Tuesday, March 19, 2024

ममता के निशाने पर मोदी के बजाय राहुल

रुख से नकाब उतरता जाए आहिस्ता आहिस्ता। कुछ ऐसा ही सियासत में भी होता है। कभी गोविंदाचार्य ने कहा था कि अटल बिहारी बाजपेई भाजपा के मुखौटा हैं। ममता बनर्जी कभी पूरे देश में भाजपा के खिलाफ एक मोर्चा बनाने का दावा करती थीं। इन दिनों वे मोदी के मुकाबले राहुल और भाजपा के मुकाबले कांग्रेस पर पुरजोर हमला करने लगी हैं। तो क्या नकाब उतरने लगा है?

इसकी वजह तलाशने के लिए सियासत की कई परतों को खोलना जरूरी है। पर इस तरफ बढ़ने से पहले आइए थोड़ा पीछे की तरफ लौट चलते हैं। अभी भी दिल्ली की फिजा में ममता बनर्जी के उन शब्दों की खनक सुनाई पड़ती है जो उन्होंने 20 अगस्त को सोनिया गांधी की बैठक से निकलने के बाद कहा था। सोनिया गांधी ने भाजपा की सांप्रदायिकता और विभाजन की नीति से लड़ने के लिए 20 अगस्त को सभी विरोधी दलों की बैठक बुलाई थी। इसमें 18 विरोधी दलों ने हिस्सा लिया था। ममता बनर्जी भी शामिल हुई थीं। उन्होंने नसीहत दी थी कि इस मोर्चे में वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम आदि को भी शामिल किया जाए। उन्होंने कहा था सभी को एकजुट होना पड़ेगा।

इसके बाद का घटनाक्रम काफी हद तक फिल्मों की तरह है। जैसे तीन घंटे की फिल्म में आप देखते हैं कि इंटरवल के बाद सब कुछ बदल जाता है। अब तक जो देखा था वह गलत था और अब जो देख रहे हैं वही सच है। तृणमूल कांग्रेस का मुखपत्र जागो बांग्ला अचानक सितंबर में एलान कर देता है कि ममता बनर्जी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एकमात्र विकल्प हैं। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ही पूरे देश में भाजपा को पराजित करेगी। बात यहीं नहीं थमती है।

राहुल गांधी पर तीखा हमला करते हुए कहती हैं कि वे 2014 और 2019 में फेल हो चुके हैं। जागो बांग्ला की संपादकीय में लिखा जाता है कि कांग्रेस एक सड़ा हुआ तालाब है और कांग्रेस अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। तृणमूल कांग्रेस एक समुद्र है और असली कांग्रेसियों से तृणमूल में शामिल होने की अपील की जाती है। ममता बनर्जी कहती हैं कि वह एक जमाने से राहुल गांधी को जानती हैं और बेहद मजबूरी में कहना पड़ता है कि वह मोदी का विकल्प नहीं बन पाए हैं।

तो आइए ममता बनर्जी का मोदी का विकल्प बनने के दावे को तर्क की कसौटी पर कसते हैं। इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित विनय सीतापति की एक पुस्तक जुगलबंदी की कुछ लाइनों का जिक्र करता हूं। मुंबई के महालक्ष्मी रेसकोर्स में 1995 में 19 नवंबर को भाजपा का एक सम्मेलन हो रहा था। प्रधानमंत्री के पद के दावेदार के नाम की घोषणा की जानी थी। सभी को उम्मीद थी कि लालकृष्ण आडवाणी के नाम की घोषणा की जाएगी पर आडवाणी जी ने अटल बिहारी वाजपेई के नाम का ऐलान कर के सभी को चौंका दिया। उनकी दलील थी कि वाजपेई अपनी लोकप्रियता के कारण गठबंधन के सभी दलों को पसंद थे। तृणमूल कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल थी।

अब आइए लोकप्रियता और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान के तराजू पर ममता बनर्जी और राहुल गांधी को तौलते हैं। इसका आकलन करने के लिए सियासत का पंडित होना कोई जरूरी नहीं है। एक सीधा सा सवाल है। मान लीजिए कि उत्तर भारत के किसी राज्य के किसी शहर में दो जनसभाओं का आयोजन किया जाए जिसमें एक में प्रमुख वक्ता राहुल गांधी हों और दूसरी में ममता बनर्जी हों तो किस की सभा में ज्यादा भीड़ होगी।

जाहिर है कि जवाब राहुल गांधी होगा। यानी चुनाव जीतने की कुछ शर्तों में से एक शर्त यह भी है कि चेहरा ऐसा हो जिसके अंदर भीड़ खींचने की क्षमता हो। उत्तर प्रदेश के किसी दूरदराज गांव में ममता बनर्जी को कौन पहचानता है। इसके अलावा चुनाव जीतने के लिए चेहरे के साथ ही संगठन का होना भी जरूरी है। अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उनमें कहां और कितना है तृणमूल कांग्रेस का संगठन। अभी इसके आगे तो और भी राज्य हैं। इसके अलावा सिर्फ सूरत के बल पर ही चुनाव नहीं लड़े जाते हैं। ममता बनर्जी की लोकप्रियता और पहचान जयप्रकाश नारायण से ज्यादा तो नहीं ही है।

1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर भारत और मध्य भारत से साफ हो गई थी, लेकिन दक्षिण भारत में बनी रही थी। इसकी वजह यह थी कि जयप्रकाश जी के साथ जो दल जुड़े थे उनमें से किसी का भी दक्षिण भारत में कोई खास संगठन नहीं था। एक और मिसाल देते हैं। हाल ही में लखीमपुर खीरी की घटना में तृणमूल कांग्रेस के पांच सांसद वहां गए और पीड़ितों के परिवार से मिल भी आए। इसके बावजूद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ही सुर्खियों में छाए रहे। इसकी वजह यह है कि वह कांग्रेस का एक संगठन है जो ममता बनर्जी के पास नहीं है। दूसरा है कि विरोधी भी तो आप की छवि तैयार करते हैं। मोदी शाह और भाजपा नेताओं के निशाने पर तो राहुल गांधी ही बने रहते हैं। अगर कभी बंगाल का जिक्र आता है तो ममता बनर्जी का नाम ले लेते हैं।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह तीसरी बार सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री के पद की दौड़ में उतर आई हैं। मोदी ने 2011 से ही 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। ममता बनर्जी ने भी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी 2021 से शुरू कर दी हैं। पर ममता और मोदी के बीच एक फर्क है जिसे अनदेखा नहीं कर सकते हैं। मोदी के पास देश के सभी हिंदी भाषा भाषी राज्यों में एक संगठन था। पर ममता बनर्जी के पास क्या है। किसी को गोवा से तो किसी को असम से तोड़ा है और तृणमूल कांग्रेस के संगठन का ढांचा बन गया। ऐसे संगठन नहीं बनता है। इसे कहते हैं कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा और भानुमति ने कुनबा जोड़ा।

तो फिर क्या ममता को मोदी का विकल्प बनने का दावा करने की प्रेरणा देव गौड़ा और आई के गुजराल से मिली है। यहां यह बता दें कि प्रधानमंत्री बनने के लिए उनके पास सांसद तो नहीं थे पर उनकी एक स्वीकार्यता थी।अब जरा ममता बनर्जी के सांसदों की गणित पर एक नजर डालते हैं। उनके सांसदों की गणित में बंगाल के 42 और गोवा मणिपुर और त्रिपुरा के छह सांसद ही शामिल हैं। यहां गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के 22 सांसद ही जीत पाए थे।

तो फिर यह कैसे यकीन कर लें कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बंगाल की 42 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार ही चुनाव जीत जाएंगे। अगर 25 या 30 सांसदों के बल पर ही प्रधानमंत्री बनना है तो भला शरद पवार ही क्यों पीछे रह जाएंगे। उनकी पार्टी एनसीपी का वजूद तो कई राज्यों में है। तो फिर अंतिम सवाल है कि क्या किसी सोची समझी रणनीति के तहत कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है।

(एच सिंह पत्रकार हैं।)

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