Saturday, April 20, 2024

असहमत होने के अधिकार का अपराधीकरण कर रही है योगी सरकार

76 साल के एडवोकेट मोहम्मद शोएब, जिन्होंने अपने सामाजिक-राजनीतिक जिन्दगी का आगाज़ कभी समाजवादी आन्दोलन से किया था और जो विगत डेढ़ दशक से अधिक समय से उन बेगुनाहों का केस लड़ने के लिए जाने जाते रहे हैं, जिन्हें आतंकवाद के झूठे आरोपों के तहत जेल में बन्द किया गया और उन्हीं के हम उम्र भारतीय पुलिस सेवा से रिटायर्ड वरिष्ठ अधिकारी चर्चित अम्बेडकरवादी एस आर दारापुरी – जो सेवानिवृत्ति के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा लेखक के रूप में अधिक चर्चित हुए हैं – इन दोनों ने ही कभी सपने में सोचा नहीं होगा कि एक दिन उन्हें ‘दंगा भड़काने’’ तथा समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने के आरोप में जेल में ठूंसा जाएगा।

वैसे सूबा उत्तर प्रदेश के सूरतेहाल पर नज़र रखनेवाला हर शख्स जानता है कि वह दोनों अपवाद नहीं हैं।
फिलवक्त़ सैकड़ों सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, लेखक, संस्कृतिकर्मी उसी तरह राज्य के अलग अलग जेलों में ठूंसे गए हैं – जिन्होंने सीएए और एनआरसी अर्थात नागरिक संशोधन अधिनियम और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की मुखालफत की है या वह इसके खिलाफ 19 दिसम्बर को हुए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में शामिल हुए हैं।

ऐसी गिरफ्तारियों के मामले में वाराणसी भी अव्वल दिखता है जहां अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ताओं, श्रमिक नेताओं और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बीस से अधिक छात्रों के खिलाफ आठ विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज हुए हैं। 

निश्चित ही कोई भी जनतंत्रप्रेमी हिंसा का समर्थन नहीं करेगा और इस बात से सहमत होगा कि कानून तोड़ने वालों पर मौजूदा कानूनी प्रावधानों के तहत कार्रवाई हो – मगर सवाल यह उठता है कि क्या यह कथन महज आम लोगों पर, नागरिकों पर ही लागू होता है और कानून एवं व्यवस्था के रखवालों को इससे छूट मिलनी चाहिए !

हिंसा की घटनाओं के मामले में यह प्रश्न पूछा भी नहीं जा रहा है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान अपना चेहरा ढंके घुसे वह शरारती तत्व कौन थे, जो शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों को बाधित कर रहे थे और कई स्थानों पर नागरिक संशोधन अधिनियम के विरोधियों पर ही हमला करते दिख रहे थे  – जैसी की ख़बरें जगह-जगह से आयी हैं और यह भी कहा जा रहा है कि पुलिस उनकी हरकतों की तरफ आंखें मूंदी हुई थी। / देखें, प्राइम टाईम, रविश कुमार, एनडीटीवी, 26 दिसम्बर 2019/ द टेलीग्राफ जैसा अग्रणी अख़बार अपने सम्पादकीय ‘द रिप्रिजल टाईम इन यूपी’ अर्थात यू पी में बदले का वक्त़ /27 दिसम्बर 2019/ में यह पूछता है कि आखिर वह ‘अपराधी – जो रहस्यमय नागरिक जो पुलिस के साथ चल रहे थे – उन्हें अब तक चिन्हित क्यों नहीं किया गया है? क्या इसी वजह से कि सूबा यूपी में अन्दर से कुछ वीभत्स है ?’ 

ऐसी घटनाएं भी सामने आयी हैं कि पुलिस ने लोगों को गिरफ्तार करके गंभीर धाराएं लाद दी हैं जबकि ऐसे प्रसंग भी हुए हैं जब कोई हिंसा आसपास नहीं हो रही थी। वाराणसी के बेनियाबाग से सामाजिक कार्यकर्ताओं की हुई गिरफ्तारी – जिसमें एसपी राय, अनूप कुमार श्रमिक आदि लोग शामिल थे – के चश्मदीदों ने मीडियाकर्मी को खुल कर बताया कि कितनी शांति से सभी लोगों ने गिरफ्तारी दी थी। 

लखनऊ के संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर का मामला तो राष्ट्रीय सुर्खियों में भी आया है कि किस तरह उन्हें गिरफ्तार किया गया जब वह अपने गायब मित्रों के बारे में जानने के लिए पुलिस स्टेशन पहुंचे थे। अध्यापिका, अभिनेत्री एवं कांग्रेस प्रवक्ता सदफ जफर की लखनऊ की सड़क पर गंभीर धाराओं में गिरफ्तारी – जबकि वह 19 दिसम्बर की घटनाओं पर ‘फेसबुक लाइव’ कर रहीं थीं तथा खुद पुलिस को यह कह रहीं थीं कि वह हिंसा फैलाने वाले तत्वों पर अंकुश क्यों नहीं लगा रहे हैं, इसी की एक और मिसाल है।

ख़बरें यह भी आयी हैं कि पुलिस ने बच्चों को भी थाने में प्रताड़ित किया है। ‘द वायर’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक बिजनौर के बच्चों ने उनके प्रतिनिधि को पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाने की दर्दनाक घटनाएं बयां की ।

हफिंग्टन पोस्ट के संवाददाता ने बिजनौर के ही पांच ऐसे बच्चों से मुलाकात की जिन्हें दो दिन तक थाने में रखा गया तथा प्रताड़ित किया गया। उसके मुताबिक ऐसे कम से कम 22 बच्चे हो सकते हैं। 

विभिन्न स्रोतों से सोशल मीडिया पर वीडियो भी जारी हुए हैं – जिनमें से कुछ को मुख्यधारा के चैनलों ने भी प्रसारित किया है – जो लोगों को कथित तौर पर उकसाने में पुलिस की विवादास्पद भूमिका को उजागर करते हैं। याद किया जा सकता है कि किस तरह एक अग्रणी टीवी चैनल ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गेट के बाहर का वह दृश्य दिखाया था जब पुलिस के भेष में जवान छात्रों एवं आम नागरिकों की मोटरसाइकिलों को तोड़ते दिख रहे थे। इसके कुछ ही देर बाद विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस घुसी थी। 

पुलिसकर्मी कथित तौर पर मुख्यतः अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के घरों में घुसते सीसीटीवी कैमरों में कैद हुए हैं, जहां वह घर के सदस्यों से दुर्व्यवहार करते या उनकी सम्पत्ति को नष्ट करते भी दिखे हैं। कई पीड़ितों ने अलग-अलग मीडिया संगठनों से इसके बारे में आपबीती सुनायी है। 

यह शायद नागरिक संशोधन अधिनियम के विरोध को निपटने में सरकार के पक्षपाती रूख का प्रतिबिम्बन है कि एक ऐसा अख़बार जो अपनी माडरेट छवि के लिए जाना जाता है वह अपने सम्पादकीय में यह कहने को मजबूर हुआ दिखता है कि किस तरह नागरिक संशोधन अधिनियम के खिलाफ खड़े प्रदर्शनकारियों से निपटने में ‘उत्तर प्रदेश की कानून पर अमलकर्ता मशीनरी निर्द्वंद आगे बढ़ती दिखती है’। इसके मुताबिक

‘ सड़कों पर व्यवस्था बनाए रखने के प्रति अपनी सख्त छवि प्रोजेक्ट करने की कोशिश में, योगी आदित्यनाथ सरकार यही सन्देश चेतन या गैरइरादतन देती हुई दिख रही है जो साम्प्रदायिक तेवरों को छिपा नहीं पा रहा है  …. प्रदर्शनकारियों को चुनिन्दा तरीके से निशाना बनाने और पूरे राज्य से मिल रही पुलिस बर्बरता की ख़बरों पर उठे प्रश्नों को अनसुना किया जा रहा है।

मालूम हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी नागरिक सुधार अधिनियम को लेकर हुए प्रदर्शनों के बारे में यूपी के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस को नोटिस भेजा है। दरअसल उसे ऐसी कई याचिकाएं मिली हैं जो राज्य पुलिस द्वारा कथित तौर पर किए मानवाधिकार उल्लंघनों की घटनाओं में हस्तक्षेप की मांग करती दिखती हैं।  

अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ताओं – योगेन्द्र यादव, कविता कृष्णन, रियाद आज़म, नदीम खान – आदि द्वारा उत्तर प्रदेश के हालिया दौरे के बाद जारी तथ्यान्वेषण / फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि सूबे में योगी सरकार ने ‘आतंक का राज’ कायम किया है।  उनके द्वारा जारी रिपोर्ट में ‘अलग-अलग जिलावार आंकड़े और परिवारों की आपबीती की घटनाएं साझा की गयी हैं और जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि राज्य की भाजपा सरकार सचेतन तैर पर मुसलमानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है।’ / वहीं/ रिपोर्ट में दावा किया गया है ‘राज्य की हालिया घटनाएं ‘सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के मार्फत जांच की मांग करती हैं तथा ज्यादतियों में कथित तौर पर संलिप्त पुलिस अधिकारियों को निलम्बित भी किया जाना चाहिए।’

दूसरी तरफ खुद योगी सरकार इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी पीठ थपथपाती दिख रही है। मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट में कहा गया है कि ‘हर दंगाई हतप्रभ है, हर उपद्रवी हैरान है, देख कर योगी सरकार की सख्ती सभी के मंसूबे शांत हैं …’  

इस अवसर पर यह सवाल उठाना बेहद मौजूं जान पड़ता है कि आखिर सूबा उत्तर प्रदेश में ही नागरिक संशोधन अधिनियम के विरोध में हिंसा की अधिक घटनाएं क्यों हुई हैं, क्यों यहां 19 से अधिक लोग मौत का शिकार हुए? आखिर क्यों गिरफ्तारियों के मामले में यूपी अव्वल दिखता है जहां सैकड़ों हजारों लोगों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज किया गया है। मसलन यूपी पलिस ने कानपुर शहर के अलग-अलग 15 पुलिस स्टेशनों में 21,500 लोगों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखायी है, जिनमें से अधिकतर ‘अज्ञात’ हैं। या उसने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर के अन्दर हुए कैण्डललाईट अर्थात मोमबत्ती प्रदर्शन को लेकर 1,200 लोगों के खिलाफ – जिनमें छात्रा, शिक्षक एवं अभिभावक सभी शामिल हैं – एफआईआर दर्ज की है।

क्या इसका सम्बन्ध ‘बदले’ की उस बात से है जिसका आगाज़ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 19 दिसम्बर के प्रदर्शनों के पहले किया था। प्रदर्शनकारियों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा था:

‘‘ हिंसा में मुब्तिला हर व्यक्ति की सम्पत्ति जब्त की जाएगी और सार्वजनिक सम्पत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए उसका इस्तेमाल होगा। उनके चेहरे पहचाने गए हैं। वह वीडियोग्राफी और सीसीटीवी फुटेज में भी दिख रहे हैं। हम उनकी सम्पत्ति जब्त करके उनसे बदला लेंगे, मैंने सख्त कार्रवाई के आदेश दिए हैं।’’ 

या इसका ताल्लुक योगी सरकार के सत्तारोहण के बाद ‘अपराध रोकने’ के लिए पुलिस को दी गयी कथित खुली छूट का परिणाम है जिसका परिणाम राज्य में फर्जी मुठभेड़ों के रूप में सामने आया है और जिसने पुलिसबल के अन्दर कानूनी निगरानी का भय भी समाप्त किया है। हम याद कर सकते हैं कि अपने आगमन के 16 माह के अन्दर ही योगी सरकार के तहत 3,026 पुलिस मुठभेड़ें हुई थीं जिसमें 69 संदिग्ध अपराधी मारे गए थे। यह ऐसी बात थी जिसे खुद सरकार ने अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाया था। 

मामला जो भी हो प्रस्तुत घटनाक्रम के दो ऐसे पहलू हैं जो अभी भी आगे विकसित हो रहा है तथा शेष भारत के लिए भी उसकी अहमियत है।

– पहला पहलू है कि योगी सरकार की यह योजना – जिसको अमली जामा भी पहनाया जा चुका है – जिसके तहत प्रदर्शन में शामिल लोगों के पोस्टर्स विभिन्न शहरों/कस्बों में चस्पां किए गए हैं, जिसमें खतरनाक अपराधी की तरह उन्हें ‘दंगाई’ कहते हुए उनके ‘वान्टेड’ होने की बात कही गयी है और लोगों से यह अपील की गयी है कि इन ‘उपद्रवियों’ के बारे में सूचना पुलिस को दे दें और उचित ईनाम भी पाएं। इसे रेखांकित करने की जरूरत नहीं कि इनमें शामिल अधिकतर लोग अल्पसंख्यक समुदाय से ही हैं।

– दूसरा पहलू है ऐसे लोगों की ‘सम्पत्ति जब्त’ करने का फरमान – जिन्हें सरकार दंगाई मानती है – जो महज जनतांत्रिक अधिकारों के तहत प्रदर्शनों में शामिल हुए थे। 

‘मालूम हो कि मुजफ्फरनगर में तीन दर्जन दुकानों में सरकार की तरफ से ताले लगा दिए गए हैं ताकि सार्वजनिक सम्पत्ति को हुए नुकसान की इनमें रखे सामान को बेच कर भरपाई की जाए। कानपुर में ऐसे 28 उपद्रवी चिन्हित किए गए हैं। रामपुर प्रशासन ने भी इसी तरह 28 लोगों को चिन्हित किया है जिनके यहां जब्ती की कार्रवाई की जाएगी।  अब यह देखना होगा कि न्यायिक देखरेख से विहीन लोगों को दोषी ठहराकर कार्यपालिका के स्तर पर उनसे उनकी सम्पत्ति छीनने का यह सिलसिला कैसे आगे बढ़ता है और क्या इस मनमानी पर उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करता है या नहीं। 

वैसे असली मुद्दा यह दिखाता है कि किस तरह एक प्रायोजित हिंसा के बहाने सभी किस्म के जनतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के अपराधीकरण करने का रास्ता सुगम किया जा रहा है। 

कल्पना करें कि कल अगर महंगाई को लेकर लोग प्रदर्शन करने की सोचें या श्रमिक अधिकारों के बढ़ते हनन या किसानों की दुर्दशा जैसे बेहद जरूरी मसलों पर लोग शांतिपूर्ण आन्दोलन को आगे बढ़ाने के बारे में सोचने लगें तो किस तरह इसी तर्ज पर उन्हें अपराधी ठहराया जा सकता है, उनके नाम के पोस्टर्स ‘दंगाई’ या ‘उपद्रवी’ कहते हुए पूरे शहर में चस्पां किए जा सकते हैं। आज भले ही योगी सरकार अपनी प्रशंसा करने में मुब्तिला हो कि उसने किस तरह शांति कायम की, मगर यह एक किस्म की मरघटी खामोशी है, जो भारत में जनतंत्र की भविष्य की यात्रा पर छा रहे काले बादलों का संकेत देती दिखती है।
देश के हृदयस्थली / हार्टलैण्ड में आगे बढ़ते इस सिलसिले को संविधान के पूरे दायरे में रह कर शांतिपूर्ण आंदोलन के दायरे में रहते हुए पूरी ताकत से विफल करने की जरूरत है क्योंकि यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता तथा असहमति प्रगट करने की स्वतंत्रता के अधिकार को ही – पिछले दरवाजे से समाप्त करने का रास्ता खोल रहा है। 

यह नया ‘यूपी मॉडल’ – जिसकी अन्तर्वस्तु कानून व्यवस्था के रखवालों को दी जा रही खुली छूट तथा दक्षिणपंथी शरारती तत्वों के साथ उनकी मिलीभगत तथा असहमत होने के हमारे अधिकार का ही अपराधीकरण करने की प्रक्रिया के घालमेल पर टिकी है – भारत के जनतंत्र के भविष्य के लिए एक नयी चुनौती के तौर पर उपस्थित है।

अन्त में 14 माह की चम्पक, जो पर्यावरण के मसले पर सक्रिय वाराणसी के कार्यकर्ता दम्पति सुश्री एकता और रवि शेखर की बेटी है, का किस्सा जो विगत सप्ताह भर से अधिक समय से अपने माता पिता से अलग है। वजह यह दम्पति भी वाराणसी के उन 56 कार्यकर्ताओं के साथ गंभीर धाराओं में जेल में बन्द है। निचली अदालत ने इन सभी की जमानत खारिज की है और जब अदालतें जनवरी माह में खुलेंगी तब यह मामला उनके सामने आएगा। जरूरी नहीं कि वहां भी उन्हें जमानत मिले।

क्या यह कहा जाना मुनासिब होगा कि अपने माता पिता से 14 माह की चम्पक का यह अलगाव, दरअसल जनता से प्रतिशोध लेने की सरकारी मंशा का ही एक प्रतिबिम्बन है ! यह अकारण नहीं कि वाराणसी के बजरडीहा में 19 दिसम्बर के बेहद शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा अचानक किए गए लाठीचार्ज में मची भगदड़ में कुचल दिए गए ग्यारह साल के सगीर की मौत पर जिले के आला अधिकारी ने ऐसी प्रतिक्रिया देने में संकोच नहीं किया कि ‘ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं।’ 

(सुभाष गाताडे लेखक और चिंतक हैं आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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