Tuesday, April 23, 2024

भोपालियों के बहाने: अविवेकी फतवे से विवेक न खोयें प्लीज

एक स्टुपिड, मीडियोकर, उथला व्यक्ति भोपाल के बारे में कोई भी झाड़ूमार बयान झाड़ दे यह बेहूदगी है, यह उसका अज्ञान और मूर्खों की संगत से हासिल बड़े वाला ओवरकॉन्फीडेंस है। विवेक रंजन अग्निहोत्री का भोपाल के बारे में बोला गया कथन कि “भोपाल समलैंगिकों का शहर है” सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए दिया गया बयान है। मगर उसे लेकर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह भी कम नहीं हैं। वे ठीक वैसी ही हैं जैसे “उसने मेरी थाली में टिंडे खाये तो हम उसकी थाली में गोबर खाएंगे।”  या जैसे “कुछ कर नहीं सकते तो चूड़ियाँ पहन लो” बोला जाता है। 

प्रेम और यौनिकता, लव और सेक्सुअलिटी मानवीय अनुभूति और जैविक स्वाभाविकता का मामला है। यह चुना नहीं जाता- यह होता है। प्रेम की अभिव्यक्ति के तरीके, लगाव के रूप-स्वरूप को गाली की तरह इस्तेमाल करना ठीक वही काम करना है जो विवेकहीन विवेक ने अपनी #रंजन_भोपाल_फाइल्स में किया है। इस भाड़े के भांड़ की आलोचना की जानी चाहिए, मगर व्यक्तियों के निजी स्वभावों,   प्राथमिकताओं को लांछित करके उसी की सड़ांध मारती मानसिकता को प्रतिविम्बित करते हुए नहीं,समलैंगिकता को गाली मानकर नहीं। – मनुष्य बनकर !! 

भारत की पहली महिला हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीशा लीला सेठ ने कहा था कि “जीवन को जो सार्थक बनाता है वह प्यार है। जो अधिकार हमें मनुष्य बनाता है वह प्यार करने का अधिकार है। इस अधिकार को आपराधिक – क्रिमिनल – बनाना घोर क्रूर और अमानवीय है।” जस्टिस लीला जी अंग्रेजी के सिद्धहस्त लेखक, उपन्यासकार विक्रम सेठ की माँ हैं। अविवेकी विवेक अग्निहोत्री प्रेम, लगाव और उससे बने रिश्तों को हीनता और धिक्कार के रूप में दागते हैं और उनकी इस फूहड़ अतिरंजना के प्रत्युत्तर में जो कहा जाता है उसका भाव भी कमोबेश लज्जा और ग्लानि, तिरस्कार और नकार का होता है।

भारत में  सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने 6 सितम्बर 2018  को इस मामले पर सारी अविवेकपूर्ण समझदारियों और धारणाओं को साफ़ करते हुए इस पूरी बहस को विराम दे दिया है। इस पीठ ने प्रेम अधिकारों के प्रति असंवेदनशील मानसिकता पर प्रहार करते हुए, दमन के औजार धारा 377 को खत्म किया और ऐसा करके उसने  “दो वयस्कों के बीच सहमति के साथ स्थापित यौन संबंधों” को न सिर्फ स्वीकार्य और उचित ठहराया था बल्कि कई गलत मान्यताओं और समझदारियों को दुरुस्त भी किया था। पाँचों जजों के फैसले, खासकर जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस श्रीमती इंदु मल्होत्रा के निर्णय पढ़े जाने योग्य हैं।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि “समलैंगिगता कोई मानसिक विकार नहीं है।”  और यह भी कि “”यौन प्राथमिकता जैविक (बायोलॉजिकल) तथा प्राकृतिक है। इसमें किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन होगा।”  उन्होंने कहा, “अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है। दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध पर भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी)  की धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार, यानी अनुच्छेद 14 का हनन करती है।”

जस्टिस इन्दु मल्होत्रा ने अपने फैसले में लिखा कि “यौनिक रुझान किसी भी व्यक्ति के सहज, स्वाभाविक, लाक्षणिक विशेषता होते हैं, इन्हें बदला नहीं जा सकता।  यौनिक झुकाव पसंद का मामला नहीं है, यह किशोरावस्था से ही दिखने लगते हैं।  समलैंगिकता मानवीय यौनिकता – सेक्सुअलिटी – का प्राकृतिक रूप  (नेचुरल वैरिएंट) है। उन्होंने कहा, अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है। दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध पर आईपीसी की धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार, यानी अनुच्छेद 14 का हनन करती है। ”  इसी बात को आगे बढ़ाते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यौन प्राथमिकताओं को 377 के जरिए निशाना बनाया गया है और  एलजीबीटी (LGBT लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार है।”

सभी जजों ने सरकार को फटकारते हुए पूछा कि “लोगों के निजी जीवन में टाँग अड़ाने वाली वह कौन होती है। ” और निर्देश दिया कि “एलजीबीटी  समुदाय को बिना किसी कलंक के तौर पर देखना चाहिए। सरकार को इसके लिए प्रचार करना चाहिए। अफसरों को सेंसिटाइज करना चाहिये। “

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “एलजीबीटी समुदाय के लोगों और उनके परिवारों से सदियों से चले आ रहे कलंक और समाज से बहिष्करण के बर्ताव और उन्हें इन्साफ में इतनी ज्यादा देर के लिए इतिहास को उनसे माफी मांगनी चाहिए।” जस्टिस मिश्रा ने कहा कि “(भारत का) संविधान भारतीय समाज को रूपांतरित करने, अच्छा बनाने, की शपथ लेता है, वादा करता है।  संवैधानिक अदालतों का दायित्व है कि वे संविधान के विकास मान स्वभाव को महसूस करें और उसे उस दिशा में ले जाएँ।”  संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे।

कुल मिलाकर यह कि जानबूझकर ऊबड़-खाबड़ बनाई जा रही पिच पर नो बॉल को हिट करने की विवेकहीनता में अपने विवेक का विकेट गिराने की क्या जरूरत है ? आलोचना, निंदा, भर्त्सना सब होना चाहिए  किन्तु उसी के रूपक को प्रामाणिकता देते हुए नहीं।

जिन सुधी जनों/जनियों को यह बात अभी भी समझ में नहीं आयी है उन्हें – और उन्मादी फिल्म बनाकर नफरतियों के टेसू बने विवेक रंजन अग्निहोत्री को भी –  सलाह है कि वे पहली फुरसत में ताजी फिल्म “बधाई दो” अवश्य देखें। समलैंगिकता के विषय पर यह अनूठी फिल्म है जो मुद्दे को सींग से पकड़ती है। यह नंदिता दास-शबाना की फिल्म फायर से आगे की ज्यादा खरी बात करती है और मनोज वाजपेयी की अलीगढ़ की तरह ग्रे नहीं है, अपनी सहज कॉमेडी से गुदगुदाती भी है।   

‘बधाई दो’ हर्षवर्धन कुलकर्णी द्वारा निर्देशित और उनके तथा सुमन अधिकारी एवं अक्षत घिल्डियाल द्वारा लिखी गयी एक निहायत सुन्दर फिल्म है। विनीत जैन इसके निर्माता हैं और राजकुमार राव तथा भूमि पेंढणेकर ने मुख्य भूमिकाओं में कमाल सहज अभिनय किया है। नवोदित अभिनेत्री चुम दारांग (Chum Darang) और गुलशन देवैया (Gulshan Devaiah) का अभिनय भी शानदार है – मगर अभिनय के श्रेष्ठतम की मिसाल हैं शीबा चड्ढा जी !!

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा को संयुक्त सचिव हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles