बेशक औरंगजेब क्रूर शासक था। सब लोग जानते हैं। उसकी क्रूरता की पहचान कोई 2014 के बाद की खोज तो है नहीं, जो इतना हल्ला मचाया जा रहा है। उसके अनैतिक कामों को समर्थन देने की इच्छा भी नहीं होगी किसी को। सदियों से लोग उसे क्रूर शासक के रूप में ही जानते रहें हैं।
इसके अलावा किसी ने न तो औरंगजेब को महान बताया और न ही किसी ने उसकी उदारता के गुण गाए लेकिन फिर भी प्रलाप? आखिर क्यों?
जाहिर है निशाना कहीं और है। मामला पूरी तरह से ध्रुवीकरण का है, जो वोट की राजनीति के लिए बहुत असरकारी हो सकता है। होता भी है।
सामान्यतः इतिहास में प्रशंसा तो अकबर की होती है, जिसको शिवाजी भी समर्थन देते हुए दिखते हैं। उन्होंने औरंगजेब को लिखे पत्र में उसे अकबर जैसा शासक बनने की सलाह देते हैं।
औरंगजेब की क्रूरता सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही थी, ऐसा कहने के अपने निहितार्थ हो सकते हैं, अपने प्रयोजन हैं।
अगर उसकी क्रूरता सिर्फ हिन्दुओं के लिए थी, तो दाराशिकोह के प्रति उसका व्यवहार क्या था? वृद्ध पिता शाहजहां के प्रति उसका व्यवहार क्या था? ये तो उसके भाई और पिता थे। शासक के रूप में शंभाजी की हत्या उसका सर्वाधिक घृणित काम था
औरंगजेब में धार्मिक कट्टरता भी थी और क्रूरता भी। पर जैसा बताया जा रहा है, वह अतिरंजनापूर्ण है। 40 मन जनेऊ रोज जलाने वाली बात अतिरंजना नहीं तो और क्या है? ध्यान रहे कि औरंगजेब लगभग 48 सालों तक सत्तासीन रहा।
अगर ऐसा होता तब तो जनेऊधारी आज होते ही नहीं, सिर्फ़ किस्सों-कहानियों में होते।
अगर ये कहा जाता है कि औरंगजेब ने हिंदू मंदिरों को ध्वस्त किया तो यह बात क्यों भुला दी जाती है कि उसने तमाम मंदिरों का निर्माण भी करवाया। चित्रकूट में बने कुछ मंदिर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। साथ ही उज्जैन, वृंदावन और कामाख्या देवी मंदिरों में उसके सहयोग का ज़िक्र है।
रही बात गिरवाने की तो एकाध जगह उसने मस्ज़िदों को भी गिरवाया है। गोलकुंडा की मस्जिद को औरंगजेब ने ही गिरवाया था।
यहां यह भी ध्यान रहे कि उसके समय में प्रशासन और सेना में हिन्दुओं का प्रतिशत सभी मुगल शासकों में सर्वाधिक रहा था।
इसे कौन नकार सकता है कि राजा जयसिंह उसके मुख्य सेनापति की भूमिका में रहे। उसकी सेना में मराठा सैनिकों का बाहुल्य था। भले ही उसने किसी नीति के तहत या फिर शासकीय व्यवस्थाओं के चलते ऐसा किया हो, पर सच तो यही है कि उसके शासन में हिन्दुओं का प्रतिशत ज्यादा रहा।
इसके अलावा तमाम मंदिरों को दिए गए दान के शिलापट इसकी गवाही देते हैं कि उसने अपनी कट्टरता के बावजूद हिंदुओं की भावनाओं को बिलकुल खारिज नहीं किया। आमतौर पर शासक का सबसे ज्यादा ध्यान अपने क्षेत्र विस्तार पर और अपने शासन के स्थायित्व पर रहता है।
इसके लिए वह अपने सजातीय लोगों तक से युद्ध करने के लिए तत्पर रहता है। यहां तय राह कोई नहीं। सब कुछ अपने हित से तय होता है। आवश्यकता पड़ने पर सजातियों से युद्ध और दूसरे धर्म के लोगों के प्रति सहयोगी भाव शासकों की नीतियों के अंग रहे हैं। राणा सांगा का बाबर को आमंत्रित करने को किस दृष्टि से देखा जाएगा।
हां तो इन सब नीतियों के (सैन्य प्रशासन में सर्वाधिक हिंदुओं को जगह देने और मंदिरों के लिए सहायता आदि) बावजूद औरंगजेब भारत के लोगों का आदर्श नहीं हो सकता। कारण बताने की आवश्यकता नहीं, सब जानते हैं। कुल मिलाकर औरंगजेब क्रूर और तंग नजरिया रखने वाला शासक था।
पर असल बात यह है कि आखिर औरंगजेब की क्रूरता ही जेरे बहस क्यों? जब कोई उसे महान नहीं बता रहा तब इन बातों का औचित्य क्या है?
अगर इसके जरिए क्रूरता एक वंश की या कौम की पहचान बनाने की कोशिश है, तो फिर तो दाग तो इधर भी हैं। इतिहास सिर्फ सद्भावनाओं की ही जमापूंजी नहीं है, वह क्रूरताओं से भी भरा हुआ होता है और यह सब हर धर्म में घटित हुआ है।
अभिमन्यु की हत्या क्या थी? कंस द्वारा अपनी बहन देवकी के पुत्रों की हत्या करना क्या था? उत्तरा के गर्भ पर बाण चलाने वाला कोई और नहीं द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ही था। क्या यह क्रूरता नहीं थी। इन पात्रों को ऐतिहासिक न भी माने तो भी ये उदाहरण इसलिए दिए हैं क्योंकि इनको ऐतिहासिक पात्रों जैसी ही अहमियत दी गई है।
ख़ैर हर्यक वंश तो पूरा का पूरा पितृहंता वंश ही कहलाता है। अशोक का गद्दी हासिल करना भी विवादरहित नहीं रहा है। मौर्य वंश के अंतिम शासक की पुष्यमित्र द्वारा हत्या क्या थी? हर्षवर्धन और शशांक के बीच युद्ध क्यों हुआ? हर्षवर्धन के भाई और बहनोई की हत्या किसने की थी? क्या मुगलों ने की थी।
कलिंग युद्ध क्या था? और भी बहुतेरे उदाहरण मिल जाएंगे। राजपूतकाल में बनवीर और पन्ना धाय का प्रसंग भी याद आ जाएगा।
सती प्रथा क्या थी? यह तो संवेदनहीन समाज का सबसे बड़ा प्रमाण था। क्या इसके लिए भी मुगल जिम्मेदार थे?
अगर पीछे मुड़कर देखना है तो समग्रता में देखिए। अन्यथा एक उंगली सामने उठाने पर शेष उंगलियां अपनी तरफ होंगी।
इसलिए अतीत के चरित्रों का मूल्यांकन तो हो, लेकिन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर। किसी के कारनामों या कृत्यों को पूरी बिरादरी के चालचलन से जोड़ देना बहुत निंदनीय है।
सुविधाजनक निष्कर्षों से राजनीतिक लाभ की इच्छा भले ही पूरी हो जाए पर यह इतिहास के साथ अन्याय है। यह दृष्टिबोध गर्हित है। राजनिवासों और नवाबों के महल खूनी खेलों और षड्यंत्रों से भरे हुए हैं। इसलिए सरलीकृत विभेदीकरण ठीक नहीं।
(संजीव शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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