यात्राएं, आन्दोलन और प्रजातंत्र की आत्मा

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आने वाली 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन होना है। इसके लिए जिस स्तर पर व्यापक तैयारियां की जा रही हैं और इसमें भागीदारी के लिए जिस बड़ी संख्या में लोगों को लामबंद किया जा रहा है, उसके चलते आज भारत के धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आत्मचिंतन जरूरी हो गया है।

स्वतंत्रता के तुरंत बाद यह मांग उठी कि गुजरात स्थित सोमनाथ मंदिर, जिसमें 11वीं सदी में महमूद गजनी ने तोड़फोड़ की थी, का पुनर्निर्माण सरकार द्वारा करवाया जाए। जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं कि वे और सरदार पटेल महात्मा गांधी से मिले और “इस विषय पर चर्चा की मगर गांधीजी का मत था कि सरकार को मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए धन उपलब्ध नहीं करवाना चाहिए और ना ही इस पर होने वाले खर्च में कोई हिस्सेदारी करनी चाहिए”। इसी तर्ज पर नेहरू, जो उस समय देश के प्रधानमंत्री थे, ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सलाह दी कि वे भारत के राष्ट्रपति की हैसियत से पुनर्निर्मित मंदिर का उद्घाटन न करें। और फिर नेहरू ने बांधों, सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रमों, स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थाओं और शैक्षणिक व शोध संस्थानों को आधुनिक भारत के मंदिर निरूपित किया।

“एक व्यक्ति एक वोट” के सिद्धांत ने भी देश में प्रजातंत्र को मजबूती दी। श्रमिकों, किसानों और समाज के अन्य तबकों के सामाजिक आंदोलनों से भी भारतीय प्रजातंत्र मजबूत हुआ। आपातकाल के कुछ सालों को यदि हम छोड़ दें तो हम पाएंगे कि स्वतंत्रता के बाद से भारत में प्रजातंत्र और मजबूत, और गहरा होता गया। यह सिलसिला राममंदिर आंदोलन शुरू होने तक चला। यह आंदोलन स्वाधीनता संग्राम से उपजे ‘भारत के विचार’ के खिलाफ था। बाबरी मस्जिद में योजनाबद्ध तरीके से रामलला की मूर्तियां रख दी गईं और फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के. के. नैयर ने उन्हें हटवाने से इंकार कर दिया। इससे ही उस मुद्दे की नींव पड़ी जो आगे चलकर भारतीय संविधान के मूल्यों के लिए एक बड़ा खतरा बनने वाला था।

छह दिसंबर 1992 को षड़यंत्रपूर्वक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया और इससे उस भव्य मंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त हुई जिसका इस महीने उद्घाटन होना है। जो राजनैतिक दल इस समय भारत की केन्द्र सरकार पर काबिज है वह न केवल भावनात्मक मुद्दों को अपनी राजनीति के केन्द्र में रखता आया है वरन् उसने भारत में प्रजातंत्र को सीमित और कमजोर भी किया है। लालकृष्ण आडवाणी, जिन्होंने राममंदिर आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वे भी यह कहने पर मजबूर हो गए कि भारत में वर्तमान में अघोषित आपातकाल लागू है। कुल मिलाकर भावनात्मक मुद्दों की रेलमपेल में प्रजातांत्रिक महत्वाकांक्षाओं और बेहतर जीवन स्तर हासिल करने की तमन्नाओं का गला घोंट दिया है। सरकार इन मुद्दों पर ध्यान देने को तैयार नहीं है और बढ़ती कीमतों और जीवनयापन में कठिनाईयों के चलते आम लोगों का जीना दूभर हो गया है।

एक अच्छे कल के सपने हवा हो गए हैं। भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गांधी और भारत की आजादी के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले असंख्य नेताओं ने जिस भारत के निर्माण का स्वप्न देखा था, वह भारत कहीं नज़र नहीं आ रहा है।

इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले कुछ सालों में हमने भारतीय प्रजातंत्र की ताकत के कुछ उदाहरण भी देखे। कृषि क्षेत्र में दमनकारी कानून लागू करने के खिलाफ बड़ी संख्या में किसान दिल्ली पहुंचे। महीनों तक चले उनके संघर्ष में 600 किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। उन्होंने यह साबित किया कि प्रजातांत्रिक आंदोलनों से सरकार को झुकाया जा सकता है। सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े। उसके बाद सरकार ने एक और कपटपूर्ण चाल चली। मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बनाया गया एवं राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) पर काम शुरू किया गया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप शाहीनबाग आंदोलन शुरू हुआ जिसने एक बार फिर यह साबित किया कि प्रजातांत्रिक आंदोलनों के जरिए देश का भविष्य गढ़ा जा सकता है।

लगभग एक साल पहले निकाली गई भारत जोड़ो यात्रा ने भी देश के लोगों के दुखों और परेशानियों को सामने लाने का काम किया। इस यात्रा से यह संदेश भी गया कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले और विभिन्न जातियों में बंटे भारतीय मूलतः एक हैं। इस यात्रा से वातावरण में घुला अवसाद और निराशा का भाव कम हुआ, लोगों में आशा का संचार हुआ और देश का ध्यान असली मुद्दों पर गया उन मुद्दों पर जिनका संबंध भूख से, सिर पर छत से और रोजगार से था। इस यात्रा पर जिस तरह की जनप्रतिक्रिया देखने को मिली उससे ऐसा लगा मानो लोग इस तरह के किसी आयोजन की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। ऐसा लगा मानो वे प्रजातांत्रिक ढंग से अपने दुःखों और वंचनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए मौके की तलाश में थे। इस यात्रा ने राष्ट्रीय स्तर पर एक नया संवाद शुरू किया और ऐसी उम्मीद बंधी की हम एक समावेशी समाज का निर्माण कर पाएंगे और अपने लोगों की दुनियावी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेंगे।

इन सब चीजों से फर्क तो पड़ा परंतु साम्प्रदायिक ताकतों की मशीनरी इतनी कार्यकुशल, इतनी विशाल और इतनी शक्तिशाली है कि उसने जल्द ही एक बार फिर ऐसे मुद्दों को राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में ला दिया जो देश को बांटने वाले थे और जिनका लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं से कोई लेनादेना नहीं था। राममंदिर के उद्घाटन को बहुत बड़ी घटना बताया जा रहा है। संघ के सभी अनुषांगिक संगठन इस आयोजन के लिए लोगों को गोलबंद करने में दिन-रात जुटे हुए हैं। लोगों को अक्षत बांटकर अयोध्या आने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। अयोध्या जाने के लिए विशेष ट्रेनें और बसें चलाई जानी हैं। देश का पूरा ध्यान राम मंदिर के उद्घाटन पर केद्रित हो गया है।

पूरा देश 22 जनवरी का इंतजार कर रहा है, जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में भगवान राम की मूर्ति में प्राण फूंकेगें। इस सबके बीच एक दूसरा आयोजन भी चल रहा है। 14 जनवरी को मणिपुर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू हुई है जो 20 मार्च को मुंबई पहुंचेगी। यह यात्रा हाईब्रिड है, अर्थात कुछ दूरी बस से तय की जाएगी और कुछ पैदल। यह यात्रा मणिपुर से शुरू हुई है, जहां पिछले सात महीने से नस्लीय हिंसा जारी है मगर सरकार उस पर कोई ध्यान नहीं दे रही है। मणिपुर में यात्रा की शुरूआत में उसे लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया हासिल हुई।

इस यात्रा का फोकस न्याय पर है। हम आज अपने चारों ओर अन्याय देख रहे हैं। यात्रा का फोकस बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं, बढ़ती गरीबी और आदिवासियों के हकों और महिलाओं की गरिमा पर बढ़ते हमलों पर है। प्रजातांत्रिक ढंग से आम लोगों की समस्याओं को देश के सामने लाने का शायद यह एक बेहतर तरीका है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा केवल और केवल राम मंदिर के उद्घाटन की चर्चा कर रहा है। ऐसे में इस यात्रा के संदेश को चारों ओर फैलाना जरूरी है। राममंदिर भाजपा-आरएसएस का एजेंडा है और यह साम्प्रदायिक और निरंकुश राजनीति को बढ़ावा देगा। भारत जोड़ो न्याय यात्रा के केन्द्र में संवैधानिक नैतिकता से जुड़े मुद्दे हैं। इस यात्रा को किसी एक पार्टी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। यह समाज के विभिन्न तबकों की आवश्यकताओं और अधिकारों की अभिव्यक्ति है। यह उन लोगों का असली चेहरा दिखाने का प्रयास है जो समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत कर देना चाहते हैं और जो समावेशी भारत के स्थान पर हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं।

भारत में अतीत से ही यात्राएं समावेशी मूल्यों को संरक्षण और अपने संदेश के व्यापक प्रसार का माध्यम रही हैं। आज, जब वैचारिक प्रचार-प्रसार और राजनैतिक मूल्यों से संबंधित पूरे तंत्र पर एक पश्यगामी राजनैतिक गठबंधन का नियंत्रण है तब न्याय के लिए यात्रा ताजा हवा के एक झोंके जैसी है। ऐसा लगता है कि कोई एक बार फिर भारतीय राष्ट्रवाद की लौ प्रज्जवलित करना चाहता है।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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