अब जब सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य हाई कोर्ट में इस आपदा पर हंगामा मचा तो अदालत में सरकार ने कहा कि उसे दूसरी लहर की भयावहता का अंदाज़ा नहीं था। पर द प्रिंट ने इस पर एक विस्तार से लेख लिख कर बताया है कि वैज्ञानिकों ने सरकार को यह बात बता दिया था कि कोविड की एक दूसरी लहर ‘दस्तक’ दे सकती है, जिसके मध्य मई के आसपास पीक पर पहुंचने की संभावना है। निश्चित ही सरकार ने या तो विशेषज्ञों की राय की अवहेलना की या उसने पहली लहर की समाप्ति को ही कोरोना का अंत समझ लिया।
जब कोरोना का प्रकोप शुरू ही हुआ था, तो सरकार ने नीति आयोग के सदस्य डॉ. पॉल के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स गठित की गई थी, जिसमें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया सहित अन्य विशेषज्ञ भी थे। इस टास्क फोर्स का यह दायित्व था और है कि वह इस वायरस के प्रिवेंटिव और उससे संक्रमित हो जाने पर इलाज की व्यवस्था की मॉनिटरिंग करे। इस टास्क फोर्स ने कोरोना की दूसरी लहर के संबंध में सरकार को कितना आगाह किया, यह तो नहीं पता, पर सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यही कहा गया कि उसे दूसरी लहर की विभीषिका का अंदाज़ा नहीं था।
प्रिंट के लेख से यह स्पष्ट है कि नेशनल कोविड-19 सुपरमॉडल कमेटी के प्रमुख और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) हैदराबाद के प्रोफेसर एम विद्यासागर ने पैनल की तरफ से, मार्च के पहले सप्ताह में ही कोरोना की दूसरी लहर के बारे में अपने निष्कर्ष अनौपचारिक रूप से देने शुरू कर दिए थे और एक विस्तृत औपचारिक इनपुट, 2 अप्रैल को सरकार को दिया था, जिसमें दूसरी लहर की विभीषिका का उल्लेख किया गया था। द प्रिंट को ही दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, “हमने उजागर कर दिया था कि एक दूसरी लहर जारी है और उसके मध्य मई के आसपास पीक पर पहुंचने की संभावना है। हमने इस पर रोशनी डाली थी कि हम पीक की वैल्यूज़ के बजाय उसकी तारीखों को लेकर कहीं ज़्यादा निश्चित थे।”
इसका अर्थ यह हुआ कि पैनल को कोरोना के दूसरी लहर के पीक पर पहुंचने का अनुमान तो था और पीक की तारीख मई के मध्य की उसने बताई है।
आज जब दूसरी लहर से हम रूबरू हैं, देश एक नाजुक स्थिति से गुजर रहा है और तेज़ी से बढ़ते मामलों का बोझ तो है ही, दवा, अस्पताल और ऑक्सीजन के अभाव में सैकड़ों लोग अपनी जानें भी गंवा रहे हैं। 2 मई के आंकड़ों के अनुसार, 3,92,488 नए मामले सामने आए हैं। हालांकि यह संख्या पहली मई की संक्रमण संख्या 4,01,993 से 9,500 कम है, लेकिन फिर भी यह स्थिति चिंताजनक है। यह गिरावट के दौर की शुरुआत है या पीक पर पहुंचने के पहले का उतार चढ़ाव, यह जब एक सप्ताह तक के आंकड़े सामने आएं तो पता चले।
अप्रैल महीने में हर दिन के संक्रमितों में उससे पिछले दिन की तुलना में वृद्धि होती रही है। केवल रविवार के आंकड़े कम होते रहे हैं, जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि रविवार को टेस्ट की संख्या कम हो जाती है। अप्रैल की शुरुआत में, संक्रमण की संख्या प्रतिदिन एक लाख तक की होती थी, पर अब यह लगभग चार लाख तक स्पर्श कर गई है।
मृत्यु के आंकड़ो में विवाद है। सरकार जो आंकड़े जारी कर रही है, वे आंकड़े, श्मशान और कब्रिस्तान में लगी लाइनों को देखते हुए संदेहास्पद लग रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 28 अप्रैल 2021 तक कुल 2,04,812 संक्रमितों की मृत्यु हो चुकी है। जबकि असल संख्या इससे दस गुनी यानी 20 लाख के आसपास हो सकती है। कोरोना की पहले लहर में भी सरकारी आंकड़ों और वास्तविक आंकड़ों में अंतर था। ऐसी मृत्यु के बारे में सरकारी आंकड़े शुरू से ही संदेहास्पद रहे हैं। पिछले एक माह से देश में लगभग हर जगह, दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ कर, अस्पतालों में दवा, ऑक्सीजन और जगह की कमी से लोग जूझ रहे हैं। संक्रमण के मामलों में वृद्धि इतनी तेज़ी से हुई है कि अस्पताल और चिकित्सा केंद्र अस्तव्यस्त हो चुके हैं। वे यह सुनिश्चित करने में जूझ रहे हैं कि हर मरीज़ को ऑक्सीजन और दवाओं जैसी ज़रूरी सुविधाएं कैसे दी जाएं।
तीन सदस्यीय नेशनल कोविड-19 सुपर मॉडल कमेटी का काम महामारी के स्थानिक और सामयिक फैलाव के बारे में अनुमान लगाना है। हैदराबाद आईआईटी के प्रोफेसर एम विद्यासागर के अलावा, इस पैनल में आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मनींद्र अग्रवाल और सैन्य चिकित्सा सेवाओं की उप-प्रमुख ले. जनरल माधुरी कनिटकर भी शामिल हैं। यह कमेटी समय-समय पर औपचारिक और अनौपचारिक रूप से सरकार को इस बीमारी की विभीषिका के बारे में सूचना देती रहती है। अब यह सरकार का काम है कि वह कैसे इस खतरे से निपटने के लिये काम करती है।
प्रो. एम विद्यासागर के अनुसार, वे सरकार को इस बीमारी के फैलाव और इसके असर के बारे में, अपने अध्ययन के आधार पर वस्तुस्थिति से अवगत करा सकते हैं, पर वे सरकार को कोई विशेष नीतिगत सुझाव नहीं दे सकते हैं। यह पैनल के कार्यक्षेत्र में नहीं आता है। वे कहते हैं, “जब हमने अपनी रिपोर्ट बनाई, तो हम सुझाव देना चाहते थे कि बुनियादी ज़ोर त्वरित प्रतिक्रिया पर दिया जाना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा कि दूसरी लहर उससे कहीं ज़्यादा बड़ी रही है, जितनी हमने अपेक्षा की थी। पीक वैल्यूज़ बहुत ज़्यादा हैं।
पैनल के मौजूदा अनुमानों के मुताबिक, दैनिक मामलों के सात दिन के औसत के अगले हफ्ते के शुरू में लगभग चार लाख के पीक पर पहुंचने की संभावना है, जिसमें 20,000 मामले कम या ज़्यादा हो सकते हैं। पैनल के अनुसार, “हम सीधे तौर पर मौतों का अनुमान नहीं लगाते, लेकिन मौजूदा स्तर पर रोज़ाना मौतों की संख्या 4,000 के करीब होगी। गौरतलब है कि दूसरी लहर में केस मृत्यु अनुपात, पहली लहर की अपेक्षा कम हैं। दूसरे देशों में भी यही स्थिति देखी जा रही है।”
पैनल के एक सदस्य प्रोफेसर मनींद्र अग्रवाल ने एक ट्वीट में कहा है, “पीक वैल्यू के 3.9 लाख के आसपास रहने की संभावना है। यह 7 दिन की औसत वैल्यू है, इसलिए अधिकतम दैनिक वैल्यू 4 लाख के पार हो सकती है… जैसा कि पहले अनुमान लगाया गया था, पीक के 4-8 मई के बीच आने की संभावना है।”
3 मई को प्रेस फ्रीडम दिवस था और यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिस समाज, परम्परा, सभ्यता, संस्कृति और वांग्मय में शास्त्रार्थ की समृद्ध परंपरा हो, वहां की मीडिया ने इस घोर आपदा में भी खुद को केवल सरकार के एक प्रोपगंडा मशीनरी तक ही सीमित रखा। हमें अपने देश की जमीनी हालात की जानकारी, विदेशी अखबारों से मिल रही है। आज जब दुनिया सिमट कर मुट्ठी में आ गयी है तो, हमारा मीडिया यह सोचता है कि वह जो कह और दिखा रहा है, वही हम सुन और देख रहे हैं। अपनी साख को न्यूनतम स्तर पर ले जाने का जिम्मेदार यह मीडिया स्वयं है। किसी भी बड़े न्यूज़ चैनल ने यह तक नहीं पूछा कि इस दूसरी लहर को रोकने या इस आफत से निपटने के लिये सरकार ने क्या क्या इंतज़ाम किए हैं।
आज के न्यूयॉर्क टाइम्स से पता लगता है-
● भारत में कोविड के टास्क फ़ोर्स की महीनों बैठक नहीं हुई।
● न्यूयार्क टाइम्स ने भारत के स्वास्थ्य मंत्री का वो बयान याद दिलाया है कि भारत में महामारी ख़त्म के कगार पर पहुंच गई है। अखबार ने एंडगेम शब्द का इस्तेमाल किया है। क्या स्वास्थ्य मंत्री से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे किस वैज्ञानिक आधार पर इस बात की घोषणा कर रहे थे कि यह महामारी खत्म हो गयी है? उन्होंने 13 मार्च 2020 को भी जब यह महामारी अपनी पहली लहर में कहर बरपा रही थी तब भी कहा था कि यह मेडिकल इमरजेंसी नहीं है। वे एक चिकित्सक भी हैं। कम से कम उन्हें ऐसे मामलों में, अनाप-शनाप बोलने बचना चाहिए।
रवीश कुमार अपने एक लेख में लिखते हैं, “डॉ हर्षवर्धन ने यह मूर्खतापूर्ण बयान तब दिया था जब फ़रवरी महीने में महाराष्ट्र के अमरावती में एक दिन में एक हज़ार केस आ गए थे। अमरावती में 22 फ़रवरी से पहली मार्च तक तालाबंदी की गई थी। उसके बाद फिर से एक हफ़्ते के लिए लॉकडाउन बढ़ाया गया था। इतना काफ़ी था किसी भी सरकार को अलर्ट होने के लिए और जनता को अलर्ट करने के लिए। यही नहीं डॉ. हर्षवर्धन कोरोनिल दवा लांच कर रहे थे। आज उस दवा का नाम तक नहीं ले रहे हैं। कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है। न जाने कितने लोग ख़रीद रहे होंगे। खा रहे होंगे। अगर है तो बताइये देश को फिर टीका को लेकर इतने परेशान क्यों हैं? सबसे बड़ी विडंबना यह भी है कि 22 फ़रवरी को भाजपा प्रस्ताव पास कर कोविड से लड़ने में सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ करती है। जब महामारी दरवाज़े पर खड़ी थी हम उसके चले जाने का ढिंढोरा पीट रहे थे।”
पिछले सात सालों में सरकार ने लोकहित के न तो बड़े काम किये और न ही किसी बड़े संकट पर मजबूती के साथ खड़ी दिखी, और न ही एक नागरिक के रूप में हममें से अधिकांश लोगों ने, सरकार को लोककल्याण के मुद्दे पर केंद्रित रहने के लिये बाध्य किया। सरकार चुनाव लड़ती रही, चुनाव जीतती रही, और जहां वह नहीं जीतती थी, विधायक खरीद कर सरकार बनाती रही पर सरकार जिस काम के लिए बनायी जाती है, उससे वह दूर ही दूर बनी रही। इन सात सालों में देश के सामने जो महत्वपूर्ण संकट आये सरकार, उनका सामना करने में पूरी तरह से विफल रही।
कुछ उदाहरण दे रहा हूँ। इन्हें देखें-
● पहला संकट था, नोटबन्दी के बाद अव्यवस्था और अराजकता का वह माहौल, जिसमें 150 से अधिक लोग लाइनों में मर गए।
पर आज तक सरकार वह आंकड़ा सार्वजनिक नहीं कर पायी कि नोटबन्दी से कितना काला धन सामने आया, कितनी नकली मुद्रा पकड़ी गई, आतंकवादियों की फंडिंग्स पर कितनी रोक लगी और कैशलेस या लेसकैश की आर्थिकी में कितनी सफलता मिली।
● दूसरा बड़ा संकट, बढ़ती हुयी बेरोजगारी, शून्य तक पहुंचा हुआ, मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स, 2016-17 से लगातार गिरती हुयी जीडीपी, आरबीआई से एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये निकालना, यह सब अर्थव्यवस्था का कौन सा मॉडल था?
यह स्थिति तब की है जब कोरोना देश में आया ही नहीं था। 2020 के 31 मार्च को जीडीपी 5% तक गिर गयी थी, बेरोजगारी के आंकड़े सरकार ने देना बंद कर दिए थे, लघु, सूक्ष्म और मध्यम उद्योग बुरी तरह से प्रभावित थे, असंगठित क्षेत्र लगभग तबाह होने लगे थे, सरकार को आज तक यह समझ में नहीं आया कि वह आखिर किस आर्थिक मॉडल पर चल रही है।
● तीसरा बड़ा संकट कोरोना महामारी की पहली लहर थी और उसमें भी जबरदस्त लापरवाही बरती गयी।
30 जनवरी को केरल में पहला संक्रमित मरीज मिलता है पर 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री, यह बयान जारी करते हैं कि यह कोई हेल्थ इमरजेंसी नहीं है, और पैनिक होने की ज़रूरत नहीं है। न तो विदेशों से आवागमन रुकता है न हवाई अड्डों पर सतर्कता बरती जाती है।
24 मार्च से ताली थाली बजा कर जब मध्य प्रदेश में सरकार गिरा दी जाती है तब, देश में लॉकडाउन लगता है। और वह भी 4 घंटे की सूचना पर, फिर इसका जो व्यापक दुष्परिणाम देखने को मिलता है वह अत्यंत तकलीफदेह और सरकार के निकम्मेपन का द्योतक है।
● चौथा बड़ा संकट सामने आता है, प्रवासी कामगारों के पलायन का।
लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर पैदल, सायकिल या जो भी जिसे सांधन मिलता है, देश भर के औद्योगिक नगरों से निकल कर अपने-अपने घरों की ओर चलते जाते हैं। पर सरकार बिल्कुल किंकर्तव्यविमूढ़ बनी हुयी है। प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर न तो ट्विटर पर दिखते हैं और न ही टीवी पर और न ही मन की बात पर। बेशर्मी की हद यह है कि, सॉलिसिटर जनरल, सुप्रीम कोर्ट में कहते हैं कि, कोई भी मजदूर सड़को पर नहीं है, और, उस बेशर्म से भी बड़ी बेगैरत सुप्रीम कोर्ट उसकी बात मान भी लेती है। इस घोर संकट में लोग दिखे, सामाजिक संस्थाए दिखी पर सरकार, जिसे दिखना था,नही दिखी।
सरकार ने लॉक डाउन की अवधि का वेतन दिलाने का वादा किया था। पर जब उद्योगपति सुप्रीम कोर्ट गए और यह कहा कि वेतन देना संभव नहीं है तो, सरकार, सुप्रीम कोर्ट में उन्ही उद्योगपतियों की तरफ खड़ी नज़र आयी औऱ अपना वादा भूल गयी।
● पांचवा संकट आया है कोरोना की दूसरी लहर का।
20 लाख करोड़ के राहत पैकेज और पीएम केयर्स फ़ंड के हज़ारो करोड़ रुपए की धनराशि के बावजूद, पिछले एक साल में, न तो स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने की दिशा में कोई काम किया गया, न दवाओं का इंतज़ाम न ऑक्सीजन की व्यवस्था और आज जब देश भर में अफरातफरी मची है तो सरकार के समर्थक कह रहे हैं कि यह अप्रत्याशित है। कोरोना की दूसरी लहर का आना अप्रत्याशित नही है पर यह सरकार प्रशासनिक रूप से इतनी निकम्मी निकलेगी, यह मेरे लिये भी कभी कभी अप्रत्याशित लगता है।
● प्रशासनिक निकम्मेपन का एक और बड़ा संकट सामने आने वाला है वह है देश के कोरोना संबंधित टीकाकरण का। पहली मई से 18 साल के ऊपर के नागरिकों को टीका लगना है पर अब तक सरकार ने न तो टीके की कोई व्यवस्था की और न ही विवादरहित दाम नीति बनाई। अब तक केवल 1.3% लोगों का ही पूर्ण टीकाकरण हो चुका है, जबकि दुनिया के अन्य देशों में यह प्रतिशत बहुत अधिक है।
अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि क्या इस कुप्रबंधन के लिये राज्य सरकारों का कोई दोष नहीं है? राज्य सरकारों के काम की समीक्षा भी ज़रूरी है और उन्हें भी कुप्रबंधन के दोष से मुक्त नहीं किया जा सकता है। हर राज्य सरकार की अपनी टास्क फोर्स है और वे भी अपने साधनों से इस महामारी से जूझ रहे हैं। पर उनके संसाधन सीमित हैं, वित्तीय स्रोत कम हैं और जीएसटी के आने के बाद धन के लिये वे अधिकतर केंद्र पर ही निर्भर हैं। अब भी राज्यों का अंशदान जो जीएसटी में उन्हें मिलना चाहिए वह नहीं मिला है। साथ ही महामारी अधिनियम में अधिकांश शक्तियां केंद्रीय सरकार के पास हैं।
फिर भी कुछ राज्यों ने अपने स्तर से इस महामारी से जूझने के लिये उल्लेखनीय काम किया है। ऐसे राज्यों में केरल सबसे ऊपर है। प्रतिदिन के आंकड़े देखें, तो केरल में भी संक्रमण के मामले कम नहीं आ रहे हैं, लेकिन वहां दवा, बिस्तर या ऑक्सीजन के लिये उतनी मारामारी नहीं है, जितनी यूपी, एमपी, राजस्थान या अन्य बड़े राज्यों में है। केरल में रोगी और उसके परिजन बदहवास नहीं हैं। अफरातफरी का माहौल नहीं है।
प्रकाश के रे ने सोशल मीडिया पर इसके बारे में कुछ तथ्य दिए हैं, उसे पढ़िये-
● देश में केरल अकेला राज्य है, जहां जरूरत से ज्यादा ऑक्सीजन है और गोवा, तमिलनाडु और कर्नाटक में वहां से भेजा जा रहा है। तथ्य यह है कि राज्य में हर दिन 199 मीट्रिक टन ऑक्सीजन उत्पादित होता है। हर दिन ऑक्सीजन उत्पादन की कुल क्षमता 204 मीट्रिक टन है।
● कुछ दिन पहले के आंकड़ों के मुताबिक, गंभीर रूप से कोरोना पीड़ितों के लिए 35 मीट्रिक टन ऑक्सीजन रोज चाहिए और अन्य रोगों से बीमार लोगों को लगभग 45 मीट्रिक टन की जरूरत होती है।
● महामारी के पहले चरण के बाद ही केरल में इंटेंसिव केयर यूनिट वाले बिस्तरों की संख्या में बड़ी बढ़ोतरी कर दी गयी थी। कुछ दिन पहले की सूचना बताती है कि राज्य में उपलब्ध कुल 9735 इंटेंसिव केयर यूनिट बिस्तरों में से केवल 999 बिस्तरों पर रोगी हैं। शेष खाली हैं।
● कोरोना के पहले दौर के बाद केरल में वैंटिलेटरों की संख्या लगभग दो गुना कर दी गयी थी। अभी वहां कुल 3776 वेंटिलेटर हैं, जिनमें से केवल 277 ही उपयोग में हैं। शेष खाली हैं।
● प्रधानमंत्री से लेकर अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री कोरोना टीका मुफ्त में देने की बात कर रहे हैं, चुनावी वादे हो रहे हैं, लेकिन सिर्फ़ अकेले केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने चुनाव से पहले और बाद में यह कहा कि निःशुल्क सार्वभौमिक टीकाकरण स्वतंत्र भारत की शुरू से नीति रहा है और उनकी सरकार उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है। चुनाव के बाद भी उन्होंने अपनी बात दोहरायी है।
● कोविड के शुरुआती दिनों से ही मुख्यमंत्री रोज शाम को प्रेस के सामने आकर उस दिन की स्थिति के बारे में बताते हैं। स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा और अन्य अधिकारी भी सवाल-जवाब और जानकारी के लिए लगातार उपलब्ध रहते हैं। तब विपक्ष ने आरोप लगाया था कि यह सब चुनाव के लिए हो रहा है, लेकिन चुनाव के बाद भी यह सिलसिला जारी है।
हम सब एक ऐसे समय मे गुजर रहे हैं, जहां हर फोन काल चाहे परिचित व्यक्ति का हो, या अपरिचित व्यक्ति का, डरा जाता है। मन आशंकित कर जाता है और दिमाग में न जाने कितने खौफनाक और हौलनाक खयालों को, जन्म दे जाता है। चाहे टीवी मीडिया हो या सोशल मीडिया सब पर या तो मौत की खबरें पसरी हैं या जलती हुयी चिताओं की। यह दौर है कोरोना महामारी के दूसरी लहर का। यह दूसरी लहर भी अंतिम नहीं है, बल्कि यह कहा जा रहा है कि इसके बाद एक और लहर है। अब यह लहरों का कोई लम्बा सिलसिला है या यह खौफनाक दृश्य बस इसी लहर के बाद अपनी यह दारुण माया समेट लेगा, पता नहीं पर फिलहाल तो हम सब काल के गाल में बैठे हुए मृत्यु का यह वीभत्स और पैशाचिक नृत्य देखने के लिये अभिशप्त हैं।
मूल समस्या है कि सरकार की प्राथमिकता क्या है और उसके एजेंडे में जनस्वास्थ्य जैसी कोई चीज है भी या नहीं। जब तक जनस्वास्थ्य, जैसी मूलभूत ज़रूरत को सरकार अपनी प्राथमिकता में शामिल नहीं करती तब तक एक स्वस्थ भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। आज सरकार से पूछिए उसकी आयुष्मान भारत की योजना इस महामारी में कहां है तो शायद उसे भी यह पता न हो।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)