कर्नाटक राज्य स्कूल बोर्ड की किताब में, सावरकर द्वारा अंडमान जेल की कोठरी से, एक बुलबुल पर सवार होकर, रोज वहां से निकल कर भारत आने और चले जाने की रूपक कथा का, जब उपहास उड़ा तो कर्नाटक सरकार ने इसे एक प्रतीकात्मक कथन कहा और इसे सावरकर की देशभक्ति से जोड़ा। निश्चित ही यह प्रसंग प्रतीकात्मक ही होगा, पर यह प्रतीक जो अभिव्यक्त कर रहा है, कहीं से भी सावरकर के अंडमान बाद के जीवन और उनकी सोच से मेल नहीं खाता है। सावरकर को लेकर आरएसएस और बीजेपी के मित्र, पिछले आठ सालों से नियमित रूप से कुछ न कुछ ऐसी खबरें ब्रेक करते रहते हैं जिससे न केवल विवाद खड़ा होता है, बल्कि इससे सावरकर की ही, प्रतिष्ठा की हानि भी होती है।
सावरकर का अंडमान बाद का जीवन, स्वाधीनता आंदोलन से विरत रहने, ब्रिटिश राज की पेंशन पर जीने, एमए जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाने, धर्म आधारित राष्ट्रवाद का सिद्धांत गढ़ने, जिन्ना का हम खयाल बनने और भारत छोड़ो आंदोलन में आंदोलन का न सिर्फ विरोध करने, बल्कि उस आंदोलन के विरोध में, ब्रिटिश राज के साथ खड़े होने का रहा है। रही सही कसर, उन्होंने गांधी हत्या की साज़िश में संदिग्ध रह कर पूरी कर दी। ऐसी स्थिति में जब भी सावरकर के बारे में कुछ भी कहा जाता है तो, उस पर व्यापक वाद विवाद और प्रतिक्रिया होती है। यहां तक कि, उन्हें वीर कहने पर भी विवाद है, कि आखिर उन्हें वीर सबसे पहले कहा किसने।
कुख्यात अंडमान जेल एक यातनागृह था और जो भी कैदी वहां भेजा जाता था, उसे तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं। मुख्य भूमि से दूर होने के कारण, वहां की खबरें आ भी नहीं पाती थी। सावरकर को भी यातनाएं दी गईं इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सावरकर के अतिरिक्त किसी अन्य स्वाधीनता संग्राम के योद्धा ने कोई माफीनामा भेजा हो, उसका जिक्र नहीं मिलता है।
मैं सावरकर द्वारा भेजे गए माफीनामे के विवरण पर नहीं जा रहा हूँ, वह एक अलग विषय है बल्कि उसी कुख्यात अंडमान जेल में बंद एक अन्य स्वाधीनता संग्राम सेनानी के बारे में बताने जा रहा हूँ, जो सावरकर के साथ ही बंद थे। बात अंडमान की है। बात अंडमान के सेलुलर जेल की है। बात उन काल कोठरियों में कैद उन महान संघर्षशील योद्धाओं की है जिन्होंने देश को आज़ाद कराने में अपना योगदान किसी से भी कम नहीं दिया, पर उन पर बहुत कम लिखा गया है और साम्रग्री भी कम ही उपलब्ध है।
इन हुतात्माओं ने अपनी जवानी, देश को आज़ाद कराने में दे दी और काले पानी के सेलुलर जेल की काल कोठरी में ही अपना पूरा जीवन बिता दिया। प्रख्यात इतिहासकार डॉ आरसी मजूमदार ने एक पुस्तक लिखी है द पीनल सेटलमेंट ऑफ अंडमान। लगभग 350 पृष्ठों की इस पुस्तक में जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित है मुझे आईआईटी कानपुर के पुस्तकालय में ऐसे ही कैटलॉग पलटते-पलटते मिल गयी। इस पुस्तक में अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के लोगों का इतिहास, परंपराएं और कुछ नृतत्वशास्त्रीय विवरण हैं और इन सबसे महत्वपूर्ण है अंडमान की खतरनाक और यातनामय सेलुलर जेल में बंद उन कैदियों की दास्तान जो वहां, 1787 से 1945 तक बंदी बना कर रखे गए हैं।
अंडमान में सभी कैदी राजनीतिक बंदी नहीं थे बल्कि दुर्दांत अपराधी ही पहले वहां बंदी बना कर रखे जाते थे। पर बाद में जब 1880 के बाद राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ और आज़ादी का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा तो क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान उम्र कैद की सज़ा पाए बंदी इन जेलों में भेज दिए जाते थे। हालांकि राजनीतिक बंदियों को अपराधी बंदियों के साथ रखने का कोई औचित्य नहीं है पर अहंकारी सत्ता भला औचित्य और अनौचित्य का विचार ही कब करती है? इन्हीं बंदियों में वीडी सावरकर भी थे जो बाद में क्षमा याचना कर के और अंग्रेज़ी हुक़ूमत के वफादार रहने के वादे पर छूट गए थे। पर आज हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। आज हम चर्चा करेंगे बंगाल के क्रांतिकारी त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती की जो इस सेलुलर जेल में आज़ादी मिलने तक कैद रहे।
त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती (1888 -1 अगस्त, 1970) का जन्म 1889 ई. में बंगाल के मेमनसिंह जिले के कपासतिया गांव में हुआ था जो अब बांग्लादेश में है। बचपन से ही त्रैलोक्य चक्रवर्ती के परिवार का वातावरण राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था। पिता ‘दुर्गाचरन’ तथा भाई ‘व्यामिनी मोहन’ का इनके जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। पिता दुर्गाचरण स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक थे। भाई व्यामिनी मोहन का क्रान्तिकारियों से संपर्क था। इसका प्रभाव त्रैलोक्य चक्रवर्ती पर भी पड़ा। देश प्रेम की भावना उनके मन में गहराई तक समाई थी। इंटर की परीक्षा देने से पहले ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया। जेल से छूटते ही वे ‘अनुशीलन समिति’ में सम्मिलित हो गए। 1909 ई. में उन्हें ‘ढाका षड्यंत्र केस’ का अभियुक्त बनाया गया, पर वे पुलिस के हाथ नहीं आए। 1912 ई. में वे गिरफ्तार तो हुए, पर अदालत में उन पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके।
1914 ई. में उन्हें ‘बारीसाल षड्यंत्र केस’ में सजा हुई और सजा काटने के लिए उन्हें अंडमान भेज दिया गया। वे इसे सजा नहीं तपस्या मानते थे और यह विश्वास करते थे कि उनकी इस तपस्या के परिणामस्वरुप भारत वर्ष को स्वतंत्रता मिलेगी। वीडी सावरकर और गुरुमुख सिंह जैसे क्रान्तिकारी उनके साथ अंडमान की जेल में बंदी थे। इन लोगों ने वहां संगठन शक्ति के बल पर रचनात्मक कार्य किया। उन्होंने अपने जीवन के श्रेष्ठतम तीस वर्ष जेल की काल कोठरियों में बिताये। उनका संघर्षशील व्यक्तित्व, अन्याय, अनीति से जीवनपर्यन्त जूझने की प्रेरक कहानी है। त्रैलोक्य चक्रवर्ती को ‘ढाका षडयंत्र केस’ तथा ‘बारीसाल षडयंत्र केस’ का अभियुक्त बनाया गया था। कारागार में, वे ‘महाराज’ के नाम से प्रसिद्ध थे।
जब वे अंडमान जेल में भेजे गए तो सावरकर वहां आ चुके थे। वीडी सावरकर के सहयोगी के रूप में उन्होंने जेल में ही हिन्दी भाषा पढ़ने और उसके प्रचार का कार्य अपनाया। त्रैलोक्य नाथ बांग्ला भाषी थे और वे हिंदी नहीं जानते थे। सावरकर से हिन्दी सीखने वाले वे पहले व्यक्ति थे। परतंत्र भारत में भी वह स्वतंत्र भारत की बातें सोचा करते थे। उन्हें विश्वास था कि जब देश स्वतंत्र हो जायेगा, तो इस विशाल देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए एक भाषा का होना बहुत आवश्यक है। यह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। अत: इस भाषा के प्रचार का कार्य उन्होंने सावरकर के साथ वहीं काले पानी की जेल में ही आरम्भ कर दिया था। उनके प्रयास से 200 से भी अधिक कैदियों ने वहां हिंदी सीखी। चाहे जेल की दीवारें हों या काले पानी की कोठरियां, वहां भी मनस्वी और कर्मनिष्ठ चुप नहीं बैठते।
1934 में वे जेल से फरार हो गए। जब देश आजाद हुआ तो उनकी जन्म भूमि पूर्वी पाकिस्तान के क्षेत्र में आई। वहां दंगे भड़क चुके थे। अल्पसंख्यक हिंदुओं का पलायन हो रहा था। उन्होंने उस कठिन और चुनौतीपूर्ण माहौल में भी सामाजिक सद्भाव के लिये काम किया। वे नोआखाली में जब महात्मा गांधी गये थे तो उनके साथ भी थे।
पूर्वी पाकिस्तान सरकार ने उन्हें वर्षों तक नजरबन्द बनाये रखा। वे चार साल तक ढाका जेल में बंद रहे। भारत सरकार के हस्तक्षेप के बाद, पाकिस्तान सरकार ने खराब स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें बाद में रिहा किया । वर्ष, 1970 में वीवी गिरि जब राष्ट्रपति थे तो उन्होंने उनको इलाज कराने के लिये दिल्ली बुलाया, पर चक्रवर्ती जी ने यह कहते हुए अनुरोध ठुकरा दिया कि ऐसी आज़ादी के लिए हमने सपना नहीं देखा था। अंत मे बहुत अनुनय विनय पर महाराज, भारत आए। 1970 में ढाका जेल से उन्हें छोड़ा गया। वे भारत आये और 1 अगस्त 1970 को उनका देहावसान हो गया।
इतिहास निर्मम तो होता ही है, पर उससे निर्मम हम होते हैं जो ऐसे क्रांतिवीरों को जिन्होंने अपार यातनाएं सहीं, पर न टूटे, न झुके, न माफी मांगी और न ही बिखरे, को भुला देते हैं। हम इन सारे क्रान्तिनायकों के कृतज्ञ हैं, जिन्होंने देश को साम्राज्यवाद के पाश से मुक्त कराया। महाराज त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती को विनम्र प्रणाम और उनका विनम्र स्मरण।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)
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