भारतीय़ जनता पार्टी और आरएसएस का सर्वसत्तावाद सन् 2022 में अपने विराट रूप में सामने आया है। यूपी सहित चार राज्यों के चुनाव में कामयाबी हासिल करने के बाद केंद्रीय सत्ता पहले से भी ज्यादा आक्रामक नजर आ रही है। वह संविधान के बुनियादी उसूलों और संरचनाओं को योजनाबद्ध ढंग से नजरंदाज करती आ रही है। पिछले दिनों सरकार ने अपने प्रचंड बहुमत के बल पर संसद में जिस तरह के विधेयकों को पारित कराए, वह किसी लोकतंत्र के लिए बेहद नकारात्मक और निराशाजनक है। मौजूदा शासकों के भावी मंसूबों और शासन के बदलते स्वरूप और सोच के ये कुछ ठोस संकेत हैं। इन संकेतों से राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य, खासकर विपक्षी खेमे में निराशा का होना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय स्तर पर आज विकल्पहीनता नजर आ रही है।
सबसे ज्यादा निराश किया है-उन मध्यमार्गी क्षेत्रीय दलों ने जो एक समय ‘तीसरा मोर्चा’ के सबसे मजबूत घटक बन कर उभरे थे। उनकी अहम् भूमिका राज्यों से केंद्र तक नजर आती थी। ऐसे क्षेत्रीय दलों का गठन कुछ दशक पहले शोषण-उत्पीड़न की संस्कृति से लड़ने के मकसद से हुआ था। इनमें कुछ ने अपने को समाजवादी कहा तो कुछ ने सामाजिक न्यायवादी! एक दौर में जनता दल या संयुक्त मोर्चा जैसी राजनीतिक संरचनाओं की बुनियाद इन्हीं दलों या संगठनों की पहल पर हुई थी। अपने को बहुजनवादी बताने वाले भी आज पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके हैं। इनमें किसी के पास अब वैकल्पिक-राजनीति का कोई खाका नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि भारत के राजनीतिक मानचित्र पर वैकल्पिक राजनीति का कोई मॉडल ही नहीं बचा है। आज भी अपने यहां विभिन्न राजनीतिक धाराओं और दलों में वैकल्पिक राजनीति का स्वीकार्य मॉडल विकसित करने की क्षमता और दक्षता बाकी है, बशर्ते वे निराशा के गर्त में डूबने से अपने को बचाएं और बेरोजगारी, महंगाई, निरंकुशता और प्रतिशोध भरे नफरती विभाजन की राजनीति के खिलाफ लोगों को गोलबंद करने में जुटें!
राजनीतिक धारा के स्तर पर इसमें कांग्रेस जैसे ढुलमुल मध्यमार्गी, द्रमुक जैसे धुर क्षेत्रीयतावादी और कुछ सामाजिक न्यायवादी तथा वामपंथी संगठन शामिल हैं। वामपंथी आज राष्ट्रीय राजनीति में भले ही पहले की तरह कोई बड़ी राजनीतिक पहल करने की क्षमता नहीं रखते पर केरल की वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकार के जरिये वे केंद्र की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार अपना नीतिगत विकल्प पेश करते आ रहे हैं। केरल की वाम मोर्चा सरकार की अगुवाई करने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) ने हाल ही में संपन्न हुए अपने 23वें पार्टी अधिवेशन में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए व्यापक मोर्चेबंदी का आह्नान किया। सिर्फ शब्दों में ही नहीं, पार्टी के अधिवेशन के मंच से भी इसका संकेत मिला। अधिवेशन के दौरान आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में अगर देश के प्रमुख वापमंथी संगठनों ने भाग लिया तो इसके मंच पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एम के स्टालिन भी विराजमान थे।
यही नहीं, कांग्रेस के कई प्रगतिशाल और समावेशी रूझान के नेता भी आमंत्रित थे। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री और केरल कांग्रेस के दिग्गज के वी थामस प्रमुख हैं। एम के स्टालिन की तरह के वी थामस ने भी माना कि केंद्र की भाजपा-आरएसएस सरकार देश के संविधान, खासतौर पर देश के फेडरल सिस्टम को बर्बाद करने पर आमादा है। इसे बचाने के लिए सबको एकजुट होना होगा। इन दोनों नेताओं ने फेडरल सिस्टम को बचाने के लिए केरल के मुख्यमंत्री और वरिष्ठ मार्क्सवादी नेता पी विजयन द्वारा उठाये कदमों का भरपूर स्वागत किया। अधिवेशन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(माले-लिबरेशन) के प्रतिनिधि भी शामिल हुए।
राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में व्याप्त निराशा को ऐसे ही संगठनों की मोर्चेबंदी क्रमशः कम कर सकती है और जन-संघर्षों के जरिय़े अपनी मोर्चेबंदी को मजबूत करके निराशा को आशा में तब्दील करने की संभावना पैदा कर सकती है। मौजूदा निराशा को खत्म करने या उससे लड़ने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। सरकार चाहे जितनी भी ताकतवर हो, वह न तो समर्थ प्रशासन दे पा रही है और न लोगों के लिए सुखद माहौल मुहैय्या करा पा रही है। लोगों का बड़ा हिस्सा बेहाल है। उन्हें ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का झुनझुना बजाने को दिया जा रहा है पर वे रोजगार और खुशहाली के बगैर कब तक उस झुनझुने को बजायेंगे! हिन्दुत्ववाद की राजनीति ने अगर मौजूदा सत्ताधारियों का सामाजिक और राजनीतिक आधार बढ़ाया है तो उनके अतिशय कारपोरेटवाद और अंधाधुंध निजीकरण की नीतियां अब जनता के बीच गहरी निराशा भी पैदा कर रही हैं।
सत्ता-संरचना के इस अंतर्विरोध को सिर्फ एक मजबूत राजनीतिक मोर्चेबंदी से ही संबोधित किया जा सकता है। इस तरह की संभावित मोर्चेबंदी में आज एम के स्टालिन और पी विजयन, दो बड़े स्तम्भ नजर आ रहे हैं। दुर्भाग्यवश, उत्तर की राजनीति में ऐसे नेताओं और राजनीतिक समूहों का इस वक्त सख्त अभाव है। ले-देकर कांग्रेस एक-मात्र ऐसी राजनीतिक शक्ति है, जो सामाजिक-राजनीतिक आधार के स्तर पर भले ही काफी कमजोर हो चुकी है पर उसमें भाजपा के सर्वसत्तावाद से जूझने की वैचारिकता बची हुई है। राहुल गांधी के तेवर इसका ठोस संकेत हैं।
एम के स्टालिन, पिनरई विजयन और राहुल गांधी, साझा तौर पर अगर नयी मोर्चेबंदी के इंजन बनते हैं तो महाराष्ट्र से शरद पवार, झारखंड से हेमंत सोरेन, बंगाल से ममता बनर्जी, बिहार से तेजस्वी यादव, तेलंगाना से के.चंद्रशेखर राव और जम्मू कश्मीर से उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता भी इस मोर्चेबंदी को ताकत देने आगे आ सकते हैं। परिस्थितियां ऐसी हैं कि उनके पास अलग-थलग रहने का विकल्प नहीं होगा। निरंकुश सर्वसत्तावाद के दौर में अगर विपक्ष की राजनीति में जो भी थोड़ी-बहुत संभावना है, वह इन्हीं या इनकी तरह के दलों-समूहों में ही बची है। क्षेत्रीय राजनीति करने वाले दर्जन भर से ज्यादा राजनीतिक दल और उनके नेता संघ-भाजपा की मौजूदा आक्रामक सर्वसत्तावादी राजनीति का मुकाबला करने या किसी तरह का सार्थक विकल्प देने में अब पूरी तरह अक्षम हैं।
ओडिशा में नवीन पटनायक की अगुवाई वाला बीजेडी, आंध्र में जगन रेड्डी की अगुवाई वाली वाईएस कांग्रेस, यूपी में मायावती की अगुवाई वाली बीएसपी या अखिलेश यादव की अगुवाई वाली सपा, ऐसे सभी प्रमुख क्षेत्रीय दल चुनावी-मामले में चाहे जैसा प्रदर्शन करें पर वे भाजपा-संघ की राजनीति से ‘वैकल्पिक और वैचारिक मुठभेड़’ नहीं कर सकते। इन सबके अपने-अपने निजी और राजनीतिक कारण हैं। राहुल गांधी ने पिछले दिनों बसपा सुप्रीमो मायावती के बारे में जो टिप्पणियां कीं, सच्चाई उससे कहीं ज्यादा विकट और विराट है। अखिलेश यादव की पार्टी के पास न तो विचार है और न संगठन है। सिर्फ भीड़ से राजनीतिक लड़ाई लड़ने और जीतने का दौर अब खत्म हो चुका है। तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस और राष्ट्रीय जनता दल में संघर्ष की संभावना अब भी है पर इनके नेताओं की ‘निजी मुश्किलें’ वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष के इनके दायरे को सीमित करती हैं।
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)