Saturday, April 27, 2024

निजी कम्पनियों पर तीन वर्षों के लिए मुनाफा कमाने पर रोक क्यों नहीं?

भारत की एक तेजी से विकास करते राष्ट्र की जो भी तस्वीर गढ़ी गई थी, राजीव गांधी द्वारा भारत को 21वीं सदी में ले जाने की बात, अटल बिहारी वाजपेयी के चमकते भारत की कल्पना, डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा ग्रामीण इलाकों में शहरी सुविधाएं मुहैया कराए जाने की अवधारणा, मनमोहन सिंह का सकल घरेलू उत्पाद की दर 8-9 प्रतिशत पहुंचा देना या नरेन्द्र मोदी की स्मार्ट शहरों की कल्पना, वह कोरोना संकट की तालाबंदी में लाखों मजदूरों द्वारा सड़कों पर हजारों किलोमीटर पैदल चलने की घटना ने चूर-चूर कर दी है। 

ऐसा पूरी दुनिया में कहीं नहीं देखने को मिला क्योंकि शायद इतनी बड़ी संख्या में लोग रोजगार के लिए पलायन नहीं करते अथवा विदेश की सरकारों ने अपने मजदूरों की बेहतर ढंग से देख-भाल की। अब यह साबित हो गया कि दुनिया की आर्थिक या सैन्य महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के पास या तो अपने गरीब की देखभाल करने हेतु संसाधन नहीं हैं अथवा राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। जब गरीबों को सबसे ज्यादा मदद की जरूरत थी तो उन्हें बेसहारा छोड़ दिया गया। 

हालांकि भारत के संविधान में ’समाजवादी’ उसकी पहचान बताई गई है, लेकिन वर्तमान त्र्रासदी ने भारतीय राज्य द्वारा वर्ग के आधार पर भेदभाव को साफ उजागर कर दिया है और चूंकि भारत में वर्ग और जाति व्यवस्था के वरीयता क्रम में सीधा सम्बंध है इस भेदभाव का शिकार ज्यादातर दलितों व पिछड़ों को होना पड़ा है। जबकि अमीरों के बच्चों के लिए मुफ्त बसों का इंतजाम हुआ, गरीब से बस या रेल का किराया लिया गया जिसकी वजह से कई लोगों ने यात्रा का विचार ही त्याग दिया और पैदल या साइकिल पर चलने को मजबूर हुए।

4 मई, 2020, को शराब की बिक्री की इजाजत देकर सरकार ने तालाबंदी का खुद ही माखौल उड़ाया। पुलिस द्वारा लोगों के समूहों में एकत्रित होने को जो कड़ाई से इससे पहले रोका जा रहा था वह प्रयास बंद हो गया। शराब की दुकानों पर जो कतार लगी थी वह गरीबों की थी न कि अमीरों की, ठीक नोटबंदी की तरह। इस तरह शराब की इजाजत देकर सरकार ने न सिर्फ लोगों को एकत्रित होने का बहाना दिया बल्कि उनके पास जो थोड़ी बहुत रकम थी, जो परिवार के खाने या दवाई पर खर्च होनी चाहिए थी, वह शराब में उड़ा दी गई।

जले पर नमक छिड़कने जैसे अब मजदूरों से अपेक्षा की जा रही है कि वे अपने अधिकारों को छोड़ दें। कई राज्य सरकारों ने अलग-अलग हदों तक विभिन्न समय अवधि हेतु श्रम कानूनों को निलम्बित कर दिया है। उत्तर प्रदेश ने सभी श्रम कानूनों को तीन वर्षों तक के लिए स्थगित कर दिया है और गुजरात में न्यूनतम आठ घंटों की कार्य अवधि की अनिवार्यता खत्म कर दी है और अधिक काम के लिए बढ़ा कर दी जाने वाली मजदूरी की दर भी अमान्य कर दी है। मजदूर दिवस 1 मई को मनाया ही इसलिए जाता है कि इस दिन 1893 में अमरीकी श्रमिकों ने तय किया कि आठ घंटों से ज्यादा काम नहीं करेंगे। 

किंतु हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखण्ड, हरियाणा, मध्य प्रदेश व उ.प्र. की सरकारों ने इस कठिन संघर्ष के बाद हासिल उपलब्धि को नजरअंदाज करते हुए अध्यादेश जारी कर दिए जो भले ही अपनी विधान सभाओं से पारित करवा लें किंतु न्यायालय से उन्हें मंजूरी मिल जाए यह मुश्किल ही लगता है। उत्तर प्रदेश में एक मजदूर संगठन ने जब उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की तो सरकार ने 8 मई को काम के घंटे प्रति दिन 12 व प्रति सप्ताह 72 करने का आदेश जारी किया था वह अगली सुनवाई से पहले ही वापस ले लिया।

हमारे प्रधान मंत्री को मजदूरों द्वारा उठाई जा रही तकलीफें राष्ट्र के प्रति उनका बलिदान नजर आता है। उन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबके पर बलिदान देने की जिम्मेदारी थोप दी है, जो कि वे जरूर दे रहे हैं – अपना रोजगार गवां कर, रेल पटरी या सड़क पर दुर्घटना में अपनी जान देकर या सिर्फ हजारों किलोमीटर का भूखे-प्यासे सफर तय कर, कई तो महिलाओं व बच्चों के साथ, अपनी सारी अमानत अपने शरीर पर ही लादे। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए कि हमारे देश के मजदूरों को सरे आम इस तरह अपमानित होना पड़ा।

यदि मजदूरों से बलिदान की अपेक्षा की जा सकती है तो अन्य लोगों, खासकर पूंजीपति वर्ग से क्यों नहीं जिसके पास अपनी जरूरत से ज्यादा जमा की हुई कमाई है। यदि मजदूरों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे न्यूनतम काम के घंटे अथवा न्यूनतम मजदूरी जैसे अपने अधिकारों को छोड़ दें तो पूंजीपति वर्ग से यह क्यों नहीं कहा जा सकता कि वह अगले तीन वर्षों के लिए अपना मुनाफा छोड़ दे। निजी कम्पनियों को अपने निदेशक मण्डल की जगह न्यासी मण्डल का गठन कर लेना चाहिए व कम्पनी मालिक को प्रबंधक न्यासी बन जाना चाहिए। कम्पनी में काम करने वाले हरेक व्यक्ति को अपने गुजारे भर के लिए तनख्वाह मिल जानी चाहिए। आखिर यही तो हम मजदूर से अपेक्षा कर रहे हैं न? 

महात्मा गांधी ने पूंजीपतियों को यही सलाह दी थी कि वे अपने को कम्पनी का मालिक न समझ एक न्यासी समझें और यह मानें कि उनकी सारी सम्पत्ति सार्वजनिक हित के लिए है। हालांकि सबको तनख्वाह अपने कौशल के अनुरूप मिलनी चाहिए किंतु वांछनीय होगा यदि गांधी के बाद इस देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक डाॅ. राम मनोहर लोहिया के सिद्धांत कि न्यूनतम व अधिकतम आय में दस गुणा से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए को हम मान लें। यदि प्रत्येक संस्था व सरकार में इस मानक का पालन होने लगे तो देश कोरोना संकट से प्रभावशाली तरीके से निपट सकता है। 

यदि उत्तर प्रदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी की दर रुपए 202 प्रति दिन है तो उत्तर प्रदेश में सरकारी या निजी क्षेत्र में किसी की भी तनख्वाह रुपए 2,020 प्रति दिन या रुपए 60,600 मासिक से ज्यादा न हो। यदि कोई कम्पनी अपने खर्च से ज्यादा कमाई करती है तो वह मुनाफा सरकारी खाते में चला जाए और बदले में सरकार उसके कर्मचारियों के लिए आयकर माफ कर दे। यदि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम का दायरा विस्तृत कर उसका लोकव्यापीकरण कर दिया जाए, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात,  दूर संचार व बैंक सबका राष्ट्रीयकरण हो जाए तो कोई वजह नहीं कि कोई भी परिवार उपर्युक्त आय में अपना खर्च क्यों न चला सके। कई देशों ने शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त कर रखी हैं ताकि आम नागरिक को कोई परेशानी न उठानी पड़े। इसी तरह एक विवेकपूर्ण नीति है सार्वजनिक यातायात को निजी वाहनों पर प्राथमिकता देना। 

यदि सेवा भाव से सार्वजनिक काम करने वाले लोग, जैसे कोरोना संकट के समय में काम करते बहुत सारे लोग दिखे, स्वैच्छिक रूप से या न्यूनतम वेतन पर सार्वजनिक पदों को सुशोभित करते तो सरकार के काम-काज में कार्यकुशलता आ जाती और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगता। इस तरह बुद्धिमानी पूर्वक नीतियों का चयन कर जीवन चलाने के खर्च को कम किया जा सकता है। कोरोना संकट के दौर में लगभग सभी लोग बस अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं ही पूरी कर रहे थे व आधुनिक जीवन के भोग-विलास की चीजों को छोड़ दिया था। जो जीवन शैली हमारे ऊपर थोप दी गई थी उसमें से कुछ चीजें हम स्वेच्छा से अपना सकते हैं।

जब तक हम सादा जीवन के आदर्श को नहीं अपनाते हैं तब तक हमारे लिए कोरोना की वजह से ध्वस्त हो गई अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना आसान न होगा।

(लेखक अरुंधती धुरू और संदीप पाण्डेय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। संदीप पांडेय मैगसेसे पुरस्कार विजेता हैं।)

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