आखिर सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों के मसले पर क्यों नहीं सुनवाई कर रहा है? क्या उसे किसी बात का डर है? आखिर क्यों बार-बार टल रही है सुनवाई? सुनवाई का भरोसा देने के बाद भी संबंधित बेंच ने क्यों नहीं की सुनवाई? ये तमाम सवाल हैं जो लोगों के जेहन में घूम रहे हैं। यह सुनवाई पहले इसी 19 फरवरी को होनी थी। अब जस्टिस सूर्यकांत की बेंच ने मामले की सुनवाई को 18 मार्च तक के लिए टाल दिया है। जबकि सुनवाई न केवल बहुत जरूरी थी बल्कि संवैधानिक संस्था के तौर पर चुनाव आयोग का इससे सीधा हित और अहित जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्देशों को धता बताते हुए जिस तरह से चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों का विधेयक संसद से पारित कर दिया गया था उससे सुनवाई का पक्ष और मजबूत हो जाता है।
देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था अगर किसी मामले में कोई बात कहती है तो उस पर गौर किया जाना चाहिए। आखिर क्या कहा था सर्वोच्च न्यायालय ने? उसने कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अगर कोई पैनल बनता है तो उसमें देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विपक्ष के नेता के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सदस्य हो सकते हैं। यह चुनाव आयोग में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष आयुक्त के चयन के लिए बहुत जरूरी है। इससे सरकार के लिए किसी भी तरह की मनमानी कर पाना मुश्किल होगा।
लेकिन संसद में जब इस पर कानून बनाने की बारी आयी तो मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को रौंदते हुए चीफ जस्टिस को उस पैनल से हटा दिया। और उसमें पीएम, गृहमंत्री और संसद में विपक्ष के नेता को रखने का प्रावधान पारित कराया। इस तरह से कहा जाए तो परोक्ष तौर पर सरकार ही जिसको चाहेगी वही हमेशा आयुक्त या फिर मुख्य चुनाव आयुक्त बनेगा। इसकी स्थाई व्यवस्था कर ली गयी। ऐसे में अलग से किसी विधेयक को पारित कराकर कानून बनाने का आखिर क्या मतलब था? अगर विपक्ष समेत सभी पक्षों को दरकिनार कर सीधे सरकार द्वारा ही आयुक्तों का चयन किया जाना था तो फिर सरकार तो वह काम पहले से ही कर रही थी।
अभी हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के बाद जब नये मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन होना था तो सरकार ने नये कानून के मुताबिक बनाए गए नये पैनल की बैठक बुलायी। जैसा कि पहले से तय था पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने मिलकर नये सीईसी के तौर पर ज्ञानेश कुमार का चयन कर लिया। विपक्ष के नेता राहुल गांधी जो विधेयक पारित होने के दौर से ही इस प्रावधान का विरोध कर रहे हैं। बैठक में गए ज़रूर लेकिन उन्होंने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। बल्कि उन्होंने अपना डिसेंट नोट पेश किया और बैठक से चले गए। जिसमें उन्होंने पूरे चयन की प्रक्रिया को ही अन्यायपूर्ण करार दिया।
उन्होंने कहा कि वह किसी भी रूप में स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं है। देश में लोकतंत्र को जिंदा रखने की जिस एक संस्था की सबसे बड़ी और पहली जिम्मेदारी होती है वह चुनाव आयोग है। और चूंकि यह किसी एक पार्टी और दल से नहीं और न ही किसी एक सरकार से जुड़ा होना चाहिए इसलिए इसका स्वतंत्र और निष्पक्ष होना उसकी पहली शर्त बन जाती है। इस संस्था में किसी भी तरह का अविश्वास की पैठ पूरे लोकतंत्र के लिए घातक होगा। एक ऐसे दौर में जबकि बीजेपी और मोदी सरकार पर ईवीएम के मैनिपुलेशन और मतदाता सूचियों में हेरा-फेरी से लेकर चुनाव को प्रभावित करने वाले न जाने कितने इल्जाम लग रहे हैं। ऐसे में इस संस्था का निष्पक्ष होना बहुत जरूरी हो जाता है।
राजीव कुमार अपनी उस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। उन्होंने सरकार के साथ मिलकर उसके पक्ष में जिस तरह से चुनाव आयोग को संचालित किया वह बेहद शर्मनाक है। लोग तो यहां तक कहने लगे थे कि उनके कार्यकाल के दौरान मतदाता सूचियों में नामों को शामिल करने और निकालने का पूरा अधिकार बीजेपी दफ्तरों के हवाले कर दिया गया था। और चुनाव आयोग बीजेपी दफ्तरों का विस्तारित हिस्सा था। अनायास नहीं एक-एक विधानसभा क्षेत्र से 40-40 हजार मतदाताओं के नाम हटाए गए। नई दिल्ली की सीट इसकी खुली बानगी है। दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल भवन में दो-दो कमरों के फ्लैट हैं जो सांसदों के मेहमानों को आवंटित किये जाते हैं। उसमें एक-एक फ्लैट में 30-30 मतदाताओं को दिखाया गया है।
इस तरह से न जाने कितने भूत मतदाता के तौर पर अलग-अलग चुनावों में जिंदा कर दिए गए। और सब सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वोट करने आते थे। महाराष्ट्र में कई गावों में इसका जमकर विरोध हुआ। और कुछ गांवों ने तो मतदान के बाद खुद से अपने यहां मतदान की पहल की तो प्रशासन ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। क्योंकि सरकार को अपनी पोल खुल जाने का खतरा था। और अब तो मोदी के फ्रेंड अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी कह दिया कि ईवीएम के जरिये निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकता है। उन्होंने इस सिलसिले में अपने दूसरे मित्र एलन मस्क का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि मैंने इस मसले पर मस्क से बात की क्योंकि वह मशीनों के हमसे बड़े जानकार हैं, जिसमें उनका कहना था कि ईवीएम से चुनाव नहीं होने चाहिए।
लेकिन मोदी सरकार है कि मानने के लिए तैयार ही नहीं है। अब इस तरह के मैनिपुलेशन के लिए चुनाव आयुक्त का भरोसेमंद होना जरूरी है। और भरोसेमंद चुनाव आयोग के आयुक्तों के चयन के लिए जरूरी है कि चयन का अधिकार सीधे सरकार के हाथ में हो। लिहाजा सरकार ने वैसी ही व्यवस्था कर डाली है।
अच्छी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है। और होता भी क्यों नहीं। अगर वह ऐसा नहीं करता तो खुद उसके ऊपर ही सवाल खड़े हो जाते। क्योंकि उसने ही वह गाइडलाइन जारी की थी जिसकी सरकार ने कोई परवाह नहीं की। लेकिन अब मामला यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई कौन करे? शुरू में चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि वह सुनवाई करेंगे। लेकिन उन्होंने मामले को जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस ओक की बेंच के हवाले कर दिया। नये मुख्य चुनाव आयुक्त के चयन से पहले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से इसे निपटाने का आग्रह किया था। वैसा तो नहीं हो सका। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह बात ज़रूर कही थी कि नये मुख्य चुनाव आयुक्त सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन होंगे।
यानी अगर सुप्रीम कोर्ट पैनल में तब्दीली का फैसला पारित करता है तो फिर सीईसी को अपना पद छोड़ना पड़ सकता है। पिछली 19 फरवरी को जब सुनवाई की तारीख लगी तो प्रशांत भूषण ने जस्टिस सूर्यकांत से मामले को प्राथमिकता में रखने की गुजारिश की थी। और संभव होने पर उसे लिस्ट में पहले केस के तौर पर दर्ज करने के लिए कहा था। और जस्टिस सूर्यकांत ने भी कोई जरूरी केस न होने पर उसे प्राथमिकता देने की बात कही थी। लेकिन सुनवाई के दिन ऐसा कुछ नजर नहीं आया। मामले को अगली सुनवाई के लिए 18 मार्च तक टाल दिया गया। अब यह देरी क्यों की जा रही है? मामले को क्यों नहीं सुना जा रहा है?
यह एक बड़ा रहस्य बन गया है। दरअसल देश में सत्ता के भय और आतंक का जो माहौल है उससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। अनायास नहीं एक ही मामले में तमाम एक्टिविस्टों को जमानत मिल गयी जबकि मोहम्मद खालिद और शर्जील इमाम जैसे लोग उस न्यूनतम न्याय से भी दूर हैं। जबकि उनके मामले कई बार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुके हैं। जज उनके मामलों की सुनवाई की हिम्मत ही नहीं कर पा रहे हैं। तो क्या इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट मौजूदा सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से टकराना नहीं चाहता है? अगर सुप्रीम कोर्ट यह साहस नहीं दिखा पाएगा तो फिर इस देश में लोकतंत्र को बचा पाना किसी के लिए बहुत मुश्किल होगा।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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