तरह की गुरुबाजी का अखाड़ा बन कर रह गई है।
योग गुरु बस एक ट्रेनर है
एक ‘योग गुरु’ को अधिक से अधिक एक जिम ट्रेनर की तरह देखा जाना चाहिए। योग गुरु न कह कर उसे एक प्रशिक्षक कहा जाना चाहिए। गुरु शब्द अपने आप में ही आपत्तिजनक है, अहंकार और श्रेष्ठता की भावना से भरा हुआ। योग को आध्यात्मिकता के साथ बिलकुल भी नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इससे लोग गुमराह होते हैं और बाजार, पूंजीवाद और आध्यात्मिक दुकानदारी करने वालों के हाथ में एक माध्यम बन जाता है। योग का सबसे अधिक दुरुपयोग यदि किसी ने किया है तो उन गुरुओं ने जिन्होंने इसे तथाकथित आध्यात्मिक प्रगति के साथ जोड़ दिया। जिस उच्चतर ऊर्जा, कुण्डलिनी वगैरह को जगाने का दावा योग में किया जाता है, वह एक कपोल कल्पित बात है जिसके नाम पर योग गुरुओं का धंधा चलता है। योग को वैसे ही देखा जाना चाहिए जैसे कि सेहत के लिए सैर करने, या तैरने या किसी और तरह के व्यायाम को देखा जाता है।
मन को समझना अधिक जरूरी
पतंजलि ने चित्त की वृतियों के निरोध या निषेध को योग कहा था। इस बात को थोड़ा करीब से और बड़ी गंभीरता से देखने की आवश्यकता है। जीवन चित्त-केन्द्रित है और यह चित्त की आड़ी-तिरछी रेखाओं पर ही चलता है। ये रेखाएं हमारा समाज, शिक्षा और संस्कार या निर्मित करते हैं। ये सभी मिलकर इन रेखाओं की दिशा और दशा तय करते हैं। चित्त की इन वृत्तियों का निषेध करना या उनका दमन करना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से न ही उचित है और न ही संभव है। चित्त की वृत्तियों को समझा जा सकता है, और आधुनिक मनोविज्ञान यह बताता है कि उनकी समेकित समझ में ही उनका अंत है।
वृत्तियों का निषेध या दमन उम्र के किसी न किसी पड़ाव पर जाकर उन्हें और अधिक विकृत बना देता है और उनकी अभिव्यक्ति ऐसे माध्यम से और ऐसे ढंग से होती है कि उन्हें समझ पाना मुश्किल हो जाता है। दमित वृत्तियां अचेतन का हिस्सा बन जाती हैं, वे पूरी तरह समाप्त नहीं होतीं, और फिर कभी न कभी गलत जगह, गलत तरीके से व्यक्त हो जाती हैं, ऐसे ढंग से कि उन्हें समझना मुश्किल हो जाता है। गांधी जी इसका बड़ा उदाहरण हैं। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद एक गहरे अपराध बोध के कारण सेक्स से दूर रहने की ठान ली थी और फिर करीब पैंसठ साल की उम्र में भी उन्होंने स्वीकार किया कि वे अपनी अतृप्त यौनेच्छाओं से मुक्त नहीं हुए हैं।
पूंजीवादियों को खूब फायदा
वास्तविक योग यह जानने में भी है कि आप योग करना क्यों चाहते हैं! कुछ लोग व्यापार में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए, कॉर्पोरेट जगत में अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए या फिर एक बड़ा राजनीतिज्ञ बनने के लिए भी योग शुरू कर देते हैं। उन्हें लगता है कि योग से उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा मिलेगी और वे अपने आत्मकेंद्रित कामों में खुद को अच्छी तरह झोंक सकेंगे। यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें यह स्वीकारना चाहिए। स्वयं को आध्यात्मिक नहीं समझना चाहिए।
योग वही जो सबसे जोड़े
यदि लोग उच्चतर ऊर्जा और कुण्डलिनी जैसी बेतुकी बातों को त्याग कर एक व्यायाम के रूप में योग का अभ्यास करे तो उन्हें इसके बेहतर फल मिलेंगे, कुंठा कम होगी और सेहत तो बेहतर होगी ही। यदि आप आवश्यकता से अधिक नहीं खाते, अपने शरीर को लचीला बनाये रखते हैं, रोज़ एकाध घंटे के लिए कोई सहज सा व्यायाम करते हैं, संवेदनशील हैं, घृणा, क्रोध जैसे नकारात्मक भाव ज्यादा समय तक पाल कर नहीं रखते, तो यह सब भी आप को वही फल देगा जिसका दावा योग के तथाकथित विशेषज्ञ करते हैं। सहज रूप से जीने में एक विशेष तरह की संवेदनशीलता है जो किसी योग गुरु को पैसे देकर आसन, प्राणायाम सीख कर प्राप्त नहीं की जा सकती।
गलत जीवन शैली की हानियों को समझ कर ही उनको ख़त्म किया जा सकता है, और यही योग है। यह सिर्फ शरीर को मजबूत और सुंदर बनाने से नहीं जुड़ा, इसका गहरा सम्बन्ध मन और पूरे जीवन के साथ है। योग वही है जो हमें जोड़ सके, पूरी दुनिया के साथ, प्रकृति के साथ, पेड़ पौधों और पशुओं के साथ। योग का अर्थ सिर्फ अपनी देह पर काम करना और उसे आकर्षक बनाना नहीं, यह मन पर और उससे भी गहरे अवचेतन और अचेतन तलों पर काम करने से सम्बंधित है। सही सोच में योग है, तर्ककुशलता में योग है, जीवन को बगैर किसी कलह के जीने में योग है; योग है शोषण की प्रवृत्ति के बिना प्रकृति और बाकी मनुष्यों के साथ जीने में, और यह सब बहुत अधिक परिश्रम की मांग करता है। यह हाट में किसी गुरु के हाथों बिकने वाली चीज़ नहीं।
सिर्फ आसनों से नहीं होता योग
सिर्फ हाथ, पैर या पूरे शरीर को भी दायें-बाएं मोड़ने से कोई आतंरिक विकास नहीं हो सकता। मुमकिन ही नहीं। जेन बौद्ध की एक कथा इस संबंध में साझा की जानी चाहिए। एक शिष्य अपने गुरु के पास ध्यान वगैरह सीखने गया। वह आध्यात्मिकता में रूचि रखता था और यह मानता था कि योग, ध्यान वगैरह के अभ्यास से वह अपना लक्ष्य पा लेगा। वह अपनी इच्छा व्यक्त करने के बाद वह शिक्षक के सामने पालथी मार कर, आंखे बंद करके बैठ गया। जब उसने थोड़ी देर बाद आंखें खोलीं तो देखा कि उसके शिक्षक दो पत्थरों को दोनो हाथों में पकडे हुए आपस में घिस रहे थे। शिष्य ने पूछा कि वह कर क्या रहे हैं। शिक्षक ने जवाब दिया कि वह उन पत्थरों को घिस कर एक दर्पण बनाना चाहते हैं। शिष्य बोला कि यह तो मुमकिन ही नहीं। शिक्षक ने कहा ठीक उसी तरह जैसे ध्यान और सही आसन वगैरह से कोई आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं।
( चैतन्य नागर स्वतंत्र टिप्णीकार हैं।)