Saturday, April 27, 2024

स्टेन स्वामी आखिर सत्ता प्रतिष्ठान की आंख के क्यों बने हुए थे कांटे


कुछ साल पहले, जब में एण्डियन पर्वत श्रृंखला पर स्थित बोलिवियन राजधानी ला पाज़़ गया था, मैंने एक रेस्त्रां में लगा बोर्ड  देखा, जिस पर स्पैनिश भाषा में लिखा था ‘सभी मानव बराबर हैं’। शहर में मैंने जो सप्ताह व्यतीत किया उसमें मैंने ऐसा ही साइनबोर्ड कुछ अन्य खाने की जगहों पर देखा, और इससे मेरा कौतूहल ऐसा जगा कि मैंने अपने एक बोलिवियन मित्र से इस पहेली का हल पूछा। आखिर जो बात सर्वविदित है, उसे बार-बार क्यों कहना-कि सभी मानव बराबर हैं? मेरे मित्र ने अपने कंधे उचकाकर कहा, ‘‘इसे बार-बार कहना इसलिए ज़रूरी है कि इस देश में अभी भी बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो अब तक इस बात पर विश्वास नहीं करते।’’

उसकी बात शायद भारत पर भी लागू होती है, जहां सार्वभौमिक गुणों और अधिकारों से सम्पन्न मानव की सत्ता का विचार ऐतिहासिक रूप से कभी जड़ नहीं पकड़ सका। हमारे गहरे रूप से वर्गीकृत, जातिवादी हिंदू समाज के विश्व दृष्टिकोण में तो कुछ लोग हैं जो ‘श्रेष्ठ’ हैं, और बाकी सब ‘निम्न’। और इनके बीच एक शून्य है, जिसमें कोई नहीं आता।

अब वापस चलें ला पाज़ वाली घटना पर, तो यह जुलाई की शुरुआत से मेरे दिमाग को कौंध रहा है, जबसे मैंने फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु के बारे में सुना। फादर स्टेन स्वामी एक जेसूट पादरी थे, जिन्हें फर्जी आरोपों पर हिरासत में ले लिया गया। क्योंकि वे एक दुर्लभ भारतीय थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन एक ऐसी परिकल्पना को चरितार्थ करने में लगा दिया जो कहने में बहुत साधारण लगता है-मानव की बराबरी।
यह एक ऐसी तलाश है जिसने उन्हें दशकों तक झारखण्ड के आदिवासियों के बीच काम करने को प्रेरित किया, जो भारत के सबसे शोषित-उत्पीड़ित लोग हैं-केवल आधुनिक दौर में नहीं, बल्कि कई सदियों से। आदिवासी, यानि भारत के मूल निवासी भारतीय उपमहाद्वीप में मुख्यतः पश्चिम और मध्य ऐशिया से घुसपैठ करने वाले प्रवासी/आक्रमणकारी लोगों द्वारा विजय, सहयोजन और विस्थापन की 5000-साल या अधिक लम्बी प्रक्रिया के शिकार रहे हैं।

आज भारत में 700 मूल निवासी समूह रहते हैं, जिनकी जनसंख्या करीब 10 करोड़ 40 लाख है और वे भारत के 1.25 अरब जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत हैं। उनका बड़ा हिस्सा देश के सामाजिक और आर्थिक सोपान के सबसे निचले पायदान पर है और उन्हें लगातार हिंसा का सामना करना पड़ता है। इनके पोषण की स्थिति और स्वास्थ्य संकेतक सबसे बुरे हैं और वे भारतीय जेल-निवासियों की एक अनुपातहीन संख्या निर्मित करते हैं।

जबकि अधिकतर धनी भारतीयों को इन समुदायों के बुनियादी अधिकारों का हनन परेशान नहीं करता, स्टेन के लिए उनकी हित-रक्षा जीवन भर का मिशन बन गया। वे खनन और अन्य प्रोजेक्ट्स के लिए उनके अपनी जमीन के अधिग्रहण के विरुद्ध उनके शान्तिपूर्ण प्रतिरोध व सांस्कृतिक तथा राजनीतिक स्वायत्तता के लिए उनके संघर्ष से जुड़ गए थे-और उन्हें इसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी।
यद्यपि स्टेन स्वामी वृद्ध थे और पार्किन्सन्स रोग के शिकार थे, भारत सरकार ने उन्हें इतना खतरनाक माना कि उन पर माओवादी का मुलम्मा चस्पा कर दिया और आतंकवाद निरोधक कानून के तहत गिरफ्तार करने के काबिल माना। अनेकों बार जमानत के लिए आवेदन ठुकराया गया और उन्हें बुनियादी सुविधाओं से मरहूम कर दिया गया जिसके कारण भरे हुए कारागार में रहते हुए वे कोविड-संक्रमित हो गए। उनकी मृत्यु मुम्बई के एक असपताल में 5 जुलाई को हुई। स्टेन की मौत को संस्थागत हत्या की संज्ञा दी गई और उसकी भारत के भीतर और बाहर कठोर भर्तसना हुई।

इस सौम्य जेसूट पादरी के संघर्ष और शहादत ने बोलिविया सहित कई अन्य लातिनी अमरीकी देशों में बहुतों को झकझोरा होगा; क्योंकि ये वह देश हैं जहां आदिवासियों का संघर्ष उस समय से जारी है जब 5 सदी पूर्व क्रिस्टोफर कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की थी। इस घटना ने स्पेनिश राजा द्वारा क्षेत्र पर फतह करने के लिए रास्ता खोल दिया, जिससे कि दसियों लाख मूल निवासियों को अपनी जमीन, अपनी परंपराओं और जीने के अधिकार से वंचित होना पड़ा।

लातिनी अमरीका और उत्तरी अमरीका पर कब्जा एक ऐसा मॉडल बन गया जिसके बाद यूरोपीय ताकतों द्वारा अफ्रीका और भारत सहित ऐशिया का बड़ा हिस्सा कब्जे में ले लिया गया। ऐसे समस्त औपनिवेशीकरण का मक्सद था प्रकृतिक संपदा का दोहन करना और सस्ते श्रम का शोषण करना, जिससे इन उपनिवेशों के उद्योगों की अंतहीन जरूरतें और जनता के बढ़ते उपभोग की लालसा को तृप्त किया जा सके।
उन्नीसवीं सदी के आरंभ में स्पेनिश शासन से मुक्ति के बाद भी मुट्ठी भर शासक अभिजात्यों द्वारा तानाशाही का पैटर्न लातिनी अमरीकी देशों में खास कुछ बदला नहीं। उदाहरण के लिए बोलिविया में, जो 1825 में आज़ाद हुआ था, सत्ता की बागडोर श्वेत भूपतियों के हाथों गई, जो वहां बस गए थे, जबकि मूल निवासियों के लिए, जो जनसंख्या के 62 प्रतिशत थे, उपनिवेश जैसी अधीनता बनी रही।

वे नागरिकता के अधिकार और संपत्ति रखने के मूल अधिकार से वंचित रहे, वोट नहीं दे सकते थे, न ही औपचारिक रूप से विवाह पंजीकृत करा सकते थे। 1938 से पूर्व, जब नया संविधान अपनाया गया, इन अदिवासी समुदायों के कानूनी अस्तित्व तक को मान्यता नहीं मिली थी। अदिवासियों और अन्य लोगों के अनवरत संघर्ष का ही नतीजा था 1952 की क्रान्ति, जिससे वोट देने और नागरिक कहलाने का सार्वभौम अधिकार प्राप्त हुआ। हालांकि 2006 में इवो मोरालेज़ के बोलिविया के प्रथम मूल निवासी राष्ट्रपति चुने जाने और 2009 में संविधान बनने के बाद ही देश की आदिवासी जनसंख्या और उनके इतिहास को औपचारिक रूप से मान्यता मिली।

आश्चर्य नहीं है कि स्टेन स्वामी स्वयं लिबरेशन थियोलॉजी आंदोलन से प्रभावित थे, जो 1960 के दशक में लातिनी अमरीका के कई हिस्सों में कैथोलिक चर्च के भीतर उभरा; यह क्षेत्र में गरीबी और सामाजिक अन्याय की प्रतिक्रियास्वरूप उभरा था। इस दर्शन के प्रवर्तक, जो आंशिक तौर पर मार्क्सवाद से प्रभावित थे, मानते थे कि धर्म का उद्देश्य जन्नत में बेहतर जीवन का भरोसा दिलाने की जगह इसी धरती पर दबे-कुचलों को भौतिक व राजनीतिक रूप से मुक्ति दिलाना है।

जबकि उन्होंने अपनी अध्ययन यात्रा लिबरेशन थियोलॉजी से शुरू की थी, मुझे ऐसा लगता है कि अपनी आध्यात्मिक यात्रा में स्टेन इन विचारों से भी आगे जा चुके थे। अदिवासियों के बीच रहते हुए वे एक ऐसे मूल्य-बोध की ओर बढ़े, जिसे अदिवासियों जैसे विश्व के तमाम मूल निवासी मानते थे-कि धरती केवल मनुष्यों की नहीं है, बल्कि अन्य प्रजातियों की भी है। इत्तेफ़ाक़ से बोलिविया वह जगह थी जहां यूनिवर्सल डेक्लरेशन ऑन राइट्स ऑफ मदर अर्थ को 2010 में अपनाया गया था।
कई मामलों में समानता के बावजूद भारत के आदिवासियों की स्थिति बोलिविया या लातिनी अमरीका के अन्य भागों जैसी नहीं है। सबसे पहले तो अन्य लोगों द्वारा उन पर आधिपत्य का इतिहास इन देशों से काफी पुराना है। यह कुछ सरलीकृत व्याख्या लग सकती है, परंतु जो कोलम्बस और उनके अनुयाइयों ने अमेरिकाज़ में 500 वर्ष में किया, वही सब कुछ भारत में आने वाले उन आक्रमणकारियों ने किया, जो 5000 वर्ष या उससे भी अधिक समय से भारत आ रहे थे।

सदियों से, जबकि अदिवासियों का एक हिस्सा हिंदू जातीय व्यवस्था के निचले पायदानों में दलितों या ‘अछूतों’ के रूप में गुलाम बनाया गया, अन्य लोग, जो आज अदिवासियों के नाम से जाने जाते हैं, क्रमशः बद से बदतर व प्रतिकूल भूभागों की ओर धकेल दिये गए। वे जंगल, उच्च पर्वतीय क्षेत्र या तटवर्ती इलाके, जहां आदिवासी आज रहते हैं, अनवरत हमलों के शिकार हो रहे हैं क्योंकि यहां कीमती खनिज और प्राकृतिक संपदा केंद्रित है, जिन पर वैश्विक व घरेलू निवेशकर्ताओं की पैनी नज़र गड़ी है।

भारत के अदिवासी, अलबत्ते, केवल भौतिक रूप से वंचित नहीं किये गए, बल्कि लातिनी अमरीका से कहीं अधिक, अपनी सांस्कृतिक पहचान से भी मरहूम कर दिये गए। उदाहरण के बतौर, उन्हें सरकारी तौर पर बिना अपनी धार्मिक पहचान के, हिंदू के रूप में श्रेणीबद्ध किया जाता है, यहां तक कि उनके अदिवासी होने के हक को तक छीन लिया जाता है।

जबकि भारत ने आईएलओ के 1957 के इंडिजेनस एण्ड ट्राइबल पॉपुलेशन्स कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किया था और 2007 में यूएन डेक्लरेशन ऑन द राइट्स आफ इण्डिजेनस पीपुल्स के पक्ष में वोट दिया था, उसने ऐसा केवल इस शर्त पर किया था कि सभी भारतवासियों को मूल निवासी माना जाए। कहने के लिए तर्क था कि इस शब्द का भारतीय संदर्भ में कोई और मतलब हो ही नहीं सकता।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्तमान सरकार का पितृ संगठन है, खास तौर पर आदिवासियों व दलितों के इस दावे के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है, कि वे ही भारत के मूल लोग या मूलनिवासी हैं। जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के द्वारा ऐसा दावा आरएसएस के दावे को ध्वस्त कर देगा कि सारे हिंदू या देश के बाहर के धर्म व वंशावली के लोग भारत के मूल निवासी हैं।
यह अदिवासियों के आत्म-निर्णय के अधिकार, स्थानीय संपदा पर कब्जा और यहां तक कि अधिक शक्तिशाली मुख्यधारा के हिंदू समुदायों द्वारा हथियाई गई भूमि पर दावा करने की प्रक्रिया को मजबूत करेगा।

इन सभी बातों के मद्देनज़र यह समझना मुश्किल नहीं है कि स्टेन को वर्तमान भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा क्यों उत्पीड़न का शिकार बनाया गया। अदिवासियों की सांस्कृतिक स्वायत्तता का समर्थन करने और उनकी जमीन के कॉरपोरेट लूट के खिलाफ बोलने के अलावा वे माहात्मा गांधी के अहिंसक कार्यनीति को अपनाते रहे। गांधी भी गरीबों के एक मसीहा थे, जिनकी हत्या हिंदू कट्टरपंथियों के हाथों हुई थी।
लिबरेशन थियोलॉजी, अहिंसक तरीके और बोलिवियन स्टाइल के मदर अर्थ विश्वदर्शन ने स्टेन स्वामी को एक किस्म का ‘लाल-हरित गांधी’ बना दिया था। किसी भी हालत में उन्हें स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया जाता था, और जैसा कि अंत में हुआ, सांस लेने और जीने तक नहीं दिया जाता था।

आगे क्या? बावजूद इसके कि स्टेन स्वामी की मृत्यु पर विश्व भर में और भारत में भी भारी आक्रोश देखा गया, भारत के सत्ताधारी आज अपनी कार्यवाहियों को बेशर्मी के साथ सही ठहरा रहे हैं, जैसा कि उन्होंने अनगिनत राज्य-प्रायोजित अत्याचार के साथ लगातार किया है। भारत के प्रमुख हिंदू उच्च जातियों से भी बहुत कुछ अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि इनका संपूर्ण इतिहास ही मूल निवासियों और जनता के अन्य हिस्सों की संपदा को बलपूर्वक या चतुराई अथवा प्रचार के जरिये हड़पकर प्रयोग में लाने का रहा है।

जिन आदिवासियों के लिए स्टेन जीते और संघर्ष करते थे उन्होंने फादर स्टेन की हत्या की प्रतिक्रिया में उनके नाम को 52 आदिवासी शहीदों की सूची में शामिल कर दिया। ये नाम बगैचा में एक बड़े से पत्थर की शिला पर अंकित हैं, वह सोशल एक्शन सेंटर और गृह जहां स्टेन अपना अधिक समय गुज़ारते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि फादर अंत में स्वयं आदिवासी बन गए थे।

जहां तक स्टेन के हज़ारों प्रशंसकों की बात है, तो चुनौती यह है कि वे भी आदिवासियों को मानव का दर्जा दिलाने और उनकी परंपराओं की रक्षा करने के संघर्ष से जुड़ें, जो तथाकथित सभ्य लोगों की संस्कृति से कहीं ज्यादा उन्नत है। वह परंपरा जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर शान्ति से जीना सिखाती है व उसके फल सभी जीवित प्राणियों के संग बांटना सिखाती है और कभी भी हमारे ग्रह से इतना अधिक ले लेना नहीं सिखाती जो हम वापस देने में सक्षम न हों।

(पत्रकार सत्या सागर का यह लेख अंग्रेजी में काउंटर करेंट में प्रकाशित हुआ है। वहां से इसे साभार लिया गया है। सत्या से [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।)

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