आगे बढ़कर बचा लेना होगा लोकतंत्र को भी, उम्मीद को भी

माननीय सुप्रीम कोर्ट ‎में भारत सरकार की तरफ से कहा गया है कि चुनाव संपन्न होने तक आयकर विभाग (IT) कांग्रेस की फाइल पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं करेगा। भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जस्टिस बीवी नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ के समक्ष केंद्र सरकार की ओर से यह वचन दिया।

बहरहाल, इससे कुछ बातें साफ-साफ समझी जा सकती हैं। हालांकि, यह बात पहले से ही पूरी स्पष्टता से लोगों को पता है। खैर, पहली बात तो यह कि आयकर विभाग (IT) कब कार्रवाई न करे यह भारत सरकार तय कर सकती है। इसका सीधा मतलब यह है कि आयकर विभाग (IT) कब कार्रवाई करे यह भी भारत सरकार तय कर सकती है। क्या कार्रवाई करे शायद यह भी भारत सरकार तय करती होगी! क्या जो बात आयकर विभाग (IT) पर लागू है, वह क्या प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) पर भी लागू नहीं होती है! बहरहाल, भारत सरकार ने माना है कि चुनाव के समय में राजनीतिक दल पर आयकर विभाग (IT) की कार्रवाई से चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ बनने या होने में बाधा पहुंचती है।

जो बात माननीय सुप्रीम कोर्ट के इशारे पर भारत सरकार की समझ में ‘आसानी’ से आ गई, वह बात केंद्रीय चुनाव आयोग को सूझ और समझ में क्यों नहीं आ सकी! चुनाव आयोग की तरफ से ऐसी पहल होती तो चुनाव आयोग की विश्वसनीयता, निष्पक्षता और निरपेक्षता पर निश्चित रूप से वृद्धि होती। क्या चुनाव आयोग के पास ऐसे अधिकार नहीं हैं? हैं तो पर कई बार किसी और का विश्वास हासिल करने के लिए अपनी वास्तविक और अपेक्षित विश्वसनीयता को जोखिम में डालने की प्रवृत्ति काम कर जाती है।

जीवन के सभी शक्ति प्रसंगों में विवेकाधिकार (Discretionary) का बड़ा महत्व होता है। विवेकाधिकार (Discretionary) के असंतुलन से विषमतामूलक (Discrimination) व्यवहार का जन्म होता है। विवेकाधिकार के इस्तेमाल से जानबूझकर नकारात्मक भेद-भाव को बढ़ाना या उसे रोकने के ‎दायित्व ‎प्रति उदासीन बने रहना विश्वास के उल्लंघन ‎‎(Breach of Trust) के किसी-न-किसी ‎तत्व के अनिवार्य रूप से चरित्र में शामिल और सक्रिय रहने को परिलक्षित करता है। सारा पेच ‎‎‎‘जानबूझकर’ में होता है। किसी काम को जानबूझकर किया गया साबित करना बहुत मुश्किल होता है।

माननीय सुप्रीम कोर्ट की पहल से चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ के अभाव की कुछ-न-कुछ क्षतिपूर्ति जरूर हुई है। कहना न होगा कि सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन में सीधा संबंध होता है। संसाधनिक संतुलन में गड़बड़ी का असर सामाजिक समरसता पर जरूर पड़ता है, कभी दिखता है, कभी नहीं भी दिखता है, कभी तुरंत तो कभी देर से भी पड़ता है, लेकिन पड़ता जरूर है। फिलहाल राहुल गांधी या विपक्षी गठबंधन की ‘मैच फिक्सिंग’ की शिकायत पर इस ‘अचंभित करनेवाली सुखद कार्रवाई’ और भारत सरकार की ‘छूट’ मिलने से कुछ-न-कुछ संतोष तो किया ही जा सकता है।

संविधान के कई आधारभूत और मौलिक प्रसंगों के प्रति असहमति की तरफ सत्ताधारी दल का इरादा लगातार ‎बढ़ रहा है। आम लोगों के मन में भारत के लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप के अक्षुण्ण बने रहने क्रिया प्रति गहरी आशंकाएं उत्पन्न हो रही हैं। राजनीतिक और सामाजिक वातावरण उतप्त हो रहा है। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न होने की चुनौतियां भी कोई कम नहीं है। ऐसे में स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाने के लिए बार-बार सजग और सकारात्मक हस्तक्षेप की जरूरत होगी। हालांकि, अधिकार-संपन्न केंद्रीय चुनाव आयोग स्थिति की गंभीरता के अनुसार क्या और क्या-क्या कार्रवाई करता है, यह तो अभी देखने की बात है।

केंद्रीय चुनाव आयोग सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं की जवाबदेही, कम-से-कम चुनाव के समय, भारत सरकार के प्रति न होकर भारत के संविधान और लोकतंत्र के प्रति होनी और दिखनी चाहिए। क्या ऐसा हो पायेगा! उम्मीद की जानी चाहिए कि हां, हो पायेगा! यह उम्मीद किसी शुभाकांक्षा पर नहीं टिकी है। हमारे पुरखों ने संविधान में जांच और संतुलन (Check and Balance)‎ की जो व्यवस्था कर रखी है, वह व्यवस्था अभी काम नहीं आयेगी तो कब काम आयेगी भला! याद ही होगा, किस तरह से चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में चुनाव अधिकारी ने साफ-‎साफ दिखने वाले बल गैंग से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को मेयर पद के ‎लिए ‘चुना गया’ घोषित कर दिया था। जांच और संतुलन (Check and ‎Balance)‎ की व्यवस्था ही काम आई और‎ माननीय सुप्रीम कोर्ट के सकारात्मक हस्तक्षेप से ‎स्थिति में सुधार हुआ।

अभी ईवीएम (EVM), मतदान, मतपर्चियों की गणना पद्धति एवं चुनाव प्रक्रिया आदि के मसले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट की सकारात्मक नजर बनी हुई है। जवाबतलबी हो रही है। आम नागरिकों और मतदाताओं के सिकुड़ते मन में घायल भरोसे की मरहमपट्टी हो रही है। भारत में लोकतंत्र के सक्रिय रहने का आधारभूत और जीवंत भरोसा संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं वर्चस्वशालियों के दबाव से मुक्त व्यवहार से उत्पन्न होता है। संवैधानिक संस्थाओं में नागरिक, देश, संविधान और लोकतंत्र के प्रति जवाबदेही में जिस प्रकार की शिथिलता जब-तब दिख जाती है, वह भयावह है।

हाल के दिनों में, नौकरशाही जिस तेजी से कार्यकर्ता, साफ-साफ कहा जाये तो सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता, में बदलकर कर्तव्य विमुख हो गई है, वह बहुत हताश करनेवाला है। हर वह व्यक्ति जिसका होना कोई अर्थ रखता है, किसी-न-किसी का ‘आदमी’ हो गया लगता है। अफसोस यह कि जो किसी का ‘आदमी’ हो जाता है, वह फिर आदमी नहीं रह जाता है! पचकेजिया मोटरी-गठरी के लिए मोहताज बहुत बड़ी आबादी पर होनेवाली क्रूरताओं का एक बड़ा और आक्रामक कारण नौकरशाही की कर्तव्य विमुखता भी अवश्य है।

जी हां, कानून का राज है। कानून तक पहुंच आसान नहीं है। पचकेजिया आबादी की बात तो रहने दीजिए, रोजगारविहीन समय में दस-बीस हजार की ‘शानदार नौकरी’ करनेवालों में भी न्याय का ग्राहक बनने की औकात नहीं होती है। वर्चस्वशाली लोगों से मिलते-जुलते रहने और न्याय पुरुषों की कृपा जिंदा रहने की शर्त बनकर रह गई है। जैसी भी है जिंदगी इसे और बदतर होने से बचा लिया जाना जरा-सा भी संभव हुआ तो बेहतरी की उम्मीद में पंख लग जरूर लग जायेंगे! गड़बड़ी जड़ में है, नौकरशाही की विवेकहीन कर्तव्य विमुखता और संवैधानिक संस्थाओं की शिथिलता।

पीड़ाओं से परेशान लोगों की जैसी भी है जिंदगी, राहत माननीय सुप्रीम कोर्ट, आसरा संविधान और शक्ति लोकतंत्र है। असंख्य लोगों की अनगिनत कुर्बानियों से भारत आजाद हुआ। दुखद है कि भारत के लोकतंत्र पर धन-गुलामों का वर्चस्व बढ़ता चला गया और ‘विरासत के दावेदार’, अंततः ‘सत्ता के दावेदार’ बनकर देखते ही रह गये! लोकतंत्र के रहते हुए भी पीड़ाओं से परेशान आम लोगों का दर्द अब हद छोड़, बेहद हुआ। जब लोकतंत्र न रहेगा, तब क्या होगा! उम्मीद का आसरा लोकतंत्र है, लोकतंत्र को बचाना उम्मीद को बचाना है। आगे बढ़कर बचा लेना होगा लोकतंत्र को भी, उम्मीद को भी।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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